टॉम क्रूज़ की जुलाई, 2023 में आई Mission: Impossible – Dead Reckoning Part One का एक एक्शन सीन है जिसे सिनेमा इतिहास का सबसे बड़ा स्टंट कहकर प्रचारित किया गया. जिसमें नॉर्वे के पहाड़ की एक चोटी से बाइक दौड़ाते हुए टॉम क्लिफ के कुदा देते हैं और खड़ी घाटी में नीचे गिर जाते हैं और काफी नीचे जाकर पैराशूट खोलते हैं. अपने जीवनकाल में उन्होंने कम से कम 15-16 असंभव लगने वाले स्टंट ख़ुद किए. जो सिनेमा इतिहास से सबसे खतरनाक स्टंट्स में से हैं और सब तकरीबन उन्होंने ही किए. नॉर्वे की क्लिफ वाले स्टंट की परिकल्पना कई वर्ष चली और प्रैक्टिस कई महीने. टॉम क्रूज़ के लिए भी अमेरिकी सिनेमा में वही दांव पर है जो भारत में सलमान या शाहरुख का दांव पर है. एक अजीब, अनूठा सा स्टारडम. टॉम ने जो चीज़ अलग की वह ये कि उनके द्वारा स्टंट्स ख़ुद किए जाने और उनकी जानकारियां प्रचारित किए जाने ने, उनकी घोर कमर्शियल और काल्पनिक कहानियों को सच और तथ्य बना दिया. एक्टर ने कोई स्टंट ख़ुद किया है, कोई टॉर्चर ख़ुद झेला है, ऐसा अगर दर्शक जान ले तो उससे बड़ा नशा कुछ नहीं, उससे बड़ी स्वीकार्यता उस एक्टर के प्रति कोई दूजी नहीं हो सकती.
'टाइगर 3': आपकी फ़िल्म आपको बंधक तो नहीं बना रही?
कोई ऐसा स्पष्ट कारक नहीं होता जो फ़िल्म को पसंद या नापसंद करने की तरफ हमें धकेल सके. इसके बजाय दुविधा या कहें तो अस्पष्टता ज्यादा हावी रहती है.

दर्शक मूलतः make-believe के इस माध्यम में विवश कर दिया जाता है कि नहीं, ये तो सच है! देखो, ये एक्टर एक्टिंग नहीं कर रहा, उसने असल में जंप किया है! उसके बाद प्लॉटलाइन की बाकी काल्पनिक और कमज़ोर चीजें भी हमें असल होने का भ्रम देती है. टाइगर मूवीज़ से वो मिसिंग है. इस शृंखला की पहली फ़िल्म 'एक था टाइगर' का ओपनिंग एक्शन सीक्वेंस ले लें जहां इस्तांबुल, तुर्की के एक बाज़ार की छतों पर भागते, दौड़ते, गरजते सलमान ख़ान उर्फ टाइगर ख़ुद ये स्टंट नहीं कर रहे, यह एकदम स्पष्ट हो जाता है जब किसी बॉडी डबल के चेहरे पर सलमान का सुपरइम्पोज किया चेहरा अलग दिखता है. एक से अधिक बार. दूसरी फ़िल्म 'टाइगर ज़िंदा है' के सबसे मुश्किल एक्शन सीक्वेंस में भी बिना ज्यादा असुविधा के यह पकड़ में आता है. 'टाइगर वर्सेज पठान' से पहले आई शृंखला की तीसरी फ़िल्म 'टाइगर 3' के ओपनिंग एक्शन सीन में यह बाग़ी/रोमिंग भारतीय आरएंडएडब्ल्यू एजेंट तालिबान के इलाके में बंद भारतीय एजेंट गोपी को छुड़ाने जाता है और वहां भी पहली फ़िल्म के माफिक छतों वाला एक्शन सीक्वेंस होता है. ये गज़ब़ इत्तेफाक है कि उस बाजा़र की तकरीबन सारी छतें लड़की-लोहे के पतरों से कनेक्टेड होती हैं ताकि टाइगर और तालिबानियों की बाइक्स दौड़ सकें. जैसे छत न हो, अंतहीन काबुल का मैदान हो. वहां कुछ फ्रेम्स में तो कच्चे ग्राफिक्स में रचे बाइकर्स तक दिख जाते हैं. कुछ एनिमेटेड आकृतियां. ऐसा ही पहाड़ पर बाइक से चढ़ते उसके एक्सटेंडेड सीन में भी है, जो अतार्किक लगता है कि ऐसा स्ट्रक्चर भला अफगानिस्तान या किसी दूसरे इलाके में क्यों विद्यमान होगा.
