दर्शक जानते हैं कि ये देव के कैरेक्टर की कल्पना है. लेकिन फिर वो अपने पेग में आइस क्यूब डालते हैं. नूतन ठंड से कांपने लगती हैं. दर्शक हतप्रभ हैं. ये विजय आनंद के डायरेक्शन की कल्पना है. ये उनका मैजिकल रियलिज्म है. उस डायरेक्टर का जिसकी प्रिय फिल्म ऋत्विक घटक की ‘मेघे ढाका तारा’ बेशक हो, जिसे सत्यजीत रे की फिल्मों का अस्तित्ववाद और गुरु दत्त का यथार्थवाद बेशक पसंद हो, लेकिन वो चाहता था कि उसके सिनेमा को केवल तीन शब्दों से जाना जाए- एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट...
बहरहाल. ये गीत सुपरहिट होता है. 1963 में आई वो मूवी ‘तेरे घर के सामने’ भी जिसमें ये टाइटल ट्रैक था. लेकिन देव आनंद और विजय आनंद की जुगलबंदी का ये सिर्फ एक पड़ाव था. मंज़िल तो इसके दो साल बाद 1965 में मिली. जब बॉलीवुड की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक आई- गाइड. सिनेमैटोग्राफी थी फाली मिस्त्री की और फिल्म में म्यूज़िक था एस डी बर्मन का. फिल्म मेकिंग में और भी डिपार्टमेंट होते हैं लेकिन सिर्फ इन दोनों का नाम इसलिए, क्यूंकि विजय आनंद का मानना था कि उनकी 'चलती फिरती कविता' को मूर्त रूप देने में इन दोनों का सबसे बड़ा हाथ था.
विजय आनंद. 22 जनवरी, 1934 को जन्मे इस डायरेक्टर के ढेरों किस्सों में से हम तीन ऐसे किस्से बताएंगे जो ज़्यादा बेशक न सुने गए हों, लेकिन अपने आप में कम इंट्रेस्टिंग नहीं हैं.
विनोद खन्ना और ओशो के बीच के संबंधों को कौन नहीं जानता. कहा जाता है कि अगर विनोद, ओशो के पास न जाते तो अमिताभ बच्चन से बड़े सुपरस्टार होते. लेकिन ‘यूं होता तो क्या होता’, जैसे सवालों में न फंसते हुए किस्से पर फोकस करते हैं.# जब अपनी माला फैंककर बोले- ओशो फ्रॉड है!
तो, विनोद खन्ना की धर्मेंद्र के साथ 1982 में एक मूवी रिलीज़ हुई,'राजपूत'. डायरेक्टर थे विजय आनंद. हालांकि कमाई के मामले में ये मूवी उस साल की टॉप तीन फिल्मों में से एक थी
, लेकिन इसको बनाने में जितना समय और जितनी मेहनत लगी, उसने विजय को भावनात्मक रूप से निचोड़ कर रख दिया.
डिप्रेशन का फेज़ शुरू हो गया. जो सवाल 'गाइड' में राजू के मन में पैदा हुए थे, वही उनके मन में भी पैदा होने लगे. उत्तर पाने के लिए वो ओशो की शरण में चले गए. स्क्रीन इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में खुद विजय आनंद ने बताया था-
'राजपूत' को पूरा करने में मुझे 7 साल और 100 शिफ्ट्स लगीं. इस दौरान मेरा चीज़ों से मोह भंग होना शुरू हो गया था. मुझे लगा, मैं अपना जीवन बर्बाद कर रहा हूं. उसके बाद मैंने फिल्म बनाने के कई आधे-अधूरे प्रयास किए, लेकिन कोई भी प्रोजेक्ट पूरा न हो पाया.

यही वो साल था जब विनोद खन्ना भी ओशो की शरण में गए थे.
क्या ‘राजपूत’ की शूटिंग के दौरान दोनों ने ये निर्णय लिया था? कहना मुश्किल है. लेकिन ये ज़रूर है कि विनोद खन्ना और विजय आनंद के साथ परवीन बॉबी और महेश भट्ट जैसे सेलिब्रेटीज़ ने भी ओशो का पुणे वाला आश्रम जॉइन कर लिया था.
खैर, ओशो का विजय आनंद पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि अपने स्टूडियो ‘केतनव’ को एक मंदिर में तब्दील कर दिया.
फ़िल्में बनानी छोड़ दीं. लोग अब 'केतनव' स्टूडियो, शूट या रिकॉर्डिंग के लिए नहीं, विजय आनंद प्रवचन सुनने के लिए आने लगे. वो 'स्वामी विजय आनंद भारती' नाम से पुकारा जाना पसंद करने लगे. लेकिन जब तक लोग उन्हें ‘भक्त’, ’पागल’ या 'गाइड का राजू’ पुकारते, उससे पहले ही उनका मोह भंग हो गया.
एक साल भी न हुआ था कि उन्होंने एक दिन अपनी माला और अपने चोगे को फ्लश में बहा दिया. ओशो को फ्रॉड बताते हुए बोले-
ओशो एक अरबपति बिज़नसमैन हैं. जो धर्म के नाम पर व्यापार करते हैं.बाद में विजय आनंद, यूजी कृष्णमूर्ति की शरण में गए. अपने अंतिम दिनों में यूजी के कहा था कि मुझे अगर कोई सच में समझ पाए तो वो विजय आनंद ही थे.
