आपको पता ही है कि रिपब्लिकन नेता डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका का चुनाव जीता और जनवरी 2025 में राष्ट्रपति पद की शपथ ली. शपथ के बाद ट्रंप अपनी उस नीति पर काम करने लगे, जिसमें वो बार-बार अमेरिकी टैक्सपेयर्स का पैसा बचाना चाहते थे. दरअसल लंबे समय से ट्रंप का कहना रहा है कि अमेरिका की सरकारें दूसरे देशों के भिन्न-भिन्न प्रोजेक्ट्स में फालतू का पैसा लगाती हैं, जिसे तत्काल बंद करना चाहिए.
USAID फंडिंग के पैसे से खेला भारत में हुआ या कहीं और?
जैसे ही DOGE की पोस्ट आई, इंडिया में राजनीतिक बहस शुरू हो गई. बीजेपी के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने कुछ इस आशय की बातें कीं, जिससे ये अर्थ निकल रहा था कि इस 21 मिलियन डॉलर का भारत की चुनावी प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप हुआ है.

अपने इसी एजेंडे को पूरा करने के लिए ट्रंप सरकार ने शपथ लेते ही एक नया विभाग बनाया. इसे कहते हैं ‘DOGE’ यानी ‘Department of Government Efficiency’. इसका मुख्य उद्देश्य अमेरिकी सरकार के खर्चों में कटौती करना है.
गठन के बाद इस DOGE की कमान मिली टेस्ला और स्पेसएक्स के मालिक एलन मस्क को. एलन मस्क ने आते ही कहा कि अमेरिकी सरकार USAID के तहत बेइंतहा पैसे खर्च कर रही है. इस पर लगाम लगाने की जरूरत है.
USAID माने United States Agency For International Development. अमेरिकी सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट के तहत साल 1961 में USAID का गठन हुआ था. उद्देश्य था कि दुनिया भर में इकनॉमिक ग्रोथ, आपदा प्रबंधन, मानवीय मदद, शिक्षा और लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए आर्थिक मदद देना. और ये आर्थिक मदद देने के लिए अमेरिकी सरकार, विदेश की सरकारों के साथ वहां काम कर रहे NGO और तमाम संगठनों का सहारा लिया करती है.
पात्र परिचय पूरा. अब कहानी पर आते हैं. 16 फरवरी 2024. इस दिन एलन मस्क की अध्यक्षता वाले DOGE ने एलान किया कि USAID अपने कुछ कार्यक्रम बंद कर रहा है. इस बाबत DOGE ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट भी लिखी. कहा,
"अमेरिकी करदाताओं के पैसे निम्नलिखित मदों पर खर्च होने वाले थे, जिन्हें अब रद्द कर दिया गया है
486 मिलियन डॉलर CEPPS को
22 मिलियन डॉलर मोल्डोवा में राजनीतिक प्रक्रिया के लिए
21 मिलियन डॉलर भारत में voter turnout बढ़ाने के लिए."
अब इस पोस्ट में DOGE ने इंडिया का जो हवाला दिया, वो पूरी बहस का केंद्र है. DOGE ने जिस CEPPS का जिक्र किया है, उसकी फुल फॉर्म है- Consortium for Elections and Political Process Strengthening. यानी चुनावी और राजनीतिक प्रक्रियाओं को मजबूत बनाने का एक साझा प्रयास, और DOGE ने इंडिया में CEPPS के पैसे रोके, वो दिए क्यों जा रहे थे? आरोपों के मुताबिक, वोटर टर्नआउट या पोलिंग बूथ तक वोटर्स की संख्या बढ़ाने के लिए. और ये टोटल कितने रुपये थे? 21 मिलियन डॉलर यानी 183.6 करोड़ रुपये.
जैसे ही DOGE की पोस्ट आई, इंडिया में राजनीतिक बहस शुरू हो गई. बीजेपी के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने कुछ इस आशय की बातें कीं, जिससे ये अर्थ निकल रहा था कि इस 21 मिलियन डॉलर का भारत की चुनावी प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप हुआ है. अमित मालवीय ने X पर लिखा, “भारत में voter turnout के लिए $21 मिलियन? यह निश्चित रूप से भारत की चुनावी प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप है. इससे किसे फायदा होता है? सत्ताधारी पार्टी को तो नहीं!”
