इसी लाइन से शुरू होती है अजय देवगन की फिल्म 'रेड'. ये लाइन कौटिल्य के लिखे 'अर्थशास्त्र' से ली गई है. इसका मतलब होता है - फाइनैंस ही किसी स्टेट के लिए सबसे जरूरी चीज़ है. उसकी सेना से भी ज़्यादा जरूरी. इसीलिए अजय देवगन का किरदार यानी कि अमय पटनायक फिल्म में कई बार ये कहता हुआ सुना जा सकता है कि राजा जी से ज़्यादा जरूरी है उनका खजाना.कोष मूलो दंडः

इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के लोगो पर लिखी उनकी टैगलाइन कोष मूलो दंड:.
मतलब पिक्चर शुरू हो चुकी है. साल है 1981. अमय पटनायक सात साल की नौकरी में अपना 49वां ट्रांसफर पाकर पहुंचते हैं लखनऊ. यहां उन्हें मिलते हैं रामेश्वर सिंह/बाबूजी/ताऊजी/राजाजी (सौरभ शुक्ला). चार बार के सांसद और अपने इलाके के सबसे धाकड़ आदमी. अमय को एक मुखबिर से खबर मिलती है कि इनके घर में 420 करोड़ रुपए का काला धन छुपा हुआ है. अमय ठहरे ईमानदार आदमी. इतने कि पार्टियों में भी अपना खुद का बूज़ लेकर पहुंचते हैं. कहते हैं, 'मैं वही पीता हूं, जो खरीद सकूं.' डायरेक्टर राजकुमार गुप्ता अपने हीरो के इसी कैरेक्टर को एस्टैब्लिश करने में फिल्म को तकरीबन हाफ टाइम तक खींचते हैं. कहने का मतलब इंटरवल तक फिल्म बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ती है. असली फिल्म शुरू होती है रामेश्वर सिंह के घर में पड़ने वाले छापे के साथ.
जब छापा पड़ने वाली बात रामेश्वर सिंह को पता चलती है तो वे कहते हैं - उनको आज तक कोई सरकारी अफसर मच्छर मारने नहीं आया, ये रेड मारने आए है. तो भइया रेड शुरू होती है और फिल्म के खत्म होने से दो मिनट पहले खत्म होती है. क्योंकि ये फिल्म बनी है भारतीय इतिहास की सबसे लंबी इनकम टैक्स रेड पर. ये रेड लगातार तीन दिन चलती है और बहुत सारा माल-असबाब बरामद होता है. एक्सपेक्टेड अमाउंट के आस-पास. फिल्म के ट्रेलर या शुरुआत में ऐसा दिखाया जाता कि सौरभ शुक्ला इस फिल्म के विलेन हैं. लेकिन जैसे-जैसे कहानी (रेड) आगे बढ़ती है, तो किस्सा कुछ और ही निकलता है.
फिल्म के हीरो अजय देवगन हैं. सबको पहले से पता है कि वो क्या करने वाले हैं. और भरोसा है कि वो कर लेंगे. बावजूद इसके आप आखिर तक बैठे रहते हैं सौरभ शुक्ला के लिए. ये जानने के लिए कि ये पैसा अगर सौरभ शुक्ला का नहीं है, तो किसका है. अमय को इसकी इतनी सटीक जानकारी कौन और क्यों दे रहा है. इससे पहले अगर किसी रेड पर बेस्ड फिल्म को याद करें तो 'स्पेशल 26' याद आती है. वो फिल्म परफेक्ट थ्रिलर थी. 'रेड' उतना थ्रिल तो पैदा नहीं कर पाती, लेकिन मजेदार लगती है. और इसे मजेदार बनाता है सौरभ शुक्ला का कैरेक्टर. फिल्म देखते वक्त आप उनके स्क्रीन पर आने का वेट करते रहते हैं.

फिल्म के एक सीन में सौरभ शुक्ला.
अजय देवगन ने बहुत सी फिल्मों में ईमानदार ऑफिसर का रोल किया है. इस फिल्म में भी उनके अलग करने के लिए कुछ था नहीं. सीधी भाषा में कहें तो फिल्म के हीरो हैं सौरभ शुक्ला. और आप उन्हीं के लिए पूरी पिक्चर देखते हैं. उनका कैरेक्टर थोड़ा निगेटिव शेड लिए हुए है लेकिन निगेटिव नहीं है. मतलब फिल्म में कोई विलेन नहीं है. आप अजय देवगन के साइड पर तो फिल्म देखने से पहले ही थे. बढ़ती कहानी के साथ आप इस जद्दोजहद में लग जाते हैं, अब किसकी साइड हुआ जाए.

