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शॉर्ट फिल्म रिव्यू: द मिनिएचरिस्ट ऑफ जूनागढ़

ये शॉर्ट फिल्म न्यूयॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल, बेंगलुरू इंटरनेशनल शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल और धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई थी. जहाँ इसने ख़ूब तारीफें बटोरी.

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The Miniaturist Of Junagadh शॉर्ट फिल्म घर छोड़ने की मजबूरी, कलाकार का अपने कला के प्रति जुनून और घर छोड़ने की टीस को दिखाती है.

ओटीटी के दौर में एंथोलॉजी सीरीज़ का चलन चल चुका है. जिसमें कई बड़े फिल्म मेकर्स और एक्टर्स अपनी छोटी-छोटी कहानियों को गढ़ते-रचते हैं. ये प्रथा गलत नहीं है. बस इसके आ जाने से शॉर्ट फिल्मों की तरफ लोगों का ध्यान कम जाता है. आज ऐसी ही एक शॉर्ट फिल्म The Miniaturist Of Junagadh की बात.  

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ये आंखें गवाई नहीं हैं बेगम...

कहानी है 1947 की. जब मुसलमानों को देश छोड़कर पाकिस्तान जाने पर मजबूर किया जा रहा था. गुजरात के जूनागढ़ में रहने वाला एक मुस्लिम परिवार. जिसे अपनी हवेली और अपना मुल्क छोड़कर लाहौर जाना था. हवेली में तीन लोग थे. हुसैन. जो Miniaturist हैं. Miniaturist मतलब वो पेंटर जो बहुत बारीक पेंटिग्स बनाते हैं. हुसैन की पत्नी सकीना और बेटी नूर.

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The Miniaturist Of Junagadh

पाकिस्तान जाने से पहले हुसैन अपनी हवेली बेच रहे हैं. हवेली को औने-पौने दाम पर खरीदने वाले किशोरीलाल की ये शर्त है कि हुसैन, हवेली से एक भी सामान अपने साथ ना ले जाए. फिर चाहे वो ग्रामोफोन हो या हुसैन की पेंटिग्स. मगर परिवार चाहता था कि हुसैन की बनाई हुई आखिरी पेंटिंग वो अपने साथ ज़रूर ले जाएं. बस यहीं से कहानी मोड़ लेती है. और उस अंजाम पर पहुंचती है जिसे देखकर इमोशनल हुए बिना नहीं रहा जा सकता.

ज्ञान देने की कोशिश नहीं करती फिल्म 

ये फिल्म Stefan Zweig की कहानी Die Unsichtbare Sammlung का हिंदी अडैप्टशन है. जिसे डायरेक्ट किया है कौशल ओझा ने. हर सीन के पहले सीन को एस्टैब्लिश किया जाता है. किशोरी लाल का शीशा देखना हो या ग्रामोफोन पर कान लगाकर गाने सुनना. बिना ज़्यादा कैमरा मूवमेंट के कौशल पर्दे पर अपनी बातें कह जाते हैं. अच्छी बात ये है कि फिल्म कोई ज्ञान देने की कोशिश नहीं करती. वो सारी बातें आपकी सोच पर छोड़ देते हैं.  

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The Miniaturist Of Junagadh
किशोरीलाल को अपनी पेंटिंग्स दिखाते नसीरुद्दीन शाह. 

बैकग्राउंड म्यूज़िक का यूज़ बहुत बढ़िया है. जिस सीन में मोमबत्तियां बुझाती हुई रसिका की आवाज़ बैकग्राउंड में नरेशन देती है, उस वक्त क्राफ्ट अपने शिखर को छूता है. आखिरी सीन में जब हुसैन अपनी पेटिंग वाला बक्सा पैक करके ले जा रहे होते हैं, उसके ठीक पीछे चाय का कप दिखाई देता है. जिसमें एक सिप चाय बची होती हैं. क्योंक हुसैन का मानना है,

जो आखिरी घूंट छोड़ जाता है चाय की,
वो उसकी तलब में जूनागढ़ वापिस ज़रूर आता है.

फिल्म का सारा अटेंशन नसीरुद्दीन शाह ले गए हैं. उनका ठहराव सुकून दिलाता है. उनकी बेटी बनीं रसिका दुग्गल की एक्टिंग से ज़्यादा नरेशन दमदार है. जो स्क्रीन से बांधे रखता है. किशोरी लाल के रोल में अजय राज ने भी बेस्ट दिया है. उन्हें जिस वजह से कास्ट किया गया, वो उसे निभा गए हैं. यहां एक सीन का ज़िक्र करना ज़रूरी है. जब नूर, किशोरी लाल को शरबत परोसती है. पहले तो किशोरी गिलास पकड़ लेता है. मगर जब नूर बिल्ली को गोश्त खिलाती है तब किशोरी हड़बड़ा जाता है. वो गिलास मेज़ पर रखकर हाथों को रुमाल से पोंछने लगता है.  
 

रसिका की एक्टिंग से ज़्यादा उनका नरेशन दमदार है.

29 मिनट की ये शॉर्ट फिल्म भारत-पाकिस्तान बंटवारे का दर्द दिखाती है. घर छोड़ने की मजबूरी, कलाकार का अपने कला के प्रति जुनून और घर छोड़ने की टीस, सबकुछ दिखता है इसमें. ये फिल्म ना सिर्फ उस वक्त की मजबूरियों को दिखाती है बल्कि प्रेज़ेंट टाइम के सिनैरियो पर भी चोट करता है. फिल्म सिखाती है कि हिन्दू-मुस्लिमों को ना सिर्फ एक-दूसरे के प्रति सम्मान रखना चाहिए, बल्कि एक-दूसरे के भगवानों और मान्यताओं का भी मान रखना चाहिए.

फिल्म के डायलॉग्स में उर्दू का प्रयोग शानदार है. इसके लिए असलम परवेज़ की तारीफ किए बिना नहीं रहा जा सकता. सिनेमेटोग्राफी हो या डायरेक्शन ऑफ फोटोग्राफी दोनों में ही कुमार सौरभ का कमाल दिखता है. कुल मिलाकर ये एक ऐसी फिल्म है, जो छाप छोड़ जाती है. इसलिए समय निकालकर इसे देख डालिए. 

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