फ़िल्म में एक बिंदु पर पठान और टाइगर मिलते हैं. एक बड़ा एक्शन सीन होता है जहां पाकिस्तानी सेना उन्हें रोकने की कोशिश करती है. लौहे के विशाल ब्रिज (जम्मू में चिनाब पर बने विशाल ब्रिज जैसा लगता हुआ) पर हैलीकॉप्टर और स्कायडाइविंग/एंगल फ्लाइंग के स्टंट होते हैं. यह व्यापक एक्शन दृश्य पुकार पुकार कर कहता है, मैं अपनी परिकल्पना में असंभव से भी असंभव हूं. हालांकि दिक्कत यह नहीं है. यह है कि अमुक सीन दावा नहीं कर पाता कि मैं इस फ़िल्म के इन किरदारों की क्षमता और योग्यता से बाहर की चीज नहीं हूं, जैसा कि 'एमआई-7' के नॉर्वे की चोटी से बाइक कुदाने वाले सीन की रिहर्सल के दौरान टॉम क्रूज़ कहते भी हैं - Don't be careful. Be Competent.
फ़िल्म की एक आदर्श पड़ोसी की परिकल्पना भी रोचक है. ये फ़िल्म उन अफगानी तालिबानियों को हमारा दुश्मन दिखाती है जो भारत के मित्र हैं, प्रशंसा करते हैं और जिनका भारत से संबंध अभी पाकिस्तान से लाख गुना अच्छा है. बल्कि इंडो-अफगान शत्रु भी पाकिस्तान है. वहीं यह फ़िल्म एक लोकतंत्र से महकते पाकिस्तान के स्वप्न में अपने करीब 60 फुट के परदे में ऊंघ रही होती है, जैसा अगले बीस-पचास बरस में होने का कोई संकेत नहीं है. मैं सोचता हूं कि दर्शक के रूप में कहानी के इस सब्जेक्ट मैटर में रुचि लेने की मेरे पास भला क्या वजह है? ऐसा सब्जेक्ट मैटर जो फिक्शन का भी फिक्शन है और मेरे लिए बंजर भावनात्मक निवेश है.
कहानी में जब ज़ोया और टाइगर का बेटा किडनैप हो जाता है और विलेन आतिश रहमान (इमरान हाशमी) उन्हें टास्क देता है, तो कुछ ही क्षणों बाद इन माता-पिता की बेचैनी जा चुकी होती है. अगले ही सीन में वे सहज हैं, चिल कर रहे हैं, प्लान बना रहे हैं कि विलेन की मांगी चीज लूटकर कैसे देंगे. इन चेहरे समतल हैं. बाहर-भीतर ज्यादा कुछ घटता नहीं, कि जिसका अनुमान लगाकर हमारा दिमाग भी साथ-साथ उधेड़ता-बुनता रहे. जैसा कि 'द फैमिली मैन' में श्रीकांत (मनोज बाजपेयी) के किरदार को हर क्षण देखते हुए हम कर पाते हैं. हमारा मन, हर क्षण उसके अंतर्मन से बंध होता है, यह सोचते हुए कि अभी इस 'टास्क/एनआईए' के इंडियन एजेंट के मस्तिष्क में क्या चल रहा है, और वह क्या करने वाला है.

इमरान हाशमी का आईएसआई के पूर्व-डिप्टी का किरदार डराता नहीं है. उतना भी नहीं जितना 'पठान' में आरएंडएडब्ल्यू का पूर्व-एजेंट और अब अंतर्राष्ट्रीय अपराधी बन चुका जिम का किरदार डराता है. बेशक, वो जॉन अब्राहम के अभिनय निर्वाह की वजह से कम और फ़िल्म के डायरेक्टर, सिनेमैटोग्राफर, डायलॉग्स और साउंड वालों की बदौलत ज्यादा था. यहां तनुज टीकू की बैकग्राउंड धुनें कहीं कहीं आतिश रहमान के पात्र को अच्छा उभार जाती हैं. वे कुछ क्षण इस पात्र के बेस्ट क्षण होते हैं. उसके उपरांत उसे लाइक करने का कोई एक भी स्पष्ट स्तंभ नहीं है. ऐसा पूरी 'टाइगर 3' को लेकर भी कह सकते हैं.
