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एक आर्टिकल की वजह से रूसी खुफिया एजेंसी KGB ने नोबेल विजेता लेखक की हत्या करवाई थी?

महामारी की सबसे त्रासद रचना के रचयिता को जान लीजिए.

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अल्बेयर कामू की मौत के दशकों बाद KGB से थ्योरीज़ चलीं.

तारीख़- 04 जनवरी.

इस तारीख़ का संबंध एक कार एक्सीडेंट से है. जिसने एक शानदार लेखक को हमसे छीन लिया. बाद के सालों में इस दुर्घटना का भार एक आर्टिकल पर आया. और, फिर एक खुफिया एजेंसी पर हत्या का आरोप लगा. लेखक की उपलब्धि, किसी महामारी की त्रासदी की सबसे सटीक रचना. ये क़िस्सा क्या है? जानते हैं विस्तार से. 
पहले एक मशहूर उपन्यास की बात. द प्लेग. 1947 में पब्लिश हुआ. कहानी ओरान नामक शहर की है. वहां सब कुछ नॉर्मल चल रहा होता है. अचानक एक दिन शहर के चूहे मरने लगते हैं. हज़ारों की संख्या में. पहले तो लोग इसपर ध्यान नहीं देते. फिर वहां एक-एक कर लोग बीमार पड़ते हैं. जल्दी ही मौत भी होने लगती है. उसके बाद तो सिलसिला बन जाता है. बीमारों और मृतकों की संख्या अपनी रफ़्तार से बढ़ती चली जाती है.
अब प्रशासन की नींद खुलती है. लोगों को क्वारंटीन किया जाता है. शहर की सीमाओं पर ताला. सफ़र पर बैन. और भी बहुत सारी पाबंदियां. इस दरम्यान कई लोग अपने चाहनेवालों से बिछुड़ गए. अनिश्चितकाल के लिए. एक-दूसरे को देखने का नज़रिया बदलता है. कितना कुछ उखड़ जाता है! टूट जाता है. जब सब कुछ ठीक होता है, फिर भी बहुत कुछ बदल जाता है. हमेशा के लिए. वो अनचाहा बदलाव रुलाता है. बेबस करता है.
कामू भी ओरान में ही पैदा हुए थे. वहीं की पृष्ठभूमि में उन्होंने 'प्लेग' नामक ऐतिहासिक उपन्यास रचा.
कामू भी ओरान में ही पैदा हुए थे. वहीं की पृष्ठभूमि में उन्होंने 'प्लेग' नामक ऐतिहासिक उपन्यास रचा.


ये एक महामारी की त्रासदी थी. इस उपन्यास की एक पंक्ति साथ रख लीजिए. लिखा है,
हमने महामारियों से क्या सीख दर्ज़ की? यही कि इंसानों में नफ़रत करने से ज़्यादा पसंद करने की वजहें पाई जाती हैं.
इसे लिखने वाले का नाम था, अल्बेयर कामू. उनकी कहानी कुछ ऐतिहासिक स्रोतों और कुछ कल्पनाओं से उपजी थी. आज हम कोरोना महामारी का दंश झेल रहे हैं. कामू ने सात दशक पहले इसका ख़ाक़ा खींच दिया था. ये किताब पढ़नी चाहिए. इंसानियत बचाए रखने की वजहें देती हैं.
अल्बेयर कामू 1913 में पैदा हुए. ओरान में. ये अल्जीरिया का एक शहर है. अल्जीरिया तब फ्रांस का उपनिवेश था. कामू के दादा बेहतर भविष्य की आस में अल्जीरिया आए थे. फिर वहीं बस गए. कामू ने कभी अपने पिता को नहीं देखा. पहले विश्व युद्ध में उनकी मौत हो गई थी.
अल्बेयर कामू का बचपन अभावों में बीता. इस अभाव ने उनको ताक़त दी. पढ़ाई में ध्यान लगाया. स्कॉलरशिप की बदौलत यूनिवर्सिटी तक पहुंचे. वहां उनका मन फ़िलॉसफी में लगा. इस तरह दुनियाभर के विचारकों से नाता जुड़ा. इस सोहबत का असर बाद में दिखा. जब अल्बेयर कामू ने लिखना शुरू किया.
इस उपन्यास ने कामू को शोहरत दी.
इस उपन्यास ने कामू को शोहरत दी.


