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नेताओ, किसानों और गांवों को समझना है, तो गांधीजी से सीखो

किसानों की मदद के लिए गांधीजी गांवों तक गए थे. उन्होंने दिल्ली में बैठकर चरखे की नुमाइश से अपना गांव-प्रेम नहीं दिखाया था.

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फोटो - thelallantop
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी

डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता हैं. लोक में खास दिलचस्पी है, जो आपको यहां देखने को मिलेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे और आपसे रू-ब-रू हो रहे हैं. 'देहातनामा' के जरिए. पेश है इसकी तीसरी किस्त:-

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चंपारण में जब महात्मा गांधी लोगों को सफाई के लिए जागरूक कर रहे थे, तो एक महिला ने कस्तूरबा को अपना घर दिखाते हुए कहा, 'देखो, मेरे घर में ये पेटी है, लेकिन इसमें कोई कपड़ा नहीं है. मेरे पास एक ही धोती है, जो मैंने पहन रखी है. इसे मैं कैसे धो सकती हूं. महात्मा से कहिए कि वो कपड़े दिलवाएं, तो मैं सफाई से रहने को तैयार हूं.' ये एक किस्सा है, जो बताता है कि गांधीजी को देश में कितने जमीनी स्तर से सुधार करना पड़ा. आज के नेताओं के सामने ऐसी विवशताएं नहीं हैं. ये नेता गांधीजी से बहुत कुछ सीख सकते हैं.



भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी की चर्चा कभी ठप नहीं होती. कारण है कि उन्होंने राजनीति को बहुत दूर तक प्रभावित किया है. अपने सिद्धांत और व्यवहार से. आज़ाद भारत में भावी राजनीति के लिए वो एक प्रेरणा हैं और चुनौती भी. उनके व्यक्तित्व और चिंतन के आयाम इतने अधिक हैं कि हर कोई 'अपनी ज़रूरत का गांधी' रचने की कोशिश करता है. कोई उनके सफाई अभियान को आगे रखकर बाकी आयामों को पीछे ढकेल देता है. ऐसा ही कोई कभी किसी दूसरे आयाम को लेकर भी करता है.

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खामी और खूबी, दोनों ही मामलों में ये बात लागू होती है. दरअसल एकायामी बनाना किसी महानता को, संवाद को सीमित करना है. ऐसे में अन्य आयामों पर भी विचार जरूरी है.


इसी वर्ष महात्मा गांधी के बहुचर्चित चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे हुए. चंपारण, जहां वो सौ साल पहले ग्रामीण किसानों की सहायता के लिए गए थे. गांव के किसानों को दुर्दशा में छोड़कर कोई दिल्ली-महानगर में बड़े से चरखे की नुमाइश में अपना गांधी-प्रेम दिखाए, तो समझिए वो गांधीवाद को ही चर-खा रहा है.

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इस समय हर राज्य के किसान बेहाल हैं. आत्महत्या की बुरी खबरों ने माहौल में एक अलग घुटन का अहसास करा दिया है. गांधीजी जब चंपारण गए थे, तब ब्रिटिश बागान मालिकों ने किसानों के लिए नरक जोत रखा था. उनके भारतीय एजेंटों ने और भी मुश्किल पैदा कर दी थी. देहाती किसानों की जिंदगी में अंधेरा ही अंधेरा था. बड़ी अंधेर थी. लेकिन, योद्धा गांधी ने किसानों की लड़ाई में विजय पाई. ऐतिहासिक जीत.

आज अपने ही देश की शासक शक्तियां अंग्रेजों की तरह हो बैठी हैं. देश में लोकतंत्र है, आजादी है, फिर भी तबाही है, बर्बादी है. देश में देशवासियों पर देशी अंग्रेज़ों का हुकूमती कब्जा है. चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर आज़ाद भारत में हमने क्या नज़ीर पेश की है!


चंपारण महात्मा गांधी की आत्मकथा का 'ग्राम-प्रवेश' है. खुद उनका कहना है कि जाने से पहले वो चंपारण का नाम तक नहीं जानते थे. गए, तो वहां रम गए.