कोई ऐसा स्पष्ट कारक नहीं होता जो फ़िल्म को पसंद या नापसंद करने की तरफ हमें धकेल सके. इसके बजाय दुिवधा या कहें तो अस्पष्टता ज्यादा हावी रहती है. कि इस फ़िल्म को मथकर क्या मक्खन निकालें? ठेले ठेले और दुकान दुकान जो व्यंजन बन रहे हैं जिनमें रंगों, मसालों, कचरों का छिड़काव पर छिड़काव है. देखकर आंखों को उल्टी आ जाए. और पेट को समझ न आए कि इस स्वाद को क्या नाम दूं. वही, 'टाइगर 3' के साथ भी है. या कहें तो इन दिनों की ज्यादातर मसाला फ़िल्मों के साथ है. फ़िल्में पसंद नहीं आ रहीं तो मसालों की मात्रा बढ़ा दी गई है. जितने की ज़रूरत ही नहीं है. ज़रूरत पाक-कला पर, व्यंजन विधि पर ध्यान देने की है. मसाले तो पहले ही ख़ूब हैं. ज़ाहिर है कि इनमें सबसे कारगर मसाला फ़िलहाल है - एक से अधिक स्टार्स के गेस्ट रोल/कैमियो रखना. 'पठान' में शाहरुख़ के संकटमोचक सलमान, 'टाइगर 3' में सलमान के संकटमोचक शाहरुख़ (उनकी एंट्री फ़िल्म का हाइपॉइंट है, लेकिन फिर भी ये एक अंडरवेल्मिंग एंट्री है). बस मेज़र कबीर धालीवाल (ऋतिक रोशन) का इंतज़ार रह गया.
सलमान की एक्टिंग ठस है. फ़िल्म का एक अत्यंत मार्मिक सीन वह होना था, जब उसे बहुत बड़ा धोखा मिलता (या आभास होता है) है किसी करीबी से और वह रोता है उसके सामने. वह ठीक से रो भी नहीं पाते हैं. मन, मन में ढूंढता है कि वह सलमान कहा है जो 'तेरे नाम' में अंत में निर्जरा के शव पर बैठकर रोता है, और बाद में सच में पागल हो जाता है और सड़कों, गलियों से बेसुध चलता हुआ, अपने पीछे रोते-दहाड़ते-विक्षिप्त होते दोस्त, रिश्तेदार छोड़कर वापस मानसिक रुग्णालय की वैन में बैठ जाता है. और वो उसे लेकर चली जाती है.
एक प्योर और चरम थ्रिल देने वाला सीन फ़िल्म में वह है जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आवास जैसी ही एक जगह पर सीढ़ियों पर बिछी लाल जाजम पर आर्मी के शीर्ष अधिकारी की स्नाइपर द्वारा हत्या की जाती है औऱ वह टीवी पर लाइव नज़र आता है.
एक सीन जो शायद इस फ़िल्म का सबसे यादगार सीन हो सकता था, तथा जिसका कम-स-कम वैसा ही रेफरेंस दिया जा सकता था जैसा 'वॉर' में ख़ालिद (टाइगर श्रॉफ) के 3 मिनट लंबे लॉन्ग टेक इंट्रोडक्टरी सीन का है. लेकिन अंततः ज़ोया का तुर्की में एक चीनी महिला के साथ हम्माम में एक-एक सफेद तौलिया पहने लड़ने का दृश्य, जहां एक जगह जोया का तौलिया चीनी प्रतिद्ंवद्वी तकरीबन खींच ही लेती है, वह भुलाए जाने जैसा ही सिद्ध होता है. इस एक्शन सीक्वेंस में कोई इनोवेशन नहीं है. न उतनी इंटेंसिटी है जिसका दावा किया गया होता है, जब उससे एक सीन पहले ही ज़ोया ने ख़ुद कहा होता है कि यह चीनी महिला तो मर्दों को ट्रेनिंग देती है. जब दूसरा एजेंट कहता है कि ब्रूस ली है एकदम - तो ज़ोया काटते हुए कहती है - ब्रूस ली नहीं उसकी नानी है. अगर "ब्रूस ली" की नानी वह है तो सोच लें एक्शन कैसा होना चाहिए था.