उनका पहला उपन्यास 1942 में छपा. ‘दी स्ट्रैन्जर’ के नाम से. उस वक़्त दूसरा विश्व युद्ध अपने चरम पर था. कामू पेरिस में थे. हिटलर की सेना पेरिस में दाखिल हो रही थी. उन्हें अगला कुछ समय छिपकर बिताना पड़ा. युद्ध के बीच में ही उन्होंने ‘द प्लेग’ पर काम शुरू किया था. रचते, गुनते, बुनते कामू अपने कद में ऊंचे होते गए. उनका काम उदाहरण बनता गया. साहित्य, पत्रकारिता और दर्शन में उनकी मिसालें दी जाने लगीं.
फिर आया साल 1957 का. नोबेल विजेताओं के नाम का ऐलान होने लगा. साहित्य वाले खांचे में अल्बेयर कामू का नाम था. 44 बरस के कामू साहित्य का नोबेल जीतने वाले दूसरे सबसे कम उम्र के विजेता बने. पहले पर रुडयार्ड किपलिंग का नाम है. उन्हें 42 की उम्र में साहित्य का नोबेल मिला था. इस विजय के बाद उन्होंने अपनी सबसे महान रचना पर काम शुरू किया. कामू ने ख़ुद ही इसका दावा किया था. दुर्भाग्य रहा कि ये ऐलान आख़िरी साबित हुआ. कामू की ये रचना अंतिम साबित हुई. वो इसे लोगों के हाथों में सौंपने से पहले ही चल बसे.
साल 1960. 4 जनवरी का दिन. कामू अपने दोस्त मिशेल गैलीमार्ड और उसके परिवार के साथ छुट्टियां बिताकर पेरिस लौट रहे थे. एक कार में. दरअसल, कामू अपने परिवार के साथ ट्रेन से सफ़र करने वाले थे. उन्होंने अपना टिकट भी ले लिया था. लेकिन, गैलीमार्ड ने उन्हें कार से चलने के लिए मना लिया.
लेकिन ये अनहोनी की आहट थी. रास्ते में ही कार का संतुलन बिगड़ा और वो किनारे के पेड़ से टकरा गई. मौके पर ही कामू की मौत हो गई. बाकी लोग भी घायल हुए, पर उनकी जान बच गई. एक दिलचस्प बात पता है! कामू ने कभी कहा था, कार दुर्घटना में मरने से ज़्यादा बुरा कुछ और नहीं हो सकता. आखिरकार, ये डर सच साबित हुआ.
 
पुलिस ने दुर्घटना की जांच की. उन्हें सब नॉर्मल लगा. कामू की जेब से ट्रेन का टिकट मिला. और, गाड़ी में उनकी आखिरी किताब की अधूरी पांडुलिपि. हाथ से लिखी. ये उपन्यास 1995 में पब्लिश हुआ. ‘द फ़र्स्ट मैन’ के नाम से.
कामू कार दुर्घटना की मौत को सबसे बेकार मानते थे. पर वो ख़ुद उसी आशंका का शिकार हो गए.
कामू कार दुर्घटना की मौत को सबसे बेकार मानते थे. पर वो ख़ुद उसी आशंका का शिकार हो गए.


