
कहानी की केंद्र बिंदु है आस्था.
सिक्के का दूसरा पहलू है पिपलिका. इंडियन सिनेमा में टिपिकल आज़ाद विचारों वाली महिला को सोचकर जो याद आता है, उस सांचे में पूरी तरह फिट होती है पिपलिका. मॉडर्न कपड़े पहनती है. सिगरेट पीती है. केमिस्ट की दुकान से कंडोम लेने पहुंच जाती है. बेबाक है. बड़बोली है. किसी से भी भिड़ जाती है. किसी जेंडर या बॉडी से नहीं, बल्कि रूह से प्यार करने की बातें करती है. किसी वजह से इन दोनों अलग विचारों वाली औरतों के रास्ते टकराते हैं. आस्था की तो जैसे दुनिया बदल जाती है. एक नयापन महसूस करने लगती है. लगने लगता है कि कोई उसे बस उसके शरीर के लिए प्यार नहीं कर रहा. लगने लगता है कि मानो किसी ने उसकी रूह में झांककर सब कुछ देख लिया है. उसके बारे में सब कुछ जान लिया है. बिना परवाह किए वो इस नए अनुभव में गोते लगाने उतर पड़ती है. लेकिन जब परिवार और समाज को पता चलेगा, तो क्या होगा. इस बात से बेखबर है. अपने आप को अब समझाने की जरूरत महसूस नहीं करती. लेकिन पिपलिका को कितना समझ पाई. पिपलिका के पास्ट को कितना जान पाई. ये सब परतें खुलेंगी तो क्या कुछ होगा, यही शो की कहानी है.

पिपलिका से सारे आज़ाद विचारों वाली महिला के स्टीरियोटाइप जुड़े हैं.
# मोनोलॉग के बोझ तले दबा यूं तो कहानी 90 के दशक में सेट है. हालांकि, इसकी शुरुआत होती है 1985 से. आस्था अपनी शादी में खुश है. लेकिन ये हमें कैसे पता? क्यूंकि स्क्रीन पर दिख रहा है. सिर्फ इतने में भी अगर आप कंविंस नहीं हुए तो कोई बात नहीं. आस्था अपना हाल आपको खुद बताएगी. कब खुश है, कब दुखी है. कब क्या घटा. सब बताएगी. वो बात अलग है कि जो वो कैमरा से नज़र मिलाकर बताएगी, वो आप पहले ही घटता हुआ देख चुके हैं. हिसाब से नैरेशन को यूज़ किया जाता है किरदार की तरफ की कहानी बताने के लिए. लेकिन यहां शायद शो की राइटर्स जया मिश्रा और सुरभि सरल ने इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया. यहां आप पहले किरदार की बेचैनी देखेंगे. उसकी खुशी देखेंगे. फिर जो आपने देखा, सेम वही बात वो आपको बताएगी. शो में इस तकनीक से किसी को मदद नहीं मिली. न कहानी को, न किरदार को. बस एपिसोड की लेंथ में बढ़ोतरी हुई. जो कि पूरी तरह गैर-जरूरी थी.

शो की लेंथ के साथ ज़बरदस्ती की खींचतान की गई है.
ऐसा भी नहीं है कि यहां राइटर्स के नाम सिर्फ शिकायतनामा ही पढ़ा जा रहा है. राइटर्स ने जिस तरीके से शो के सब्जेक्ट को हैंडल किया, उसकी तारीफ होनी चाहिए. एक लेस्बियन लव स्टोरी. वो भी 90 के दशक में. बस एक लाइन क्रॉस करने की जरूरत थी इसे भद्दा बनाने में. जो कि कितने ही इंडियन वेब शोज़ कर चुके हैं. खैर, शुरू में देखकर लगा कि यहां भी इस लव स्टोरी को एक सेक्शुअल ओवरटोन देने की कोशिश की गई है. पर बाद में ये शिकायतें दूर हो गईं. दूसरी भाषा में कहें तो गुलज़ार साहब की ‘प्यार को प्यार ही रहने दो’ वाली बात का पालन हुआ है. लेकिन क्या इस लव स्टोरी को सही दिशा दिखा पाए, तो इसका जवाब है नहीं. # पॉलिटिक्स के बैकड्रॉप को प्रॉप बनाकर छोड़ दिया शो में हिंदू-मुस्लिम तनाव और उससे ऊपजे बाबरी मस्जिद कांड के जगह-जगह रेफरेंस हैं. शुरू में देखकर लगा कि शो के डायरेक्टर साहिर रज़ा इसे एक पॉलिटिकल बैकड्रॉप देने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन दुर्भाग्यवश, ऐसा हुआ नहीं. शो ने इस हिंदू-मुस्लिम तनाव के रेफरेंस बस छिड़ककर छोड़ दिए. ज़रा सा भी टच करने की जरूरत नहीं समझी. परिणाम ये हुआ कि ये बैकड्रॉप बस एक प्रॉप बनकर रह गया. जिसका कहानी में होना न होना एक बराबर था.

