केंद्र सरकार लगातार दावा करती आई है कि पेट्रोल में इथेनॉल मिलाने (Ethanol Blending in Petrol) से इसका प्रोडक्शन बढ़ा है, जिसका किसानों को फायदा हुआ है. उनकी आमदनी (Farmer's Income) बढ़ी है. पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय (Ministry of Petroleum and Natural Gas) ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि कच्चे तेल के आयात पर पहले जो पैसा खर्च किया जाता था, वह अब हमारे किसानों के पास जा रहा है.
'इथेनॉल से बढ़ी अन्नदाता की कमाई', सरकार के इस दावे का सच किसानों ने खुद बताया
सरकार का दावा है Ethanol को पेट्रोल में मिलाने और उसका प्रोडक्शन बढ़ने से सीधा फायदा किसानों को मिला है. उनकी कमाई बढ़ गई है. हालांकि जब इसकी पड़ताल की गई तो सच्चाई कुछ और ही सामने आई. यूपी से लेकर महाराष्ट्र तक के किसानों ने सरकार के इस दावे की पोल खोल दी.


केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री (Minister of Road Transport and Highways) नितिन गडकरी ने कहा था कि हमारे किसान अब अन्नदाता से ऊर्जादाता बन चुके हैं. हालांकि, आजतक से जुड़े ओम प्रकाश ने अपनी रिपोर्ट में जब इस दावे की पड़ताल की तो सच्चाई कुछ और ही सामने आई. रिपोर्ट में यूपी से लेकर महाराष्ट्र तक के किसानों के हवाले से बताया गया कि इथेनॉल से किसानों को कोई सीधा फायदा नहीं हुआ है.
किसानों ने कहा- नहीं हुआ कोई फायदाकिसानों का कहना है कि इथेनॉल से उन्हें एक रुपये लीटर का भी एक्स्ट्रा फायदा नहीं मिल रहा है. चीनी मिलें उनसे पहले जिस दाम पर गन्ना खरीदती थीं, अभी भी उस दाम पर खरीद रही हैं. यानी FRP (Fair and Remunerative Price) या फिर SAP (State Advised Price) पर ही किसानों से गन्ना खरीदा जा रहा है.
हालांकि अब फर्क इतना आया है कि गन्ने की पेमेंट जल्दी मिलने लगी है. पहले यह छह महीने या साल भर में मिलती थी. इस पर भी किसानों का कहना है कि यह कोई फायदा नहीं, बल्कि उनका हक है. पहले पेमेंट देरी से की जाती थी, जो कि नियमों के खिलाफ था. अब कुछ हद तक इसमें सुधार आया है.

बता दें कि शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर, 1966 की धारा 3(3) और (3ए) के अनुसार चीनी मिलों को डिलीवरी मिलने के 14 दिनों के अंदर गन्ने का पेमेंट करना जरूरी होता है. यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें किसानों को 15% हर साल के रेट पर ब्याज देना होता है. लेकिन इस नियम का पालन नहीं किया जाता था. समय-समय पर गन्ना किसानों को बिना ब्याज के देरी से ही पेमेंट देने का आरोप लगता है.
अभी भी किसानों का कहना है कि कुछ ही मिलों में समय पर पैसा मिल रहा है. ज्यादातर जगहों पर दो से छह महीने में ही पेमेंट मिलती है. ऐसे में सरकार इसे इथेनॉल की सफलता के तौर पर कैसे गिना सकती है. यह सरकार की ही नाकामी थी कि उन्हें अपने फसल की समय पर पेमेंट नहीं मिलती थी.
रिपोर्ट में किसानों को समय से पेमेंट मिलने की और भी कई वजहें बताई गई हैं. कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (Commission for Agricultural Costs and Prices) के अनुसार 2017 से 2019 के बीच गन्ने का रिकॉर्ड प्रोडक्शन हुआ था. इससे शक्कर की कीमतें घट गईं थीं. चीनी मिलों के पास कैश कम हुआ और किसानों को पेमेंट देरी से मिलने लगी.
इसके बाद सरकार ने कई कदम उठाए. 2018 में राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति (National Policy on Biofuels) लाई गई. इसके तहत पेट्रोल के साथ इथेनॉल मिलाने के लिए EBP (Ethanol Blended Petrol) प्रोग्राम लॉन्च किया गया. गन्ने की लागत निकालने और बफर स्टॉक बनाए रखने के लिए सरकार ने आर्थिक मदद भी की. इसके अलावा एक्स्पोर्ट बढ़ाने में मदद की गई. शक्कर को MSP पर खरीदने और इथेनॉल का प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए कम इंट्रेस्ट पर लोन दिया गया.

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बकाया पेमेंट में आई कमीइससे फायदा यह हुआ कि 2019-20 में गन्ना किसानों की बकाया पेमेंट 16.4% थी, वह 2023-24 में से घटकर 3.5% रह गई. आयोग के मुताबिक इथेनॉल का प्रोडक्शन 2018-19 में 3 लाख टन से बढ़कर 2022-23 में 43 लाख टन हो गया. इससे किसानों को समय पर पैसा मिला. लेकिन किसानों का मानना है कि सरकार जिसे सफलता के तौर पर पेश कर रही है, वह असल में उनका अधिकार है.
मक्का किसानों की भी यही कहानीमक्का यानी कॉर्न की खेती से जुड़े किसानों की भी यही कहानी है. केंद्र सरकार का दावा है कि इथेनॉल की वजह से मक्का किसानों को अधिक कीमत मिलने लगी, लेकिन सरकार की ही रिपोर्ट इस दावे की पोल खोलती है. रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले पांच साल में किसानों को MSP के बराबर भी औसत कीमत नहीं मिली है. मक्का की खेती से किसान अपनी कुल लागत भी नहीं वसूल पाए हैं.
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