मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए...

आज इस कड़ी में जो फिल्म हमने चुनी है वो है डायरेक्टर संदीप मोदी की 'चुंबक'.
जैसा कि हम पहले भी कई बार कह चुके हैं, मराठी सिनेमा सबसे ज़्यादा अगर किसी चीज़ पर ध्यान देता है तो वो है कहानी. एक सुंदर सी कहानी को, प्रभावी अभिनय का जोड़ देकर, कलात्मक ढंग से परदे पर उतारने की विधा में, मास्टरी हासिल है मराठी फिल्मकारों को. इसी शानदार कड़ी की अगली फिल्म है 'चुंबक'.

पोस्टर.
एक लड़का है. भालचंद्र शेवाळे उर्फ़ बाळू. मुंबई के एक रेस्टोरेंट में वेटर का काम करता है. उसका एक छोटा सा सपना है. उसे अपने गांव के बस स्टैंड पर एक गन्ने के जूस की दुकान खोलनी है. लोकल MLA के जहूरे से अब शहर जाने वाली सारी बसें उस बस स्टैंड से होकर गुज़रने वाली हैं. ज़ाहिर सी बात है बढ़िया कमाई रहेगी. अड़चन बस एक है. सोलह हज़ार रुपए चाहिए. बाळू के पास तो आधे भी नहीं. ऐसे में उसका साबका कुछ ही दिन में पैसे डबल करने वाली फ्रॉडबाज़ी से पड़ता है.
ज़ाहिर सी बात है डबल तो क्या होते, अपने पल्ले के भी चले जाते हैं. अब? अब वही, जो इस दुनिया की समझ में आए. लूट में यकीन रखने वाली दुनिया को लूटना. बाळू का दोस्त धनंजय उर्फ़ डिस्को उसे एक ऐसी स्कीम बताता है, जिससे उसकी फ्रॉड में शिरकत तो होगी, लेकिन इस बार वो पीड़ित नहीं होगा. बल्कि उसकी अंटी में माल आएगा. ज़माने से खार खाया बाळू अपने सपने तक ले जाने वाली इस राह पर बेझिझक चल पड़ता है.

फ्रॉड वाला कॉल करता बाळू.
स्कीम सिंपल है. सैकड़ों लोगों को एसएमएस भेजने हैं कि उन्हें एक करोड़ की लॉटरी लगी है. जवाब देने वाले को कॉल करके कह दो कि इनाम पाने के लिए 20 हज़ार हमारे अकाउंट में जमा कर दो. इतने सारे लोगों में दो चार तो लल्लू निकल ही आएंगे.
उनका पहला और इकलौता शिकार है प्रसन्न ठोंबरे. एक चालीस-बयालीस साल की उम्र का आदमी. जिसकी एक झलक देखने भर से पता लग जाता है कि अगले के साथ कुछ दिक्कत है. थोड़ा सा बालिश, थोड़ा सा जिद्दी और बहुत सा भोला.
प्रसन्न के पास से हाथ लगते हैं आठ हज़ार दो सौ बीस रुपए और एकं सोने की चेन. प्रसन्न से माल बटोरकर, उसे RBI की बिल्डिंग के आगे खड़ा छोड़कर दोनों फरार हो जाते हैं. अब बाळू के पास पर्याप्त रकम है. उसका सपना हकीकत बनने ही वाला है. लेकिन तभी अंतरात्मा नाम की, आज के ज़माने में अप्रासंगिक हो चुकी, चीज़ का उसपर हमला होता है और वो आधे रास्ते से लौट आता है. आप समझ रहे होंगे कि ये हैप्पी एंडिंग है. नहीं, असल फिल्म तो यहीं से शुरू होती है.

फ्रॉड में शामिल दोनों दोस्त.
अब तक जो बताया वो फिल्म के पहले आधे घंटे की कहानी है. सफ़र तो बाळू के लौटने के बाद शुरू होता है. इस सफ़र में दर्शकों के क्या कुछ हाथ नहीं लगता! बाळू की अंदरूनी जंग. अंदर के लालच से लड़ने की जद्दोजहद. प्रसन्न की बीवी को ब्लैकमेल करते वक़्त ज़हन पे हावी बुराई भी. डिस्को की चालाकियां और दुनियादारी. साथ ही हर हाल में दोस्त के काम आने का जज़्बा. प्रसन्न की मासूमियत. हर एक पर तुरंत भरोसा कर लेने जितना भोलापन. और ज़िंदगी को लेकर क्लियर फंडा.
एक बेहद प्रसिद्ध कथन है, "आंख के बदले आंख का क़ानून पूरी दुनिया को अंधा बना देगा." इस फिल्म में एक जगह प्रसन्न को उसकी चोरी चली गई चेन के बदले दूसरी चेन चुराने को कहा जाता है. प्रसन्न का जवाब होता है, "एक चोरी के बदले दूसरी चोरी करना, एक दिन पूरी दुनिया को चोर बना के रख देगा." जिस सुंदरता से ये बात बोली है प्रसन्न ने, आपके चेहरे पर एक चौड़ी मुस्कान उभर आती है.