उन्होंने ग्राम-सुधार के अनेक दूरदर्शी कदम उठाए. चंपारण की कम भूमिका नहीं थी, जो देहात और देहाती मनुष्य गांधीजी के सरोकार में भविष्य में कभी हाशिए पर नहीं रहा. 1936 में अपने साप्ताहिक 'हरिजन' में उन्होंने लिखा, 'मेरा विश्वास रहा है और मैंने अनेक बार ये बात दोहराई है कि भारत उसके शहरों में नहीं, बल्कि उसके 7 लाख गांवों में बसता है.'

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लेकिन, इन गांवों में बहुत काम किए जाने की जरूरत है. यहां अशिक्षा है. बदहाली है. जहालत है. अंधविश्वास है. इन्हें दूर करना होगा, लेकिन खुद गांव से दूर रहकर नहीं. अपने अंग्रेजी साप्ताहिक 'यंग इंडिया' में 1931 में उन्होंने अपना मंतव्य रखा, 'हमें गांवों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है. हमें उन्हें उनके पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों और संकीर्ण दृष्टिकोण आदि से मुक्त कराना है और इसका इससे अच्छा कोई उपाय नहीं कि हम उनके बीच जाकर रहें. उनकी ख़ुशियों और गमों में भागीदार बनें और उनके बीच शिक्षा और उपयोगी जानकारी का प्रसार करें.'

देहात में रहते हुए गांधी सिर्फ़ अंग्रेज़ों के खिलाफ ही नहीं लड़ रहे थे, बल्कि एक दूसरी बहुत ज़रूरी लड़ाई भी लड़ रहे थे. वो है गांवों को पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों और संकीर्ण सोच की गुलामी से आजाद कराना. इसके लिए उन्होंने गांव में रहकर देहाती लोगों के बीच अपनी पहुंच बनाते हुए हकीकत का नजदीकी और अंदरूनी अनुभव किया. तब उन्हें समझ में आया कि ऊपरी सत्ता-परिवर्तन ही सब कुछ नहीं है. बदलाव की जरूरत नीचे से भी है. देहातों से.


चंपारण में महात्मा गांधी
चंपारण में महात्मा गांधी

वो इस काम में जुट गए. छः महिलाओं समेत 21 स्वयंसेवकों की टीम बनी. गांधीजी की पत्नी 'बा' यानी कस्तूरबा भी इस टीम का हिस्सा थीं. ग्रामीण स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, स्वच्छता अभियान और नैतिक जीवन के महत्व पर बल देते हुए सामाजिक शिक्षा की कोशिशें हुईं, जिनके संकेत आज भी चंपारण में देखे जा सकते हैं.

उनके सफाई अभियान की कोशिशें हवाई नहीं थीं. समस्याओं की जड़ तक जाने वाली थीं. उन कोशिशों को सोचें, तो आज के नेताओं की झाड़ू लेकर पोज देने वाली सफाई अभियानी तस्वीरें चटख पाखंड से अधिक कुछ नहीं लगेंगी. किसी ने मैला कपड़ा पहना है या कोई स्वच्छ नहीं रहता, तो गांधीजी उसके कारण तक जाने का धैर्य, रुचि और विवेक रखते थे. इसकी पुष्टि उनके देहात के कई वाकये करते हैं.

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भीतिहरवा (चंपारण) गांव के पास के एक छोटे से गांव की घटना है. गांधीजी ने देखा कि वहां की बहनों के कपड़े बहुत मैले हैं. उन्होंने कस्तूरबा को ये काम सौंपा कि इन बहनों को समझाओ कि ये कपड़े बदलकर साफ़-सुधरी रहें. कस्तूरबा गईं समझाने. एक बहन कस्तूरबा को अपनी झोपड़ी के अंदर ले गई. झोपड़ी दिखाते हुए बोली:


'आप देखिए. यहां कोई पेटी या अलमारी नहीं है, जिसमें कपड़े बंद हों. मेरे पास यही एक धोती है, जो मैंने पहन रखी है. इसे मैं कैसे धो सकती हूं? महात्मा जी से कहिए कि वो कपड़े दिलवाएं. उस दशा में मैं रोज़ नहाने और कपड़े बदलने को तैयार रहूंगी.'