यानी भाजपा नेता का कहना था कि इस अमेरिकी पैसे का उपयोग विपक्ष कर रहा था. लेकिन सवाल है कि भाजपा ने ऐसे आरोप लगाए क्यों?
ये जो CEPPS है, इसने भारत के चुनाव आयोग (ECI) के साथ 17 मई 2012 को एक MoU (Memorandum of Understanding) पर हस्ताक्षर किए थे. MoU का उद्देश्य - ECI के ज्ञान और अनुभव को अंतरराष्ट्रीय चुनाव प्रबंधकों के लिए साझा करना था. खासकर चुनावी प्रशिक्षण के लिए.
अब भाजपा के आरोप हैं कि यूपीए के कार्यकाल में हुए इस MoU के बहाने ECI को विदेशी ताकतों के हाथों सौंपा गया था. अब जिस दौरान ये MoU साइन हुआ था, उस समय मुख्यचुनाव आयुक्त की कुर्सी पर एसवाई कुरैशी बैठे हुए थे. ये विवाद उठने पर उन्होंने कहा कि 2012 में किया गया MoU वही था जो ECI ने अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ किया था. इसमें कोई वित्तीय सहायता का वादा नहीं था, और यह पूरी तरह से प्रशिक्षण के उद्देश्य से था.
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ये तो पूर्व चुनाव आयुक्त की सफाई थी. लेकिन बहस फिर से फूट पड़ी, जब बुधवार, 19 फरवरी के दिन अमेरिकी प्रेसिडेंट डॉनल्ड ट्रंप ने मायामी में एक स्पीच में फिर से 21 मिलियन डॉलर फन्डिंग की बात दुहराई. कहा- “हम भारत में इतना पैसा क्यों खर्च करें? वोटर टर्नआउट बढ़ाने के लिए? हो सकता है कि वो किसी और को चुनना चाह रहे हैं.”
इसके बाद फिर से राजनीतिक बहसबाजी शुरू हुई. और आरोप लगने लगे वीना रेड्डी नाम के शख्स पर. वरिष्ठ वकील और पूर्व भाजपा सांसद महेश जेठमलानी ने मांग की कि अमेरिकी सरकार द्वारा ये जो आरोप लगाए जा रहे हैं, उसके साथ-साथ वीना रेड्डी के रोल की भी जांच हो.
लेकिन वीना रेड्डी हैं कौन?मूलतः आंध्र प्रदेश की रहने वाली हैं. कोलम्बिया यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ और यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से पढ़ाई की. अमेरिका में वकालत शुरू की, आगे चलकर अमेरिका की विदेश सेवा से जुड़ीं. USAID से अटैच किया गया. उन्होंने USAID मिशन के साथ अमेरिका, पाकिस्तान, हैती, और कंबोडिया में काम किया. साल 2021 में USAID की इंडिया मिशन डायरेक्टर बनकर भारत आईं. उनके पास भारत के साथ-साथ भूटान की भी जिम्मेदारी थी. जुलाई 2024 में वो भारत से चली गईं. उनके भारत के कार्यकाल के दौरान USAID द्वारा इंडिया की फन्डिंग में काफी बढ़त देखी गई. उदाहरण देखिए.
साल 2020: ₹7,198 करोड़
साल 2021: ₹8,157 करोड़
साल 2022: ₹19,722 करोड़
साल 2023: ₹15,191 करोड़
और साल 2024: ₹13,124 करोड़
यानी आप ध्यान देंगे तो साल 2021 में वीना रेड्डी के आने के बाद USAID द्वारा इंडिया की फन्डिंग में बढ़त हुई. अगर इस पूरे पैसे में से 183 करोड़ रुपये वोटर टर्नआउट बढ़ाने के लिए इस्तेमाल हुए थे, तो वो साल 2021 के बाद हो सकते थे. लेकिन एक मीडिया रिपोर्ट है, जो बिलकुल अलग छवि पेश करती है.
