कई विचारधाराओं और छोटे-बड़े दलों को जोड़कर बनी यह पहली पार्टी थी जिसका आधार था, आपातकाल का विरोध करना और विचारधारा की सीमाओं से ऊपर उठकर एक साथ इकट्ठा होना. हालांकि दो साल के अंदर ही इसका आधार चरमरा गया. जनसंघ के बड़े नेताओं जैसे अटल बिहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी का संघ के साथ रिश्ता होने की बात को लेकर पार्टी में मतभेद शुरू हो गए. ये इतने बढ़े कि पार्टी टूट गई और सरकार गिर गई. इसके बाद की कहानी कांग्रेस की वापसी और के साथ ही बीजेपी के बनने की भी है, जिसकी नींव में राम मंदिर था.

आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए, तो मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने.
जनता पार्टी के टूटने के साथ ही जनसंघ का अस्तित्व खत्म हो गया. अब उसे एक नए रूप में सामने आना था. वो दौर था, जब देश में विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर के लिए आंदोलन चलाने की पुरजोर कोशिश कर रहा था. इसी बीच 1980 में जनसंघ के नेताओं ने नई पार्टी बनाई और नाम रखा भारतीय जनता पार्टी. एजेंडा कमोबेश विश्व हिंदू परिषद वाला ही था. वक्त आगे बढ़ा. साल आया 1984. विश्व हिंदू परिषद ने अक्टूबर 1984 में अयोध्या में राम-जानकी रथयात्रा का आयोजन किया. इसका मकसद लोगों को जागरूक करना बताया गया. इससे माहौल में एक तरह की दहशत कायम होने लगी. विश्व हिंदू परिषद को बीजेपी का भी सपोर्ट था और ये सपोर्ट मुस्लिमों के बीच दहशत को बढ़ाने के लिए काफी था. माहौल में सांप्रदायिकता नजर आने लगी थी और इसी बीच विश्व हिंदू परिषद के संतों ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए युवाओं को आगे आने का निमंत्रण दिया. विश्व हिंदू परिषद के निमंत्रण पर कुछ युवा आगे आए. वो 1 अक्टूबर 1984 का दिन था. विश्व हिंदू परिषद ने हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा का भार इन युवाओं पर रख दिया और संगठन को नाम दिया बजरंग दल.

इस दल का नारा था सेवा, सुरक्षा और संस्कृति. दल का मकसद था अयोध्या में राम जन्म भूमि का निर्माण, मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि का निर्माण और काशी में काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण. तीन नारों और तीन मकसदों के साथ हिंदुत्व का झंडा बुलंद किए हुए ये दल मैदान में उतरा और पूरे भारत में अपने पांव पसारने की कोशिश में जुट गया. उसने जल्द ही देश में और खास तौर पर उत्तरी भारत में कुल 2500 अखाड़े बना लिए. ये अखाड़े भी संघ की शाखा की तर्ज पर बने थे. और इस संगठन के नेतृत्व का जिम्मा जिस युवा शख्स के कंधे पर था, उसका नाम था विनय कटियार.

30 साल के इस शख्स के ऊपर विश्व हिंदू परिषद ने अपनी युवा सेना का पूरा दारोमदार सौंप दिया था. अयोध्या से करीब 200 किमी की दूरी पर स्थित कानपुर में एक कुर्मी परिवार में जन्मे विनय कटियार को बजरंग दल का अध्यक्ष बनाया गया था. संघ परिवार के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से सियासत की शुरुआत करने वाले विनय कटियार 1970 से 1974 तक उत्तर प्रदेश में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन सचिव थे. 1974 में जब जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार के छात्रों ने आंदोलन शुरू किया, तो विनय कटियार भी इस आंदोलन में शामिल हो गए. उन्हें इस आंदोलन का संयोजक बना दिया गया. आंदोलन खत्म हुआ, जनता पार्टी की सरकार बनी और दो साल के अंदर ही टूट गई. इसके बाद विनय कटियार 1980 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गए. उसी दौरान देश में बड़ी मात्रा में धर्म परिवर्तन के मामले होने की बातें सामने आने लगीं. इसे देखते हुए विश्व हिंदू परिषद ने 1982 में एक नया संगठन बनाया, जिसका नाम रखा गया हिंदू जागरण मंच. इस मंच की कमान विनय कटियार को सौंप दी गई, जिन्होंने दो साल के अंदर ही संघ में अपनी मजबूत पैठ बना ली थी. हिंदुओं का अभी जागरण करने का काम चल ही रहा था कि विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्म भूमि आंदोलन को भी धार देनी शुरू कर दी. इसकी गति को और बढ़ावा देने के लिए कटियार के नेतृत्व में बजरंग दल भी मैदान में उतर पड़ा.

