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मूवी रिव्यू: शेरदिल - द पीलीभीत सागा

पंकज त्रिपाठी के किरदार में एक किस्म की इनोसेंस है. और ये इनोसेंस सिर्फ उसकी नहीं, बल्कि उन सभी लोगों की इनोसेंस का प्रतीक है जो शहर और वहां की तेज़ दुनिया और लोगों से कटे हुए हैं.

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फिल्म कई सारी थीम्स एक्सप्लोर करना चाहती है.

एक गांव है. इसी देश में कहीं. वहां के लोगों का भूखमरी से बुरा हाल है. वजह है कि ये गांव पड़ता है जंगल के समीप. जंगली, खूंखार जानवर आते हैं और खेती खराब कर देते हैं. गांव वालों को मार डालते हैं. लोगों के पास पैसे का कोई साधन नहीं बचता. ऐसे में गांव का एक आदमी कुछ रास्ता निकालता है. प्लान करता है कि जंगल में जाएगा, शेर का शिकार बनने. ताकि गांव वाले उसका मुआवज़ा सरकार से ले सकें. अगर ये कहानी किसी अखबार में छपती तो शायद हम इसके किरदारों के नाम याद नहीं रखते. उस गांव को ‘वो वाला गांव’ कहकर संबोधित करते. वहां के लोग कैसे हैं, क्या सोचते हैं, क्या इसी दुनिया में रहते हैं. ऐसे सवालों का जवाब नहीं ढूंढ पाते.

इसलिए डायरेक्टर सृजित मुखर्जी ने इस कहानी को फिल्म की शक्ल दे दी. और उस फिल्म को नाम दिया ‘शेरदिल: द पीलीभीत सगा’. गांव के लिए मरने वाला वो आदमी बन गया गंगाराम, उस गांव का सरपंच. जिसका किरदार पंकज त्रिपाठी ने निभाया है. ये फिल्म सिर्फ एक आदमी के जंगल जाकर शेर का चारा बनने की कहानी नहीं. ये तो बस बहाना है. जिसके ज़रिए सृजित कुछ थीम्स एक्सप्लोर करना चाहते हैं. जैसे इंसान और प्रकृति का रिश्ता. हम खुद को नेचर से अलग मानते हैं, जानवरों से अलग मानते हैं. फिर भी आम बोलचाल के लिए उन्हीं जानवरों के पास पहुंच जाते हैं. खुद की तारीफ करनी हो तो शेर का बच्चा हूं मैं. किसी को गाली देनी हो तो उसे कोई और जानवर कहकर संबोधित करना.

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फिल्म के एक सीन में पंकज त्रिपाठी और नीरज काबी. 

नेचर के करीब जाकर ही समझ आता है कि इंसान कितना उसके जैसा है. फिल्म इसी भेद और फिर उसमें छुपी समानता को एक्सप्लोर करना चाहती है. फिल्म से एग्ज़ैम्पल बताते हैं. गंगाराम एक किरदार से मिलता है. दोनों अलग बैकग्राउंड से आते हैं. एक शुद्ध शाकाहारी और दूसरा मांस खाने वाला. एक सीन में ये दोनों लोग शौच करने बैठते हैं. बिना सटल हुए उस सीन में दर्शाया गया कि हमारी मान्यताएं अलग हो, हमारे धर्म अलग हों, लेकिन दोनों लोग मल त्याग ही कर रहे हैं. ये सीन पूरी फिल्म का एसेंस कैरी करता है. भले ही कुछ लोगों को ये सुनने में अज़ीब लगे.

मेकर्स की मंशा ही थी कुछ अज़ीब बनाने की. शुरुआत की फिल्म के ह्यूमर से. आप खुद को ऐसे मौकों पर हंसते हुए पाएंगे, जहां आप सोचेंगे कि यार यहां नहीं हंसना चाहिए. जैसे जब गंगाराम जंगल यात्रा शुरू कर रहा होता है तो पंडित जुग जुग जियो का आशीर्वाद देता है. जिस पर गंगाराम कहता है कि हम जियेंगे तो बाकी लोग मार जाएंगे. किसी ने कहा है कि ट्रैजिक से ट्रैजिक सिचुएशन में भी आपको ह्यूमर के निशान मिल जाएंगे. ये बात फिल्म देखते हुए कई बार याद आई.

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सयानी गुप्ता का किरदार नियरली हर दूसरे सीन में सिर्फ गुस्सा ही कर रहा होता है.  

जैसा मैंने पहले कहा कि फिल्म मतभेद में समानता ढूंढना चाहती है. लेकिन कुछ जगहों पर इसी बात को कॉन्ट्रेडिक्ट करती भी दिखती है. यही इसे ऐब्सर्ड या अज़ीब बनाता है. फिल्म भी अपनी इस ऐब्सर्डनेस को लेकर अवेयर है. आप मैन वर्सेज़ नेचर का कन्फ्लिक्ट एक्सप्लोर करना चाहते हैं, शहरीकरण का दुष्प्रभाव दिखाना चाहते हैं, अच्छी बात है. लेकिन समस्या ये है कि फिल्म अपनी इन थीम्स से आपको कुछ महसूस नहीं करवा पाती. मतलब सब सतही लगता है. दो घंटे की फिल्म में इतना सब कुछ दिखाने के चक्कर में फिल्म फैल जाती है. इफेक्टिव नहीं बन पाती. गंगाराम शेर का शिकार बनने को आतुर क्यों है, वो ऐसा किन अनुभवों के आधार पर बना. ये सब आपको दिखता नहीं, बस बातों-बातों में बता दिया जाता है.      

ऐसा लगता है कि फिल्म पेपर से स्क्रीन तक के सफर में इधर-उधर निकल गई. और ऐसे में एक्टिंग भी हेल्प नहीं कर पाती. फिर चाहे वो गंगाराम बने पंकज त्रिपाठी हों. जो पूरी फिल्म में एक किस्म का भोलापन रखते हैं. ऐसा आदमी जो कुछ नया सुन लेता है तो आंखें बड़ी कर लेता है. सामने वाले को अपनी बात समझाने के लिए बार-बार गर्दन घुमाता है. उसकी इनोसेंस सिर्फ उसकी नहीं, बल्कि उन सभी लोगों की इनोसेंस का प्रतीक है जो शहर और वहां की तेज़ दुनिया और लोगों से कटे हुए हैं. पंकज त्रिपाठी शाइन करते हैं. बस फिल्म की राइटिंग से उनके साथ पूरा जस्टिस नहीं कर पाती.

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फिल्म इंसान और नेचर का रिश्ता एक्सप्लोर करना चाहती है.  

ऐसा ही सयानी गुप्ता और नीरज काबी के किरदारों के लिए भी कहा जा सकता है. सयानी ने फिल्म में गंगाराम की पत्नी का रोल निभाया है. जो नियरली हर दूसरे सीन में बोलती कम है और चिल्लाती ज़्यादा है. वहीं, नीरज काबी का किरदार बोलता है. लेकिन बिल्कुल शायर और कवियों की तरह. उसके किरदार की इन योर फेस अप्रोच काम नहीं कर पाती.

‘शेरदिल: द पीलीभीत सागा’ कोई बुरी फिल्म नहीं. ये अपनी इंटेंशन में एक नेक कहानी लगती है. लेकिन इंटेंशन से एग्ज़ीक्यूशन तक आते-आते मामला गड़बड़ा जाता है. चीज़ें अपनी गहराई खो देती हैं. बाकी फिल्म देखिए, ताकि आप अपने आब्ज़र्वेशन के साथ सिनेमाघर से बाहर आ सकें.