सिर्फ आस्था की कहानी बताने के चक्कर में शो को डेप्थ नहीं दी.
शो ने ही अपनी पॉलिटिक्स को सीरियसली नहीं लिया. शो से ही उदाहरण देते हैं. एक किरदार होता है. होनहार, समझदार किस्म का लड़का. धार्मिक भेदभाव से दूर रहने वाला. अचानक से कट्टरपंथियों के साथ मिल जाता है. दंगे करने सड़क पर उतर आता है. आस्था उसे समझाती है. नहीं मानता. बस बात खत्म. आगे उस किरदार का क्या हुआ, क्या नहीं हुआ. किसी को कोई मतलब नहीं. जैसे मेकर्स खुद ही भूल गए कि करना क्या था. # कंटेंट नहीं, परफॉरमेंस ड्रिवन शो आस्था एक सीधी-सादी औरत है. कॉलेज में पढ़ाती है. घर भी मैनेज करती है. अपनी बाउंड्रीज़ में यकीन करती है. घर और पति के साथ अपने रिश्ते में घुटन महसूस करने लगती है. पर कभी जताती नहीं. किरदार की इसी लाचारी को अच्छे से बाहर आने दिया है आस्था बनी ऋद्धि डोगरा ने. शो की कमजोर कहानी को जैसे इन्हीं की एक्टिंग के भरोसे चलाया गया. लेकिन जो भी हो, शुरू से लेकर अंत तक ऋद्धि पूरी तरह कंट्रोल में रहीं. किसी भी भाव को ‘ओवर द टॉप’ नहीं होने दिया. अपने डायलॉग्स के साथ भी पूरा इंसाफ किया. खासतौर पर किसी इमोशनल सीन में. पॉज़ ले लेकर डायलॉग बोले. ऐसा नहीं लगा कि बस डायलॉग पढ़ रही हैं. रही बात पिपलिका की. तो उसका किरदार निभाया है मोनिका डोगरा ने. आस्था को केंद्र बिंदु रखकर लिखी इस कहानी में मोनिका को ज़्यादा रेंज दिखाने का मौका नहीं मिला. उसका एक डार्क पास्ट है. चाहते तो उसे कुरेदकर ऑडियंस को मौका दे सकते थे. पिपलिका को बेहतर तरीके से जानने का. लेकिन मेकर्स ने पिपलिका की कहानी चलाई नहीं. बस भगाई. हो सकता है ये हिस्सा आगे के सीज़न के लिए बचा रहे हों.

टीवी शोज़ में एक्टिव रहने वाली ऋद्धि ने यहां असरदार परफॉरमेंस दी है.
# दी लल्लनटॉप टेक एक्टर्स अच्छे थे. सब्जेक्ट बढ़िया था. बावजूद इसके मेकर्स ने पूरा फ़ायदा नहीं उठाया. अपनी कास्ट की मेहनत को एक स्लो स्क्रिप्ट के नाम चढ़ा दिया. और बदले में निकाला 11 एपिसोडस का ये शो. जिसे, अगर आपके पास एक्स्ट्रा समय है तो देख सकते हैं. नहीं भी देखेंगे तो किसी नुकसान में नहीं रहेंगे.

योर टाइम इज़ योर टाइम, नन ऑफ माय टाइम.
जाते-जाते एक और बात. बीच-बीच में 90 के दशक की कुछ निशानियां भी देखने को मिलेंगी. जैसे पेन घुमाकर कैसेट की रील फिक्स करना. पुराने घरों में इस्तेमाल होने वाले खट-खट टाइप स्विच बोर्ड. लेकिन सिर्फ इतना-सा नॉस्टैल्जिया तो कारण नहीं बन सकता शो देखने का. काश इतनी ही डिटेलिंग कहानी पर की गई होती.