ये वक्त था, जब विनय कटियार ने खुद को एक कट्टर हिंदू के तौर पर पेश किया. सियासत के चरम पर पहुंची अयोध्या की राजनीति के दौरान बजरंग दल के अध्यक्ष के तौर पर कटियार कारसेवकों की एक मीटिंग से दूसरी मीटिंग में भागते दिखने लगे थे. हिंदुओं को एक करने और राम मंदिर बनाने के संकल्प के साथ कटियार की सियासत भी स्थापित होने लगी थी. 1 अक्टूबर 1984 से शुरू हुए इस संगठन ने राम जन्म भूमि आंदोलन को धार देना शुरू कर दिया. इसी बीच 1986 में फैजाबाद के जिला जज ने अयोध्या के विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दे दिया. इसके विरोध में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमिटी का गठन किया और इस पूजा का विरोध शुरू किया. बजरंग दल और विश्व हिंदु परिषद ने इसे हिंदु धर्म की मुखालफत बताते हुए आंदोलन शुरू किया. 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर की मुहिम शुरू की. इसी साल बीजेपी भी इस मुहिम में शामिल हो गई. जून 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालनपुर में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया. इसे रामजन्म भूमि आंदोलन का नाम दिया गया. अगले ही साल पार्टी के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली, जो गुजरात से शुरू होकर अयोध्या में खत्म होनी थी. 25 सितंबर 1990 से शुरू हुई इस रथयात्रा ने विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के मनोबल को और भी बढ़ा दिया. विश्व हिंदू परिषद ने ऐलान किया था कि जब आडवाणी की रथयात्रा 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या पहुंचेगी तो विश्व हिंदू परिषद कारसेवा करेगी.

लेकिन ऐसा नहीं हो सका. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया और रथयात्रा रोक दी गई. सियासी अस्थिरता के बीच अयोध्या का मामला सुलग रहा था. यूपी में मुलायम सिंह की सरकार ने तय कर लिया था कि किसी भी हाल में कारसेवा नहीं करने दी जाएगी. 30 अक्टूबर के मद्देनजर अयोध्या में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई थी. लेकिन विश्व हिंदू परिषद, आरएसएस और बीजेपी का कैडर इसे सफल बनाने के लिए जी जान से जुटा था. विश्व हिंदू परिषद का दावा था कि देश के कोने कोने से 5 लाख से भी ज्यादा कारसेवक अयोध्या में कारसेवा के लिए मौजूद रहेंगे. हजारों लोग सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचने में कामयाब रहे. जब एक जत्था बाबरी मस्जिद की तरफ बढ़ा तब पुलिस को लाठी भांजनी पड़ी, लेकिन कारसेवकों का हुजूम बढ़ता रहा. करीब 100 कारसेवक बाबरी मस्जिद के गुबंद पर चढ़ने में सफल हो गए. इसे रोकने के लिए पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस फायरिंग में 15 लोग मारे गए थे, जबकि विश्व हिंदू परिषद का दावा 50 से ज्यादा लोगों का था. इसके बाद विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का नाम मौलाना मुलायम रख दिया. नंवबर 1990 में बीजेपी ने वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. बाद में कांग्रेस के समर्थन पर चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. 30 अक्टूबर 1990 की घटना ने राम जन्मभूमि आंदोलन को और मजबूत बना दिया साथ ही राज्य में बीजेपी को भी स्थापित कर दिया. उस वक्त विनय कटियार बजरंग दल के अध्यक्ष थे. उन्होंने कहा था-
'संगठन में पांच लाख लोग हैं. अगर वो चाहते हैं कि मैं चुनाव लडूं तो दिक्कत क्या है.'