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित जय मजूमदार की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 में USAID ने 21 मिलियन डॉलर दिए तो थे, लेकिन बांग्लादेश को, भारत को नहीं. इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि जनवरी 2024 में बांग्लादेश में चुनाव होने थे. इस चुनाव के दरम्यान इस 21 में से 13.4 मिलियन डॉलर वहां खर्च किए जा चुके थे.
दरअसल अमेरिका की सरकार अपने खर्च का पूरा हिसाब US फेडरल स्पेन्डिंग की वेबसाइट पर देती है. कोई भी वेबसाइट पर जाकर देख सकता है कि सरकार ने वहां किस-किस सेक्टर में कितना पैसा खर्च किया है.
यहां पर अगर USAID का फ़िल्टर लगाकर देखें, तो आपको ये समझ में आएगा कि USAID का पैसा किस देश में खर्च हो रहा है?
अब CEPPS के जरिए, USAID ने जो 21 मिलियन डॉलर खर्च किए, उसका भी ब्यौरा इस वेबसाइट पर होना चाहिए. एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, 21 मिलियन डॉलर का खर्च खोजने पर साल 2022 के एक प्रोजेक्ट का जिक्र मिलता है. ये प्रोजेक्ट बांग्लादेश में चलाया जा रहा था. इसका नाम है - 'अमार वोट अमार'. यानी मेरा वोट मेरा है.
खबर बताती है कि नवंबर 2022 में इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य बदलकर "USAID नागरिक प्रोग्राम" कर दिया गया. बांग्लादेश में USAID के मिशन एडवाइज़र लुबैन चौधरी मासुम ने दिसंबर 2024 में सोशल मीडिया साइट लिंक्डइन पर इस प्रोग्राम और उसकी फन्डिंग की पुष्टि भी की थी. इस प्रोग्राम के तहत अन्य एजेंसियों के साथ देश की अलग-अलग यूनिवर्सिटीज़ और इलाकों में नागरिकों (खासकर छात्रों) से लोकतंत्र पर संवाद के कार्यक्रम चलाए गए थे.
यानी USAID की फन्डिंग से एजेंसियों ने छात्रों से संवाद किया. और फिर 5 अगस्त 2024 को छात्र आंदोलन के दरम्यान बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने देश छोड़ने का फैसला लिया. और आप सुनते ही रहे हैं कि बांग्लादेश में राजनीतिक संकट, और शेख हसीना की निकासी में अमेरिकी सरकार के दखल की चर्चा होती है.
इस रिपोर्ट के बाद बहस तेज हुई. कहा जाने लगा कि ट्रंप या तो झूठ बोल रहे हैं, या तो उन्हें किसी ने बहका दिया है. या तो जानकारी ही गलत दी गई है. ऐसे में ट्रंप के भारत में मौजूद समर्थक ट्रंप का एक और भाषण ले आए. 20 फरवरी को वाशिंगटन में दिए गए एक अन्य भाषण में ट्रंप भारत और बांग्लादेश को दी गई फन्डिंग के बारे में अलग-अलग दावे कर रहे थे.
और इधर भारत में भी राजनीतिक बयानबाजी शुरू हो चुकी थी. पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच जुबानी तीर चलने लगे थे.
लेकिन ये मुद्दा और भी जटिल तब हो गया, जब भारत के विदेश मंत्रालय ने इसमें हस्तक्षेप किया. मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने 21 फरवरी की शाम पत्रकारों से कहा कि ये परेशान करने वाला है और भारत के मामले में बाहरी हस्तक्षेप है. उन्होंने ये भी कहा कि वो इस मामले की जांच कराएंगे.
तस्वीर और साफ करने के लिए हमने एक चिट्ठी लिखी. ये चिट्ठी भारत में मौजूद अमेरिकी दूतावास के अधिकारियों और मीडिया डिपार्टमेंट को संबोधित थीं. हमने उनसे पूछा -
1 - क्या भारत में मतदाता टर्नआउट बढ़ाने के लिए USAID द्वारा $21 मिलियन का अनुदान दिया गया था? या फिर यह अनुदान बांग्लादेश के लिए था?