कामू की मौत के कई सालों बाद एक साज़िश वाली थ्योरी सामने आई. इसमें विलेन बनाया गया रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी को. दावा किया गया कि सोवियत संघ के विदेश मंत्री दिमित्री शेपिलोव ने पर्सनली कामू की हत्या का आदेश दिया था. केजीबी ने कार के टायर से छेड़छाड़ की. जिसकी वजह से कार बीच रास्ते में पलट गई.
क्यों? वजह था, एक लेख. इसमें कामू ने हंगरी नरसंहार की आलोचना की गई थी. ये क्या मसला था? 1955 में हंगरी, वॉरसा पैक्ट का हिस्सा बना. इस संधि के तहत कम्युनिस्टों ने अपना कलेक्टिव डिफ़ेंस तैयार किया. एक देश पर हमले का मतलब पूरे गुट पर हमला था. वॉरसा पैक्ट, असल में NATO का जवाब था. हंगरी में पहले से ही कम्युनिस्ट विचारधारा फल-फूल रही थी. पैक्ट में शामिल होते ही ये सीधे सोवियत संघ के अधीन हो गया. चाबी मॉस्को के पास थी. 
1956 में हंगरी में सोवियत संघ के हिंसक दखल ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था.
1956 में हंगरी में सोवियत संघ के हिंसक दखल ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था.


एक साल बाद ही ये दुष्प्रभाव में बदल गया. संसाधनों पर कुंडली जमाए बैठे सोवियत, बोलने-विचरने तक पर पाबंदियां, विरोध की खत्म गुंज़ाइशें. अंतत: हुआ ये कि अक्टूबर, 1956 में जनता सड़कों पर उतर आई. लोकतंत्र और सोवियत संघ के अत्याचार से आज़ादी की मांग के लिए. सोवियत संघ को गुस्सा आ गया. उसने अपनी सेना हंगरी में उतार दी. विरोध कुचल दिया गया. 04 नवंबर को भयानक कत्लेआम हुआ. हज़ारों लोगों को जान से मार दिया गया. जबकि लाखों को देश छोड़कर भागना पड़ा.
कामू ने इस घटना के लिए फटकार लगाई थी. सोवियत संघ कामू से खार खाए बैठा था. हालांकि, केजीबी द्वारा हत्या की थ्योरी कभी पुष्ट नहीं हो पाई.
कामू, साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पाने वाले दूसरे सबसे कम उम्र के इंसान हैं.
कामू, साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पाने वाले दूसरे सबसे कम उम्र के इंसान हैं.


जाते-जाते एक बयान सुनते जाइए.
उस वक़्त की बात है, जब कामू को नोबेल प्राइज़ के लिए बुलाया गया था. स्टॉकहोम के सिटी हॉल में उन्होंने खड़े होकर अपनी बात रखी,
एक लेखक की भूमिका इतनी भी आसान नहीं होती है. वो इतिहास बनाने वालों का सेवक नहीं हो सकता, वो उनका सेवक है जो इसकी क़ीमत चुकाते हैं. वर्ना, वो अकेला होगा और अपनी कला से वंचित रह जाएगा. तानाशाह सरकारों की लाखों की फौज़ भी उसे इस वीराने से आज़ाद नहीं कर सकती. खासकर तब, जब वो उन आततायियों की हां में हां मिलाने लगें.
इसकी तुलना में, सुदूर कोने में बंद किसी अज्ञात क़ैदी की चुप्पी एक लेखक की आत्मा को झिंझोरने के लिए काफी है. अगर लेखक उस चुप्पी को याद रखे और अपनी कला के सहारे इसे बुलंद करे.
कोई भी लेखक महान नहीं होता. लेकिन हर दौर में, वो लोगों के दिलों को जीत सकता है. ये जीत उसके अस्तित्व को संबल देगी. इसके लिए एक शर्त है. क्या? यही कि वो अपनी क्षमताओं की सीमा को स्वीकार कर ले कि उसके हुनर की महानता दो चीज़ों से निर्धारित होती है: सच्चाई की सेवा और स्वाधीनता की सेवा.

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