1991 में यूपी के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 221 सीटें मिलीं और कल्याण सिंह राज्य के मुख्यमंत्री बने. वहीं लोकसभा में भी बीजेपी को 51 सीटें मिलीं. इनमें से एक सीट फैजाबाद की भी थी, जहां से बीजेपी के टिकट पर विनय कटियार को जीत मिली थी. सब कुछ ठीक चल रहा था. यूपी की फिजा में राम मंदिर आंदोलन की गूंज सुनाई देने लगी थी. इसी बीच कटियार ने एक बार फिर से बयान दिया-
'सरकार रहे या जाए, लेकिन रामजन्मभूमि पर लगे बैरिकेट्स हटने ही होंगे.'इसी बीच तारीख आई 29 मई 1992. उस दिन सबकी नजरें उसी बाराबंकी के मुंसिफ कोर्ट में लगी हुई थीं. वहां एक नाबालिग लड़की की गवाही होने वाली थी. मामला गैंगरेप से जुड़ा हुआ था. लड़की ने कोर्ट में बयान दिया-
'छह लोगों ने बारी-बारी से मेरे साथ गैंगरेप किया था. इसमें फैजाबाद के बीजेपी सांसद विनय कटियार भी शामिल थे. उन लोगों ने मुझे अगवा कर लिया था. फैजाबाद में ही किसी जगह पर मुझे बंधक बनाया गया था. वहां दो बार विनय कटियार आए थे.'ये धारा 164 के तहत मैजिस्ट्रेट के सामने दिया गया इकबालिया बयान था. बयान सीधे तौर पर बीजेपी के एक सांसद के खिलाफ था. एक जून 1992 को लड़की ने एक बार फिर से सार्वजनिक तौर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस की. इसमें भी उसने वही बातें दुहराईं, जो उसने कोर्ट के सामने इकबालिया बयान में कही थीं. अब पूरे यूपी के मीडिया के निशाने पर थे यूपी में सत्ताधारी पार्टी के सांसद विनय कटियार. उन्होंने मामले की उच्च स्तरीय जांच की मांग की और कहा कि अगर केस साबित होता है तो राजनीति छोड़ दूंगा. फिर तो राज्य की सत्ता पर काबिज बीजेपी भी बचाव में आ गई. बाराबंकी के एसपी एनएन सिंह ने लड़की के चरित्र पर ही सवाल उठाए. बताया कि लड़की के जीजा ने उसका रेप किया था, जो लोकदल का कार्यकर्ता था. मेडिकल में सामने आया कि लड़की सेक्स की आदी थी और उसकी उम्र 17 साल थी.
ये सच था कि लड़की का आठ फरवरी को उसके गांव अख्तियारपुर से अपहरण हुआ था. पुलिस ने छापा मारकर 17 मई को उसे बरामद किया था और 21 मई को उसके घरवालों को सौंपा गया था. उस वक्त उत्तर प्रदेश कांग्रेस (आई) की कृष्णा रावत ने बीजेपी सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे और लड़की के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस का इंतजाम किया था. हालांकि 15 दिन के बाद ही लड़की ने केस वापस ले लिया था. लेकिन नुकसान तो हो चुका था. और ये पहला ऐसा बड़ा नुकसान था, जो सीधे तौर पर विनय कटियार को झेलना पड़ा था.

हालांकि इसके कुछ ही महीनों के बाद कारसेवा शुरू हो गई. वो दिसंबर महीने की पांचवी तारीख थी, जब विनय कटियार के घर एक गोपनीय बैठक हुई. इस बैठक में बीजेपी के दिग्गज फायरब्रांड नेता लाल कृष्ण आडवाणी के साथ ही शिव सेना के नेता पवन पांडे भी मौजूद थे. माना जाता है कि इसी बैठक में विवादित ढांचा गिराने का आखिरी फैसला किया गया. इसके अगले ही दिन 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, जिसके अगुवा के तौर पर विनय कटियार भी थे. चार्जशीट के मुताबिक कटियार ने 6 दिसंबर को अपने भाषण में कहा था-
‘हमारे बजरंगियों का उत्साह समुद्री तूफान से भी आगे बढ़ चुका है, जो एक नहीं तमाम बाबरी मस्जिदों को ध्वस्त कर देगा.'6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. राज्य में कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त हो गई और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. लेकिन इस पूरे उठापटक में विनय कटियार की छवि एक कट्टर हिंदुवादी नेता के तौर पर स्थापित हो गई. वो बार-बार कहते रहे-
'बाबरी मस्जिद की तरह घुसपैठिए भी देश से बाहर होंगे.'लोकसभा की जीत और बाबरी मस्जिद को ढहाने में बजरंग दल की भूमिका के बाद विनय कटियार निर्विवाद तौर पर बड़े नेता के तौर पर उभरे. इस बीच बीजेपी के नए अध्यक्ष का चुनाव होना था. बड़े दावेदारों के तौर पर मंदिर आंदोलन के दो बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी शामिल थे. मंदिर आंदोलन के स्थानीय स्तर पर सबसे बड़े चेहरे विनय कटियार ने मुरली मनोहर जोशी का समर्थन कर दिया. वो खुलेआम जोशी को अध्यक्ष बनाने की वकालत करन लगे. लेकिन केंद्रीय संगठन ने जोशी की जगह लाल कृष्ण आडवाणी को ही अध्यक्ष चुना. आडवाणी के विरोध का खामियाजा कटियर को भी उठाना ही था. अगस्त 1995 में बजरंग दल के महासचिव रहे जयभान सिंह पवैया ने विनय कटियार की जगह ले ली और कटियार को बजरंग दल से हटा दिया गया. 1996 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो कटियार ने अपनी बनी बनाई कट्टर हिंदुवादी छवि का फायदा उठाया और दूसरी बार भी लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे. इसी कामयाबी की बदौलत 1997 में उन्हें बीजेपी का प्रदेश उपाध्यक्ष बना दिया गया. वहीं राजनाथ सिंह यूपी बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए. लेकिन लोकसभा दो साल के अंदर ही भंग हो गई और एक बार फिर से 1998 में चुनाव होने थे. इस चुनाव में प्रचार के दौरान कुछ वक्त के लिए उन्होंने अपनी कट्टर छवि को किनारे रखकर विकास करने वाले नेता के तौर पर छवि बनानी चाही थी.