2 - यदि यह अनुदान मूल रूप से बांग्लादेश के लिए था और भारत के लिए नहीं, तो अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इसे अपनी कई स्पीच में भारत से जुड़ा हुआ क्यों बताया?
3 - यदि वास्तव में ऐसा कोई अनुदान था, तो कृपया इसके उद्देश्यों और उन विशिष्ट कार्यक्रमों या संगठनों की जानकारी दें, जिन्हें यह सहायता दी जानी थी.
4 - DOGE की हालिया घोषणा को देखते हुए, क्या इस अनुदान को आधिकारिक रूप से रद्द कर दिया गया है या इसे किसी अन्य उद्देश्य के लिए पुनः आवंटित किया गया है? यदि हां, तो इससे संबंधित कार्यक्रमों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
दूतावास के प्रवक्ता क्रिस्टोफर एल्म्स ने जवाब दिया कि वाशिंगटन (यानी अमेरिकी राष्ट्रपति) द्वारा दिए गए बयान से ज्यादा मेरे पास बोलने के लिए कुछ नहीं है.
इसके साथ उन्होंने एक लिंक भी दिया, जिस पर जाकर अमेरिका द्वारा विदेशों को दी जाने वाली मदद के बारे में देखा जा सकता था. वेबसाइट foreignassistance.gov. इस पर जाने पर कुछ बातें समझ में आईं.
साल 2001 से लेकर साल 2024 तक USAID के जरिए भारत के पास कुल 2.9 बिलियन डॉलर आए हैं. मोटामाटी 25.14 हजार करोड़ रुपये.
साल 2004-2014 के यूपीए के कार्यकाल के दौरान - 1.2 बिलियन डॉलर.
और साल 2014-2024 के भाजपा के कार्यकाल के दौरान - 1.3 बिलियन डॉलर.
यानी भाजपा सरकार के कार्यकाल में USAID से ज्यादा पैसे देश में आए. ध्यान रहे कि ये सारे पैसे सरकार के पास नहीं गए होंगे. अलग-अलग मदों में खर्च होने वास्ते देश में आए होंगे.
अब एक और बात समझते हैं. यदि USAID से CEPPS के जरिए मतदाता जागरूकता के लिए देश में पैसे आने होंगे, तो वो किस मद में आएंगे. वो आएंगे गवर्नन्स और सिविल सोसायटी की मद में.
अब foreign assistance की वेबसाइट पर साल दर साल USAID का फ़िल्टर लगाया. और चेक किया कि गवर्नन्स और सिविल सोसायटी की मद में साल दर साल कितने पैसे खर्च हुए हैं?
साल 2021 - 5.35 मिलियन डॉलर.
साल 2022 - 4.6 मिलियन डॉलर.
साल 2023 - 9.07 मिलियन डॉलर.
साल 2024 - 6.8 मिलियन डॉलर.
यानी ये पिछले 4 साल के USAID में हेल्थ और गवर्नन्स के तहत आए खर्च का अभी तक का ब्यौरा है. 4 साल इसलिए क्योंकि इस पीरियड में ही USAID की इंडिया मिशन डायरेक्टर रही वीना रेड्डी पर सवाल उठ रहे हैं.
अब आप सवाल पूछेंगे कि इन्हीं 4 सालों में USAID का सबसे ज्यादा पैसा किन मदों में खर्च के लिए तय हुआ?
साल 2021 - बेसिक हेल्थ - 29 मिलियन डॉलर
साल 2022 - बेसिक हेल्थ - 140 मिलियन डॉलर
साल 2023 - बेसिक हेल्थ - 83 मिलियन डॉलर
साल 2024 - बेसिक हेल्थ - 43 मिलियन डॉलर
इस पूरे घटनाक्रम का संभावित भविष्य क्या हो सकता है? अमेरिका में क्या हो रहा है और क्या भारत पर इसका कोई असर पड़ेगा? उम्मीद है कि जो भी सच है, वो सामने आए. और दृश्य साफ हो. पैसा नहीं लिया, तो भी सफाई आए. और पैसा ले लिया, तो लेने वाले का नाम भी सुना जाए.
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