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दूसरों की जान बचाने वाले डॉक्टरों की 'नींद' कौन बचाएगा?

काग़ज़ पर देखें तो दिल्ली का AIIMS कहता है कि डॉक्टर 12 घंटे से ज़्यादा काम नहीं करेंगे. हफ़्ते में 48 घंटे की ड्यूटी होगी. सुनने में बढ़िया, लेकिन वार्ड की सच्चाई ये है कि कई जगह 24–36 घंटे की शिफ़्टें आज भी नॉर्मल मानी जाती हैं. मतलब नियम तो बन गया, नींद अब भी गोल है.

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डॉक्टरों की समस्या को ग्लोरिफाई किया जाता है

हर इमरजेंसी कॉल के पीछे एक अधूरी नींद है, हर मुस्कान के पीछे छिपी थकान. जो दूसरों की जान बचाता है, उसकी नींद कौन बचाता है? 

सुबह के चार बजे, नींद से भारी मुस्कान 

सुबह के चार बजे हैं. वार्ड की लाइटें अब भी जल रही हैं. मॉनिटर की बीप और नींद के बीच फंसी आंखें कुछ देर बंद होने को तरसती हैं. तभी नया इमरजेंसी कॉल बज उठता है. कॉफी ठंडी हो चुकी है. आंखों में नींद नहीं, बस केस शीटें हैं जो हर झपकी का हिसाब मांगती हैं. कभी-कभी लगता है, मैंने कितनी बार इसी वार्ड में थकान को मुस्कुराहट के पीछे छिपाया है और तब समझ आता है डॉक्टर की मुस्कान अक्सर राहत नहीं, ज़िम्मेदारी का मुखौटा होती है. थकान का कोई स्कोर नहीं होता, पर हर डॉक्टर के चेहरे पर उसका ग्राफ़ साफ़ दिखता है.  

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ये कहानी हर डॉक्टर की नहीं, बल्कि उस रेज़िडेंट डॉक्टर की है जो प्रशिक्षण के दौरान अस्पताल की सबसे लंबी शिफ़्टें करता है और नींद की सबसे छोटी हिस्सेदारी पाता है. वही डॉक्टर जो हर रात किसी अजनबी की जान बचाने में जुटा होता है, पर अपनी नींद और सेहत को सबसे आख़िर में रखता है. उसकी थकान सिर्फ थकावट नहीं, एक मौन संघर्ष है, जिसे कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करती. 

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लंबी ड्यूटी के बाद थकान डॉक्टरों की सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही है (india today) 
एक घटना, जिसने सवाल उठाए 

दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल की हालिया घटना ने यह सवाल फिर से उठाया. डीएम कार्डियोलॉजी के प्रथम वर्ष के रेज़िडेंट डॉक्टर अमित कुमार ने इस्तीफ़ा दे दिया.  उनकी पत्नी डॉ.  ऋषु सिन्हा ने सोशल मीडिया पर लिखा,

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GB Pant Hospital, दिल्ली! कृपया हमारी ज़िंदगी बर्बाद मत कीजिए. मेरे पति डॉ. अमित से 36 घंटे लगातार काम कराया जा रहा है. इसी ज़हरीले माहौल की वजह से उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया है. कृपया 1992 के नियमों के अनुसार उन्हें इंसानों जैसी तय ड्यूटी के घंटे दीजिए.

क्या है 1992 का नियम

यह पोस्ट सिर्फ़ एक पत्नी की व्यथा नहीं थी, यह उस पूरे सिस्टम का आईना थी, जहां डॉक्टर का सपना भी अब नींद के अभाव में घुटने लगा है. उन्होंने जिस 1992 की यूनिफ़ॉर्म रेज़िडेंसी स्कीम का ज़िक्र किया, उसमें यह सुझाव दिया गया था कि किसी रेज़िडेंट डॉक्टर से सामान्य परिस्थितियों में 12 घंटे प्रतिदिन या 48 घंटे साप्ताहिक से अधिक कार्य न लिया जाए. लेकिन हक़ीक़त यह है कि आज भी कई अस्पतालों में यह प्रावधान सिर्फ़ काग़ज़ों तक सीमित है. 

इस पोस्ट ने न सिर्फ़ थकान की बहस को ज़ोर दिया, बल्कि डॉक्टरों के काम के घंटों को लेकर पूरे देश में चर्चा छेड़ दी. इसी के बाद दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन ने हस्तक्षेप किया. जांच समिति बनी और तीन दिन के भीतर 8 घंटे की शिफ़्ट का आश्वासन मिला. डॉक्टर ने इस्तीफ़ा वापस ले लिया. कम से कम ये कहानी तो एक उम्मीद पर खत्म हुई पर यह अपवाद नहीं हज़ारों डॉक्टरों की साझा हकीकत है.  