1998 में चुनाव प्रचार के दौरान फैजाबाद के पुरानी सब्जी मंडी में उन्हें मुस्लिमों के एक ग्रुप ने बुलाया था. उस वक्त कटियार वहां पहुंचे. कहा कि मैं पहली बार इस इलाके में आया हूं क्योंकि दो बार आपने मुझे वोट नहीं दिया था. इस दौरान उन्होंने कहा-
'मुझे वोट दो क्योंकि मैने ट्यूबवेल बनवाए हैं, सड़कें बनवाई हैं, विकास के काम किए हैं.'एक कट्टर हिंदुवादी नेता का राम के नाम से शुरू किया गया सफर जब ट्यूबवेल लगाने तक पहुंचा, तो ये लोगों को रास नहीं आया. कट्टर छवि की वजह से मुस्लिमों ने उन्हें अपना नहीं माना और राम का नाम छोड़ने हिंदू भी उनसे छिटक गए. नतीजा हुआ कि विनय कटियार सात हजार से अधिक वोटों से लोकसभा का चुनाव हार गए और सपा के मित्रसेन यादव फैजाबाद से सांसद चुन लिए गए. सियासी तौर पर विनय कटियार के लिए ये पहला झटका था.
नेता झटके लगने के बाद ही सियासत सीखता है. कटियार भी इससे अछूते नहीं थे. राम मंदिर आंदोलन से निकला ये नेता राम का नाम छोड़ने का अंजाम देख चुका था. लिहाजा वो अपने पुराने मुद्दे पर वापस लौट आया. वहीं मित्रसेन यादव भी लंबे समय तक पद पर नहीं बने रह सके, क्योंकि लोकसभा फिर से भंग हो चुकी थी. 1999 में एक बार फिर से लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई. राम के नाम के सहारे फिर से चुनावी मैदान में उतरे कटियार ने बीएसपी के सियाराम निषाद को 57 हजार वोटों से पटखनी दे दी. ये तीसरी बार था, जब वो राम के सहारे लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे. चुनाव जीतने के अगले ही साल जब 2000 में उनका पार्टी उपाध्यक्ष का कार्यकाल पूरा हुआ तो पार्टी ने उन्हें राज्य का महासचिव बना दिया. अभी वो इस पद पर आए ही थे कि यूपी में विधानसभा के चुनाव आ गए. विधानसभा की 320 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बीजेपी को मात्र 88 सीटें मिलीं. सत्ता बीजेपी के हाथ से छिटककर बीएसपी मुखिया मायावती के पास जा चुकी थी और बीजेपी बीएसपी को समर्थन दे रही थी. ऐसे में नेतृत्व में बदलाव हुआ और 25 जून 2002 को उन्हें यूपी बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया.