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया...# 'हम दोनों' का घोस्ट डायरेक्शन-
साहिर लुधियानवी का लिखा गीत. ग़ज़ल फ़ॉर्मेट में. आज भी इतना पॉपुलर कि कई लोगों की रिंग टोन और कॉलर ट्यून बना हुआ है. देव आनंद पर फिल्माए इस गीत के बारे में खुद देव आनंद के एक बार कहा था कि ये गीत मेरी ज़िंदगी का सार है
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मैं सिगरेट नहीं पीता, लेकिन मैं भी इस बात पर यकीन रखता हूं कि कि दुनिया भर की चिंताओं को अपने कंधों पर ढोने से अच्छा उन्हें झाड़ देना चाहिए.जिस मूवी में ये गीत था, उसका नाम था, ‘हम दोनों’. डबल रोल वाली टिपिकल मसाला मूवी. वर्ल्ड वॉर के बैकड्रॉप पर बनी इक्का-दुक्का हिंदी फिल्मों में से एक. बर्लिन फिल्म फेस्टिवल के बारहवें संस्करण में ‘गोल्डन बियर’ अवॉर्ड के लिए नॉमिनेटेड. अपने गीतों की तरह ही फिल्म भी इतनी टाइमलेस हिट, कि रिलीज़ के 50 साल बाद इसका कलर्ड वर्ज़न रिलीज़ किया गया.
‘हम दोनों’ के डायरेक्टर थे अमरजीत. लेकिन देव आनंद की मानें तो सिर्फ क्रेडिट रोल में मूवी के डायरेक्टर अमरजीत थे, वास्तव में नहीं. दरअसल विजय आनंद ने इस मूवी का 'घोस्ट डायरेक्शन' किया था.
अमरजीत एक पब्लिसिस्ट थे. पब्लिसिस्ट एक बढ़िया प्रफेशन है.
जिसमें आपको किसी मूवी, प्रोडक्ट, स्टार या कंपनी का प्रचार करना होता है. तो अमरजीत भी यही किया करते थे. विजय के बड़े भाई चेतन आनंद के पीआर (पब्लिक रिलेशन) को संभालते थे, और उनके घर में विजय के कमरे में ही रहते थे. एक बार जब विजय बीमार पड़े तो अमरजीत ने विजय की खूब सेवा-टहल की.
खुश होकर विजय ने वादा किया कि तुम मेरे लिए एक मूवी डायरेक्ट करोगे. कहते हैं कि ‘हम दोनों’ के लिए विजय ने अमरजीत की स्पून फीडिंग की थी. मतलब, सीन दर सीन मूवी की स्क्रिप्ट लिखी. सब कुछ समझा दिया. ताकि अमरजीत को ‘एक्शन’ और ‘कट’ के दौरान कोई दिक्कत न आए. मगर फिर भी अमरजीत फिल्म का निर्देशन नहीं कर पाए. और तब डायरेक्शन संभाला खुद विजय ने. लेकिन फिर भी क्रेडिट दिया अमरजीत को.
कट टू फरवरी 2004. दूरदर्शन के कुछ सीरियल्स में एक्टिंग कर चुकने के बाद विजय आनंद ने ‘न्यायमूर्ति कृष्णमूर्ति’ नाम की एक फिल्म अनाउंस की. लेकिन इस बात तो हफ्ता भी नहीं बीता कि कार्डिएक अरेस्ट से उनकी मृत्यु हो गई. उनकी पत्नी सुषमा कोहली ने एक लंबे इंटरव्यू के दौरान बताया था कि# गोल्डी की मौत पर नहीं रोऊंगा: देव आनंद-
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उन्हें (विजय आनंद को) थोड़ा बहुत ज्योतिष का ज्ञान था. उन्होंने वैभव को बताया था कि फरवरी 2004 उनके लिए बहुत बुरा महीना होने वाला है.वैभव उनके लड़के थे.
जिस दिन विजय आनंद की मृत्यु हुई, उस दिन देव आनंद के कहा कि वो नहीं रोएंगे. लेकिन जब एक बार उनका रोना शुरू हुआ तो अगले दो दिनों तक बंद न हुआ. लाज़मी था. देव आनंद के प्रिय जो थे विजय आनंद. कहते हैं कि, विजय आनंद के बाल सुनहरे रंग के थे. बचपने में उनकी लटें बड़ी सुंदर लगती थीं. इसलिए देव आनंद और उनके पिता उन्हें गोल्डी पुकारते थे. तो, लाज़मी था....
जावेद अख्तर ने विजय की मृत्यु पर कहा
था-
गीतों के फिल्मांकन में विजय आनंद का कोई सानी नहीं था. उनके हर फ्रेम का एक अलग ही एहसास था. उनकी एक कम यादगार फिल्म ‘ब्लैकमेल’ तक में ‘पल पल दिल के पास’ गीत का फिल्मांकन कम यादगार न था.जाते-जाते विजय आनंद के एक और फिल्मांकन को देख जाइए. जिसमें एक स्टेंज़ा सिंगल शॉट में शूट हुआ था. गीत जिसमें, प्यार तो है, दर्द भी है, हाय...
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