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एक कहानी नहीं, एक व्यवस्था की थकान 

बर्दवान, अहमदनगर, जयपुर; नाम बदलते हैं, पर कहानी वही रहती है. देशभर के मेडिकल कॉलेजों में दृश्य लगभग एक जैसा है. मरीज ज़्यादा, हाथ कम, और नींद सबसे कम. दिल्ली के एम्स में 2019-20 में 44 लाख से अधिक मरीज ओपीडी में आए. औसतन 12 हज़ार प्रतिदिन. राजस्थान के एसएमएस अस्पताल में 2024 में यह संख्या 31. 6 लाख तक पहुंची. यानी लगभग 10–12 हज़ार रोज़. लेकिन डॉक्टरों की संख्या इस बढ़ते भार के अनुपात में नहीं बढ़ी.  

दोनों संस्थानों में से एक राजधानी का प्रतीक. दूसरा राज्य की रीढ़. दोनों एक ही सच्चाई उजागर करते हैं. मरीजों की भीड़ बढ़ती जा रही है, पर डॉक्टरों की ड्यूटी-लिस्ट पहले से लंबी और नींद पहले से कम होती जा रही है. कभी-कभी वार्ड में यह फर्क ही मिट जाता है कि कौन ज़्यादा बीमार है. मरीज या उसे संभालने वाला डॉक्टर. हर रात ड्यूटी के बाद वही डॉक्टर अगले दिन फिर ‘सुपरहीरो’ कहलाता है. बिना ये पूछे कि वो इंसान अब कितना थक गया है. 

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नींद की कमी डॉक्टरों के काम पर असर डालती है (india today)
थकान इंसान की, सिस्टम पेशे में बांट देता है

अब हाल ही में इंडिगो वाली घटना देखिए. कुछ पायलट थक गए. बोले ‘भाई, अब इससे ज़्यादा नहीं होगा’. बस इतना कहने भर से एयरपोर्ट हिल गया. न्यूज चैनल जाग गए. DGCA एक्शन में आ गया और यह सब होना भी चाहिए क्योंकि थका हुआ इंसान गलती कर सकता है. चाहे वो जहाज़ उड़ा रहा हो या ज़िंदगियों की जिम्मेदारी संभाल रहा हो लेकिन अस्पताल की दुनिया में कहानी अलग है.  

यहां डॉक्टर थक भी जाए तो किसी को दिखता नहीं. जैसे थकान इस पेशे की मजबूरी नहीं, इसकी ‘ड्यूटी’ का हिस्सा हो. नींद वही है, शरीर वही है. थकान वही है. फर्क बस इतना कि एक जगह सिस्टम तुरंत सुन लेता है और दूसरी जगह सालों से सब चुप्पी ही सुन रहे हैं. जान दोनों ही बचाते हैं. बस डॉक्टर की थकान भी उतनी ही गंभीर है. फिलहाल उसकी आवाज़ 'नेशनल प्रायोरिटी' बनने का इंतज़ार कर रही है. फर्क सिर्फ़ इतना है कि एक थकान सुर्खियों में आ जाती है. और दूसरी वार्ड की दीवारों में ही रह जाती है. 

थकान अब निजी नहीं

थकान अब सिर्फ डॉक्टर का व्यक्तिगत संघर्ष नहीं, यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है. जहां डॉक्टर के थकते ही भरोसा बीमार पड़ता है. देशभर में रेज़िडेंट डॉक्टर हफ़्ते में 70–90 घंटे तक काम कर रहे हैं. कई तो 36 घंटे लगातार ऑन-कॉल रहते हैं. डब्ल्यूएचओ, आईएलओ की 2021 की रिपोर्ट कहती है कि हफ़्ते में 55 घंटे से अधिक काम करने वाले लोगों में दिल और दिमाग़ के रोगों का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है. ‘यूनाइटेड डॉक्टर्स फ्रंट’ (2024) के सर्वे में 62 प्रतिशत रेज़िडेंट्स ने बताया कि वे साप्ताहिक रूप से 72 घंटे से अधिक काम करते हैं और 86 प्रतिशत ने माना कि इससे मरीजों की सुरक्षा प्रभावित होती है. 

इस थकान के पीछे सिर्फ लंबे घंटे नहीं, बल्कि कई गहरी परतें हैं. अकादमिक दबाव, सीनियर्स की उम्मीदें और वह माहौल, जहां सीखने की जगह धीरे-धीरे डर ने ले ली है. वार्ड में जब गलती पर डांट पड़ती है तो आवाज़ भले कुछ सेकंड की हो, पर उसका कंपन कई रातों तक भीतर गूंजता रहता है. वहां गलती सिखाने का अवसर बनने के बजाय आत्ममंथन और अपराधबोध का कारण बन जाती है. ऊपर से प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था की कमजोरी जो छोटे रोगों को भी तृतीयक अस्पतालों तक ढकेल देती है और वह कार्यसंस्कृति, जो सिर्फ अस्पतालों तक सीमित नहीं, बल्कि हर कॉर्पोरेट गलियारे में गूंजती है, जहां जूनियर्स को ‘अनुभव’ के नाम पर थकान में झोंक दिया जाता है. 