2003 में मायावती ने सार्वजनिक तौर पर कहा था-
'बीजेपी के नेता मुझे सहयोग नहीं कर रहे हैं. खास तौर से राजनाथ सिंह और विनय कटियार गठबंधन में फूट डालने के लिए ओवरटाइम कर रहे हैं.'इसी बीच मायायवती ने राजा भैया पर पोटा लगा दिया था. प्रभु चावला ने सीधी बात में उनसे पूछा था कि आप समर्थन वापस क्यों नहीं लेते. कटियार ने कहा था-
'हर मुद्दे पर समर्थन वापस नहीं लिया जा सकता.'इस दौरान प्रभु चावला ने कहा था कि आप बजरंग दल के दिनों की तुलना में नरम पड़ रहे हैं. कटियार ने हंसते हुए उन्हें मना कर दिया.
इस बीच अक्टूबर 2003 में विहिप और कटियार के बीच मतभेद सामने आने लगे थे. 17 अक्टूबर 2003 को अयोध्या में रामभक्तों की रैली थी. प्रदेश सरकार इसे रोकना चाहती थी. विहिप के अशोक सिंहल ने कहा था कि रोका तो हिंसा हो सकती है. कटियार ने कहा-
'1990 में कारसेवा के दौरान राम भक्तों ने जान दे दी, हिंसा नहीं की. वो हिंसा नहीं कर सकते, उन्हें हिंसा के लिए वो लोग कह रहे हैं, जिनका राम के नाम से कोई लेना-देना ही नहीं है.'2004 में एक बार फिर से लोकसभा चुनाव होने थे. पूरी बीजेपी शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ चुनावी मैदान में उतरी. लेकिन नतीजे निराशाजनक रहे. इसका खामियाजा भी विनय कटियार को भुगतना ही था. लोकसभा में 10 सीटें पाने वाली बीजेपी ने विनय कटियार को पद से हटा दिया. इस दौरान कटियार ने कहा था-
'मुझे नहीं पता कि क्यों हटाया गया. अपराधी को भी सजा देने से पहले उसका अपराध बताया जाता है.'इसके बाद विनय कटियार यूपी की सियासत में किनारे चले गए. मई 2005 में कटियार सुर्खियों में तब थे, जब उनकी पत्नी के देहावसान की पुण्यतिथि पर राज्य के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव मिलने के लिए उनके घर पहुंचे थे. इसके अलावा शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे सादिक ने भी उनके घर पर मुलाकात की थी. ये वही कल्बे सादिक थे, जिन्हें अमेरिकी एयरपोर्ट पर रोक लिया गया था, जिसके बाद कटियार ने अमेरिका की खुली मुखालफत की थी. कल्बे सादिक और कटियार के बीच बंद कमरे हुई बाचतीच में सामने आया था कि दोनों ही नेता हिंदु-मुस्लिम एकता की बात करते हुए ईसाइयों के बढ़ते प्रभाव को रोकने की दलीलें पेश कर रहे थे. ये दूसरी बार था, जब कटियार मुस्लिमों के प्रति नरमी दिखा रहे थे.

फिर आया 31 दिसंबर, 2005. राजनाथ सिंह को भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. राजनाथ सिंह और विनय कटियार के आपसी रिश्ते बेहद मजबूत थे. इसी का नतीजा था कि राजनाथ सिंह एक बार फिर कटियार को सक्रिय राजनीति में ले आए और उन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया गया. राजनाथ सिंह को अभी राष्ट्रीय अध्यक्ष बने चार ही महीने हुए थे कि उन्होंने विनय कटियार को राज्यसभा भेजने का फैसला किया. अप्रैल 2006 में विनय कटियार पहली बार राज्यसभा के लिए चुन लिए गए.
इसी बीच देश में सोनिया गांधी के लाभ के पद को लेकर सियासत शुरू हो गई. सोनिया गांधी रायबरेली से सांसद थीं. इसके अलावा वो यूपीए सरकार में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की चेयरमैन भी थीं. विवाद इतना बढ़ा कि सोनिया गांधी को इस्तीफा देना पड़ा. अब रायबरेली में उपचुनाव होने थे और सोनिया गांधी फिर से मैदान में थीं. राजनाथ सिंह विनय कटियार को केंद्र में लाए थे और अब उनपर कटियार को सोनिया के खिलाफ रायबरेली से चुनावी मैदान में उतारने का दबाव बन रहा था. विनय कटियार नतीजा जानते थे. इसलिए वो चुनाव लड़ने को खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. लेकिन पार्टी की ओर से दिया गया महासचिव का पद और फिर राज्यसभा की सदस्यता उनके इनकार के आड़े आ रही थी.