डायरेक्टर मनीष शर्मा अपने आने की घोषणा करते हैं जब फ़िल्म की ओपनिंग ज़ोया की बैकस्टोरी से होती है. वह कौन थी, उसका अतीत क्या था. जहां वह अपने पिता से कहती है - "जेम्स बॉन्ड का ज़माना गया, मुझे लारा क्रॉफ्ट बनना है". इस सादे से सीन के साथ फ्रैश स्टार्ट फ़िल्म की होती है. लगता है इस शृंखला में 'बैंड बाजा बारात' जैसी मौलिकता/authenticity की गंध यह निर्देशक अवश्य बिखेरेंगे. लेकिन जब फ़िल्म ख़त्म होती है तो एक घोर कमर्शियल और चीप टोटके के साथ. दर्शक की देशभक्ति को सहलाते हुए और तकरीबन उसे ब्लैकमेल करते हुए कि फ़िल्म को अब तो स्वीकार करोगे ही, जाओगे कहां. डूबकर एक्टिंग की पढ़ाई करने वालों और सिनेबफ्स ने एक अमेरिकी टॉक शो का नाम सुना होगा - Inside The Actors Studio. उसके विरले, सरल आतिथेय जेम्स लिप्टन एक प्रश्न पूछा करते थे - What turns you Off? यानी किस चीज से आपका मन एकदम खराब हो जाता है. अगर वो मुझसे पूछते तो मैं कहता - 'टाइगर 3' के क्लाइमैक्स में भारत की उस अज़ीज़ धुन को पाकिस्तानी बच्चियों द्वारा बजाया जाना.
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आप ऐसा क्यों करेंगे? मैं क्यों चाहूंगा कि कोई पाकिस्तानी बच्चा मेरे देश की धुन बजाए कृतज्ञता में. जबकि वस्तुस्थितियां कुछ और हैं. और वो बजा इसलिए रही हैं क्योंकि आपकी फ़िल्म अगर दर्शक को किसी और तरह से न घेर पाए और बाध्य कर पाए तो फिर इस हरकत के बाद तो करेगी ही. उसे यह धुन सुनकर अपनी सीट पर खड़े हो जाना पड़ेगा, जो हर शो के साथ देश-विदेश के सिनेमाघरों में हो भी रहा होगा, एक ही शो में दूसरी बार.
क्या आप मेरे दिमाग को बंधक रखना चाहोगे. आप अपनी फ़िल्म से, अपने क्राफ्ट से, अपनी टेक्नीक से मुझे बाध्य करिए. ये कमर्शियल बदमाशी क्यों करते हैं? क्योंकि मेरे अंदर सेवियर सिंड्रोम होगा इसलिए? वह भी पाकिस्तान जैसे देश को लेकर जिसे किसी बाहरी नायक की नहीं अपने ही लोगों की जागृति की जरूरत है. देशभक्ति के बाज़ार में मुझे ग्राहक बनाने का भौंडा प्रयास यह फ़िल्म करती है. क्यों? कोई आवश्यकता न थी.
जेम्स लिप्टन एक सवाल और पूछते थे - What turns you on? कि किस चीज से मन प्रसन्न हो उठता है. 'टाइगर 3' के संदर्भ में कहूंगा - वह हिस्सा जहां टाइगर अपने बच्चे और पत्नी के साथ किसी दूर देश में रहता है और प्रसन्नता से जीवन जीता है. और वह क्षण जहां मैं सीट से रिहा होकर थियेटर से बाहर निकल आता हूं.
Film: Tiger 3 । Director: Maneesh Sharma । Cast: Salman Khan, Katrina Kaif, Emraan Hashmi, Revathi, Simran, Kumud Mishra, Anant Vidhaat Sharma, Vishal Jethwa, Riddhi Dogra, Ranvir Shorey, Aamir Bashir, Gavie Chahal, Shah Rukh Khan (in a brief appearance) । Run time: 2hr 36m
वीडियो: सलमान खान की टाइगर 3, जवान और पठान को पछाड़ विदेशों में सबसे बड़ी पाने वाली फिल्म बनी