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दूसरों की जान बचाने वाला डॉक्टर अपनी नींद से जूझ रहा है (india today)

यह सब मिलकर एक ऐसा चक्र रचते हैं जिसमें संवेदना धीरे-धीरे प्रक्रिया में बदल जाती है और डॉक्टर इंसान से भूमिका में सिमट जाता है. जो डॉक्टर दूसरों की जान बचाने के लिए ट्रेन हुआ है, वो खुद नींद से जूझ रहा है. मशीनें सिर्फ मरीज को मॉनिटर करती हैं. डॉक्टर की थकान का कोई अलार्म नहीं बजता. एम्स दिल्ली की मनोचिकित्सक डॉ. पिंकी सेवदा इस स्थिति को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समझाती हैं, 

जब नींद अधूरी रहती है तो डॉक्टर की याददाश्त, ध्यान और निर्णय लेने की क्षमता सबसे पहले प्रभावित होती है. धीरे-धीरे संवेदना, कार्य की गुणवत्ता और जीवन की खुशी सब थकान की बलि चढ़ जाते हैं. यह थकान केवल शरीर की नहीं, बल्कि मन की थकान है जो डॉक्टर की संवेदना को कुंद कर देती है और पेशे को बोझ में बदल देती है. 

नींद की कमी और चिकित्सा गलती

नींद की कमी सिर्फ थकावट नहीं है. यह चिकित्सा गलती का सबसे ख़ामोश कारण बन सकती है. न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन (2004) के एक अध्ययन में पाया गया कि 24 घंटे से ज़्यादा लगातार काम करने वाले रेज़िडेंट डॉक्टरों में गंभीर चिकित्सा गलतियों की दर 36 प्रतिशत अधिक थी. इसी तरह बीएमजे ओपन (2021) की समीक्षा ने लंबे शिफ़्ट (24 घंटे से अधिक) को गंभीर गलतियों की संभावना 1. 6 गुना तक बढ़ाने वाला बताया. 

लैंसेट (1998) में 24 घंटे जागे सर्जनों में ऑपरेशन की कुशलता 20–30 प्रतिशत घटने की रिपोर्ट मिली. भारत में नेशनल जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन (2021) में 53. 6 प्रतिशत डॉक्टरों ने अपनी नींद की गुणवत्ता खराब बताई और कहा कि थकान के कारण उनसे काम में भूल-चूक हो सकती है. यानी जब डॉक्टर थकता है, तो गलती सिर्फ उसकी नहीं होती. सिस्टम के भरोसे में दरार पड़ती है. 

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डॉक्टरों की ड्यूटी को लेकर नियम हैं लेकिन उनका पालन नहीं होता (india today)
नीतियां हैं लेकिन नींद नहीं

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) की 2024 की टास्क फोर्स ने साप्ताहिक सीमा 74 घंटे और प्रति सप्ताह एक अवकाश का सुझाव दिया, लेकिन इसका क्रियान्वयन अभी लंबित है. ऑक्युपेशनल सेफ़्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड (2020) में श्रमिकों के लिए 9 घंटे प्रतिदिन की सीमा तय है. पर डॉक्टर इस परिभाषा से बाहर हैं. भारत में डॉक्टर हैं, पर बराबर नहीं बंटे. शहरों में जहां एक वार्ड में तीन डॉक्टर हैं, वहीं देश के कई जिलों में पूरा अस्पताल सिर्फ एक डॉक्टर के भरोसे चलता है. 

यह असंतुलन किसी रिपोर्ट से नहीं, हर मरीज की प्रतीक्षा से झलकता है. प्रशासन की मजबूरियां अपनी जगह हैं पद रिक्त हैं, भर्ती धीमी है, और मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. यह भी सच है कि सीमित संसाधनों में व्यवस्था को चलाना आसान नहीं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन कमियों की कीमत डॉक्टर की नींद और कभी-कभी उसकी जान से चुकाई जाएगी? 

थकान का महिमामंडन, थकी हुई परंपरा 

अस्पतालों में थकान सिर्फ सिस्टम की नहीं, कभी-कभी एक पीढ़ी की विरासत होती है. जब जूनियर कहता है ,सर, बहुत थक गया हूं, तो सीनियर मुस्कुराकर कह देता है- हम तो इससे भी ज़्यादा काम करते थे… तुम भी करो. यह अनुभव की सीख नहीं, बल्कि थकान का ट्रांसफर है. 

(ये आर्टिकल डॉ. अश्वनी पराशर ने लिखा है, जो पेशे से शिशु रोग विशेषज्ञ हैं और इस समय पीजीआईएमईआर, चंडीगढ़ में सीनियर रेज़िडेंट के तौर पर काम कर रहे हैं. ) 

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