पार्टी का मान रखना था, तो विनय कटियार ने सोनिया के खिलाफ पर्चा भर दिया. खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और बीजेपी की फायर ब्रांड नेता सुषमा स्वराज ने विनय कटियार के प्रचार का जिम्मा संभाला. नतीजा सभी लोग जानते थे, लेकिन वोटों की संख्या ने विनट कटियार को बुरी तरह से निराश कर दिया. जहां सोनिया गांधी को उपचुनाव में 4,74,891 वोट मिले, वहीं विनय कटियार को मात्र 19657 वोट मिले और वो तीसरे नंबर पर रहे. 57003 वोटों के साथ सपा के राजकुमार दूसरे नंबर पर थे. इससे पहले जब 2004 में चुनाव हुए थे, तो बीजेपी के गिरीश नारायण पांडेय को इससे कहीं ज्यादा 31,290 वोट मिले थे.
इसके बाद विनय कटियार हाशिए पर ही रहे. पार्टी के अंदर और बाहर उनकी सुनने वाला कोई नहीं था. 2011 में उनकी राज्यसभा का कार्यकाल एक साल का बचा था और उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने थे. पूरी बीजेपी जोर-शोर से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही थी. जीत में कोई कसर बाकी न रहे, इसके लिए पार्टी ने कभी राम मंदिर आंदोलन का चेहरा रहीं और मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती की पार्टी में वापसी की तैयारियां शुरू कर दीं. बीजेपी ने चुनाव के लिए उन्हें यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया.

इसका खुले तौर पर विरोध भी हुआ और उसके अगुवा बने बिनय कटियार. उमा भारती भी कुर्मी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और विनय कटियार भी कुर्मी समुदाय से ही आते हैं. खुद को कुर्मी समुदाय का बड़ा नेता मानने वाले कटियार ने उमा का विरोध करने की पूरी कोशिश की. लेकिन वो हाशिए पर थे, तो किसी ने भी उनकी नहीं सुनी. नतीजा सबके सामने था. यूपी में बीजेपी को बुरी तरह से चुनाव हारना पड़ा था. एक बार फिर विनय कटियार ने उमा भारती के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इसका हासिल उन्हें बस ये मिला कि जब 2012 में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा हुआ, तो उन्हें फिर से राज्यसभा में भेज दिया गया.
इसके बाद से विनय कटियार ने सिर्फ अपने बयानों से ही सुर्खियां बटोरीं. 2017 में जब यूपी में विधानसभा के चुनाव थे, तो उन्होंने प्रियंका गांधी वाड्रा पर टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था-
'प्रियंका गांधी सुंदर महिला हैं. अच्छा हैं वे प्रचार करें, बहुत दिनों से निकली नहीं हैं, लेकिन उनसे ज्यादा सुंदर महिलाएं तो बीजेपी में हैं, जिन्हें हम लगा देंगे. जितना प्रियंका को खूबसूरत बताया जाता है, वो उतनी खूबसूरत नहीं हैं. हमारे यहां स्मृति ईरानी हैं जो जहां जाती हैं वहां भीड़ लग जाती है. वह उनसे कहीं ज्यादा भाषण देती हैं.'इसके बाद चुनावों तक वो लगातार राम मंदिर आंदोलन और उसके बनने तक के बारे में बातें करते रहे. चुनाव के दौरान ही एक बार तो यहां तक कह गए-
'राम मंदिर का मुद्दा बीजेपी ने नहीं, मेरे जैसे लोगों ने चलाया था. अब इसके आगे कुछ और चाहिए तो बलिदान देना पड़ेगा.'

हालांकि कटियार को अपने बयानों से चर्चा के अलावा और कुछ हासिल नहीं हुआ है. इसी साल अप्रैल में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा हो रहा है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने और अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद से ही राजनाथ सिंह उतने सक्रिय नहीं रह गए हैं कि वो विनय कटियार के लिए 2005 और 2006 जैसा कुछ कर सकें. ऐसे में विनय कटियार ने फिर से बयान दिया है. उन्होंने कहा है-
'मुसलमान इस देश में रहना ही नहीं चाहिए. उन्होंने जनसंख्या के आधार पर देश का बंटवारा कर दिया तो इस में रहने की क्या आवश्यकता थी? उनको अलग भू-भाग दे दिया गया, बांग्लादेश या पाकिस्तान जाएं या क्या काम है उनका? 'फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद की सुनवाई चल रही है. तारीखें पड़ रही हैं और हर रोज इस मुद्दे पर कुछ न कुछ लिखा-कहा जा रहा है. ऐसे में इस आंदोलन के पुराने बयानों के हवाले से विनय कटियार कम से कम उस स्थिति में तो पहुंचना ही चाहते हैं, जहां से उनके राज्यसभा में वापसी के दरवाजे खुलते दिख रहे होंगे.
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