प्रसन्न ठोंबरे.
फिल्म में मुख्य रूप से सिर्फ तीन लोग हैं. और सबकी एक्टिंग आला दर्जे की है. बाळू के रोल में साहिल जाधव पूरी ज़िम्मेदारी से अपना काम करते हैं. अपने सपने को पूरा करने के लिए दृढप्रतिज्ञ एक किशोर, जिसके अंदर अच्छाई-बुराई को लेकर लगातार द्वंद्व भी चल रहा है. साहिल ने इस किरदार को बहुत उम्दा ढंग से पोट्रे किया है.
यही बात संग्राम देसाई के लिए भी कही जा सकती है. बाळू का दोस्त डिस्को उन्होंने बेहद ईमानदारी से निभाया है. एक ऐसा युवक, जिसके अंदर करुणा तो है लेकिन जो दुनियादारी भी समझता है. इन दोनों को देखकर लगता ही नहीं कि ये नए कलाकार हैं. बेहद सफाई से अपना काम किया है इन्होंने.

दोनों की पहली फिल्म है.
अब बचते हैं हमारे प्रसन्न ठोंबरे साहब. स्टार अट्रैक्शन. गीत लिखने, गाने-गुनगुनाने में मशगूल रहने वाले स्वानंद किरकिरे ने कैमरे के सामने कहर ढा दिया है. एक डिफरेंटली एबल्ड शख्स की देहबोली उन्होंने बड़ी कुशलता से पहनी-ओढ़ी है. उनका अटक-अटक कर संवाद बोलना, शून्य में टिकी नज़रें और कंपकंपाता शरीर सब कुछ एकदम बिलिवेबल है. इस रोल के लिए अभिनय कुशलता के साथ-साथ एक संवेदनशील मन का होना भी ज़रूरी था. लगता है स्वानंद के पास है ऐसा मन. होगा ही. आख़िरकार स्वानंद ने ही तो वो मास्टरपीस गीत लिखा था.
रात हमारी तो चांद की सहेली है कितने दिनों के बाद आई ये अकेली हैयही संवेदनशीलता उनके अभिनय में भी उतर आई है. ख़ास बात ये कि वो कहीं से भी ओवर करते नहीं नज़र आते. बिल्कुल नपा-तुला, सधा हुआ अभिनय. चाहे फिर अपनी गायब चेन के लिए छटपटाहट व्यक्त करनी हो, या बाळू से हासिल धोखे की वेदना दिखानी हो. सब कुछ वो बेहद सहजता से कर जाते हैं. कोई हैरानी की बात नहीं होगी अगर इस साल मराठी सिनेमा के सालाना अवॉर्ड्स में स्वानंद किरकिरे का नाम गूंजता रहे.

स्वानंद ने शानदार एक्टिंग की है.
ये फिल्म वाकई चुंबक है. खुद से चिपका लेती है. इसे बेहद ख़ूबसूरती से लिखा गया है. इस कहानी में न कोई पूरी तरह से हीरो है, न मुकम्मल विलेन. सबके अपने-अपने गुण-दोष हैं. और इसी वजह से ये कहानी बेहद अपीलिंग लगती है. इसकी सिंप्लिसिटी के लिए राइटर सौरभ भावे और डायरेक्टर संदीप मोदी की जितनी तारीफ़ की जाए कम है. फिल्म बहुत से फेस्टिवल्स में सराही जा चुकी है.
फिल्म का क्लाइमेक्स शब्दों द्वारा कोई शिक्षा देने के चक्कर में नहीं पड़ता. जो परदे पर दिख रहा होता है, वो काफी होता है.
आप इस संतुष्टि के साथ घर लौटते हैं कि आपने एक अच्छी फिल्म देख ली है. और हां, अंत में प्रसन्न के साथ साथ दर्शकों का भी अच्छाई पर भरोसा लौट आता है. यही इस फिल्म की कमाई है.
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