जी! आप इन्हें जानते हैं, लेकिन पहचान नहीं पाएंगे, क्योंकि 46 की उम्र में ये काफी बूढ़े लगने लगे हैं. और आप पहचान भी गए तो स्वीकार नहीं कर पाएंगे- वो, जो इनकी दशा हो गई है.
# लिंबा राम- जिनके नाम एक वर्ल्ड रिकॉर्ड और कई पदक हैं, इस वक्त एक गंभीर न्यूरोलॉजिकल बीमारी से जूझ रहे हैं. और इलाज करवाने के लिए इनके पास पैसे भी नहीं हैं.अगर आप ये सोच रहे हैं कि इतना बड़ा एथलीट कैसे इस स्थिति तक पहुंच गया. तो इसका एक कारण तो हमारी लचर व्यवस्था भी है. लेकिन लिंबा राम एक आदिवासी भी हैं. एक आदिवासी पूरी दुनिया घूम ले, लेकिन अपनी मासूमियत नहीं खो पाता. एक आदिवासी कितना भोला हो सकता है, चाल-चतुराई से कितना दूसर हो सकता है इसका अनुमान ऐसे ही लगाया जा सकता है कि इस पद्मश्री तीरंदाज लिम्बा राम को उनका ही एक चेला पद्मश्री का प्रमाण पत्र और 5 लाख रुपये ठग कर फरार हो गया. ये बात 2014 की थी.
# लिंबा राम- एक आदिवासी जो ओलंपिक्स में भारत की तरफ से पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक पाते-पाते रह गए थे, आज डॉक्टर्स शक जता रहे हैं कि शायद वो पार्किंसन रोग से पीड़ित हों. होने को हमारी दुआ यही रहेगी कि रिपोर्ट निगेटिव ही निकले.

लेकिन हम 2014 से थोड़ा और पीछे जाएंगे जब लिंबा उदयपुर, राजस्थान के इलाके के छोटे से गांव सरादित में रहते थे. एक आदिवासी की तरह. एक गरीब, बहुत गरीब आदिवासी की तरह. तब जब ओलंपिक्स, पदक, शोहरत से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था. नाता तो छोड़िए उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि अपने एक कौशल के चलते न केवल पूरी दुनिया घूम लेंगे बल्कि, भारत को तीरंदाज़ी में एक नया मुकाम दिलवाएंगे.
तब तो खाने के लाले पड़े हुए थे, इसलिए उड़ती चिड़िया को मारने के लिए तीर-कमान अपने हाथ में लिया, ताकि आज अपना पेट भरा जा सके. कल की कल देखी जाएगी.
फिर एक ऐसा कल आया जब इनके चाचा ने इन्हें बताया कि सरकार कुछ अच्छे तीरंदाजों को ढूंढ रही है. ये 1987 की बात थी. तब लिंबा 15 साल के रहे होंगे. लिंबा चले गए उस भर्ती में. सेलेक्ट हो गए. ये भर्ती स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया की तरफ से की जा रही थी. इसका क्या मतलब हो सकता है, शायद लिंबा को उस वक्त नहीं पता रहा होगा. लेकिन बाद में...

1987 की बात है. उस साल उन्हें स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया ने खोजा. इसी वर्ष वो बेंगलुरू में आयोजित जूनियर तीरंदाजी टूर्नामेंट में नेशनल चैंपियन बने. इसके ठीक एक साल बाद, 1988 में, लिम्बा सीनियर्स वाले टूर्नामेंट में भी जीते. इस जीत ने साउथ कोरिया जाने का उनका टिकट पक्का करवा दिया. वहां उन्हें समर ओलंपिक्स में भारत को रिप्रजेंट करना था. 1989 में विश्व तीरंदाजी चैंपियनशिप के क्वार्टर फाइनल में पहुंचे. इसी साल एशिया कप में सेकंड आए और भारत की टीम को गोल्ड मिला. 1990 में, उन्होंने बीजिंग एशियाई खेलों में भारत को चौथे स्थान तक पहुंचाया.
1992 में तो उन्होंने कमाल ही कर दिया. जगह थी वही, पिछली बार वाली- बीजिंग. लेकिन अबकी प्रतियोगिता थी एशियन तीरंदाजी चैंपियनशिप. इसमें उन्होंने 30-मीटर स्पर्धा में वर्ल्ड रिकॉर्ड की बराबरी कर ली और गोल मेडल जीता.
1992 में बार्सिलोना ओलंपिक में सिर्फ एक पॉइंट के चलते पदक से चूक गए. इस बार जीत जाते तो ऐसा पहला पदक होता जो भारत किसी भी 'व्यक्तिगत' श्रेणी में जीतता. वरना इससे पहले तो सिर्फ हॉकी जैसे टीम टूर्नामेंट ही भारत को पदक तालिका में बनाए रखते थे. मगर ये हो न सका...
बहरहाल वापस आते हैं 2019 में. एम्स के उसी 6 बेड वाले जर्नल वार्ड में, जिसकी बात हमने इस स्टोरी की शुरुआत में की थी. 1991 में 'अर्जुन अवार्ड' और 2012 में पद्मश्री पा चुका ये खिलाड़ी आज अकेला पड़ गया है. बगल में बैठी है उनकी पत्नी टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताती हैं-
डॉक्टर कहते हैं कि इनकी बीमारी ठीक तो नहीं हो सकती, लेकिन ऐसे उपाय किए जा सकते हैं कि उसे बढ़ने से रोका जा सके. मेरे पति को अच्छे इलाज की ज़रूरत है, जो उन्हें यहां मिलता भी है. सभी डॉक्टर्स उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं और उनकी मदद को तत्पर रहते हैं. प्राइवेट हॉस्पिटल्स में तो खूब पैसा लगेगा. हम इन्हें वहां नहीं ले जा सकते.वैसे ये इत्तेफाक है कि अर्जुन अवार्ड पाने वाले लिंबा, उसी कबीले से आते हैं जहां से कहा जाता है कि एकलव्य आते थे. इसलिए ही तो वह 'अर्जुन' पाने वाले 'एकलव्य' कहे जा सकते हैं.
अब केंद्रीय खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़, जो उन्हीं के राज्य से आते हैं, ने कहा है कि खेल मंत्रालय उनको 5 लाख का अतिरिक्त इंश्योरेंस देगा.
ये दूसरा इत्तेफाक है कि एक ओलंपिक का निशानेबाज़ (पिस्टल) ही दूसरे ओलंपिक के निशानेबाज़ (तीरंदाज़ी) के लिए आगे आया है.
हमारी तरफ से भी दुआएं रहेंगी कि आप जल्द से जल्द स्वस्थ होकर घर लौटें. खेलों में आपके योगदान के लिए आप सदा अविस्मरणीय रहेंगे.
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