फिल्म के एक सीन में अजय देवगन और सौरभ शुक्ला.
ये फिल्म सीरियस होते हुए भी बहुत फनी है. ये पन जबरदस्ती नहीं, बिल्कुल सिचुएशनल है. फिल्म में एक और कैरेक्टर है जिससे आपको बहुत उम्मीद लगी रहती है लेकिन उसके करने के लिए कुछ खास था नहीं. अमित सियाल. अमित ने इसमें लल्लन नाम के एक इनकम टैक्स ऑफिसर का रोल किया है, जो बिलकुल भ्रष्ट है. उनका रोल फिल्म में बहुत अचानक खत्म हो जाता है. जो खलता है. लेकिन उसको बाबूजी कवर कर लेते हैं.

फिल्म के एक सीन में अमित सियाल.
फिल्म के कुछ सीन बहुत मजेदार हैं. जैसे बाबूजी और लल्लन के बीच एक सीन है. लल्लन रेड के दौरान गुसलखाने की तलाशी ले रहा होता है, तभी रामेश्वर सिंह वहां आ जाते हैं. बेचारे लल्लन को 'काटो तो खून नहीं' वाला माहौल बन जाता है. वो मिन्नतें करने लगता है कि उसकी कोई गलती नहीं. बाबूजी सुन लेते हैं लेकिन वो रुकने को तैयार ही नहीं है. तब बाबूजी कहते हैं, 'तुम्हारी पुकार तो हमने सुन ली. अब प्रकृति की पुकार भी सुन लें.' इसके बाद वो वॉशरूम में चले जाते हैं. ये सीन बहुत गज़ब का है.हमारे यहां के डायरेक्टर बातों से चाहे जितने फेमिनिस्ट बन लें, महिलाओं का चित्रण नहीं बदलते. फिल्म में इलियाना का रोल बस अमय की बीवी का है. जो अगर न भी होता, तो फिल्म को कोई फर्क नहीं पड़ता. वो वैसे भी बस खाना खिलाने और जबरदस्ती वाले रोमैंस के लिए हैं. बाकी कैरेक्टर्स में रामेश्वर सिंह की मां बनी पुष्पा देवी भी सही हैं. एक कैरेक्टर है तारा. फिल्म की शुरुआत में तो वो बस एक नॉर्मल कैरेक्टर लगती है. लेकिन बाद में आपको उस पर क्रश हो जाता है और फिर पता चलता है कि ये जो सारा कुछ हो रहा है उससे तारा का बड़ा कनेक्शन है. फिल्म में एक और कैरेक्टर है, जिसके बारे में आपको फिल्म देखते वक्त ही पता चले तो अच्छा है. नहीं तो सारा मज़ा स्पॉयल हो जाएगा.

फिल्म के एक सीन में हाथ में खाने का डब्बा पकड़े हुए और दूसरी ओर अजय देवगन के साथ रोमैंस करती फिल्म में उनकी पत्नी बनी इलियाना डिक्रूज़.
फिल्म थोड़ी और चुस्त हो सकती थी, अगर अमय की ईमानदारी को साबित करने के लिए इतना टाइम नहीं लिया जाता. फिल्म का क्लाइमैक्स के तुरंत बाद खत्म हो जाना या फिल्म के एंड में क्लाइमैक्स का आना, ये हमने राजकुमार गुप्ता की पिछली फिल्म 'घनचक्कर' में भी देखा था. मतलब फिल्म सस्पेंस खुलते ही खत्म हो जाती है. क्योंकि उस पॉइंट के बाद आप खुद सबकुछ समझ जाते हैं, बताने की जरूरत नहीं पड़ती. फिल्म के डायलॉग्स बहुत ही ज़्यादा मजेदार हैं. वो ज़्यादातर सौरभ शुक्ला और अमित सियाल के ही हिस्से में हैं.
फिल्म में सिर्फ चार गाने हैं. जिसमें से दो बेहद खूबसूरत पुराने गीतों को नए कानफोड़ू म्यूज़िक के साथ परोसा जाता है. ये प्रयोग ठीक-ठाक सा लगता है. इन दोनों ही गानों का क्रेडिट तनिष्क बागची को जाता है. बाकी फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और म्यूज़िक दोनों ही अमित त्रिवेदी ने किया है. रेड के दौरान बैकग्राउंड में चलता सुखविंदर सिंह की आवाज़ में चलता 'ब्लैक' गाना सबसे मीनिंगफुल है और सुनने में भी अच्छा लगता है. अगर अजय देवगन आपको पसंद हैं, तो उनके लिए फिल्म देखने बिलकुल मत जाइए. क्योंकि पिछले काफी समय से अजय एंग्री अधेड़ मैन बनते रहे हैं. इसमें भी कुछ अलग नहीं हैं. हां, फिल्में पसंद हैं तो एक बार चले जाइए. निराश नहीं होंगे.
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