गांधीजी अपनी 'आत्मकथा' में इस घटना के उल्लेख के साथ ये भी लिखते हैं कि 'हिन्दुस्तान में ऐसे झोपड़े अपवाद रूप नहीं हैं. असंख्य झोपड़ों में साज-सामान, संदूक-पेटी, कपड़े-लत्ते कुछ नहीं होते और असंख्य लोग केवल पहने हुए कपड़ों पर ही अपना निर्वाह करते हैं.'
सोचिए, गांधी की तस्वीरें, जिनमें वे एक ही वस्त्र पहने हुए दिखते हैं, उनमें पूरे हिन्दुस्तान का सच दिखाई देता है. एक वस्त्र के रूप में उन्होंने उस दुख को ही पहनना चाहा, जिसे उस वक्त का देहात जी रहा था.


बा की एक तस्वीर
बा की एक तस्वीर

उनके कामों में कदम-कदम पर दिक्कतें आतीं. गांववालों की तरफ़ से भी. काम को बीच में छोड़ देने वालों में वे नहीं थे. ये दिक्कतें उन्हें देहात से दफा कर देने के लिए लाई जाती थीं, लेकिन इरादा पक्का और सच्चा हो, तो दिक्कतें इरादे को और पुख्ता ही करती हैं.

भीतिहरवा में जो पाठशाला उन्होंने बनाई थी, वो छप्पर की थी. बांस और फूस से बनी. किसी ने रात में उसे फूंक दिया. बांस और फूस को फिर से जुटाना मुनासिब न हो सका. इस पाठशाला को देखने का काम दो स्वयंसेवकों के जिम्मे था, श्री सोमण और कस्तूरबा. सोमण जी ने अब ईटों का मकान बनाने की ठानी, जिसे फूंका न जा सके. दूसरों ने उनका साथ दिया. इस तरह ईंटों की पाठशाला बन गई.


बदलाव की जो देहाती लड़ाई गांधीजी लड़ रहे थे, वो एक मॉडल था. इस लड़ाई को दूसरों को आगे बढ़ाना था. स्वाधीनता की लड़ाई में वे व्यस्त हो गए और इधर की लड़ाई पर वैसे ही डटे न रह सके. मुझे यकीन है कि आजादी के बाद अगर वो गोडसे की गोली का शिकार न हुए होते, तो वो पुन: इस लड़ाई में लौटते. सात लाख गांवों में बसे भारत को उनकी बहुत जरूरत थी. जरूरत आज भी है.

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अपनी आत्मकथा में वो थोड़ा भारी मन से कहते हैं, 'मैं तो चाहता था कि चंपारण में शुरू किए गए रचनात्मक काम को जारी रखकर लोगों में कुछ वर्षों तक काम करूं, अधिक पाठशालाएं खोलूं और अधिक गांवों में प्रवेश करूं. क्षेत्र तैयार था, पर ईश्वर ने मेरे मनोरथ प्रायः पूरे होने ही नहीं दिए. मैंने सोचा कुछ था और दैव मुझे घसीटकर ले गया एक दूसरे ही काम में.'

हिन्दुस्तान के नेताओ, आप अगर गांव जाएं, तो गांधीजी की तरह जाएं. बदलाव लाने के लिए जाएं. किसी दलित के घर खाट पर बैठकर खबर बनवाने के लिए नहीं. वहां खाना खाने का नाटक करने के लिए नहीं.. मीडिया में माहौल चौकस करने के लिए नहीं. आपके कारनामों में प्रदर्शन तो ख़ूब है, ग्राम्य-दर्शन की गहराई नहीं. पाखंड का ज़ोर है, कर्म की ऊंचाई नहीं. अगर समझना ही है किसानों और गांवों को, तो महात्मा गांधी से सीखें.



दोस्तो, गांधी पर कल भी चर्चा होती थी और वो कल भी प्रासंगिक रहेंगे. लेकिन आज, 2017 में, आप गांधीजी के बारे में क्या सोचते हैं, ये हमें कॉमेन्ट बॉक्स में बताइए.




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