लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का. रत्ना शाह पाठक, कोंकणा सेन शर्मा, अहाना कुमरा और प्लाबिता बोरठाकुर की फ़िल्म. डायरेक्ट किया है अलंकृता श्रीवास्तव ने. चार लड़कियों की कहानी. इन लड़कियों में एक कॉलेज जाते हुए अपने बाप की गुलामी करती है, एक अपने पति की गुलामी करती है, एक दुनिया को गुलाम बनाना चाहती है और चौथी, अधेड़ उम्र की औरत, पानी में बहना चाहती है (एक मर्द के साथ). इन चार मादाओं की कहानी. लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का. बुर्का यानी कपड़े की कतरनों को जोड़कर बनाया गया वो लबादा जो औरत के टन को ऊपर से नीचे तक ढक कर रखता है. आंखें इसलिए खुली छोड़ दी जाती हैं कि कहीं राह चलते किसी गैर-जनाना से न टकरा जाए. वरना वो भी बंद ही कर दी जातीं. उस बुर्के के नीचे एक औरत नहीं, एक अलग दुनिया चल रही होती है. ये बात अगर अप नहीं जानते तो ये फ़िल्म देखकर ज़रूर जान जायेंगे. ये ऐसा है जैसे किताब के कवर पर मैथ्स का स्टीकर लगा हो और अन्दर बायोलॉजी की किताब हो. या फिर वैसा जैसा फ़िल्म में रत्ना पाठक शाह यानी उषा 'श्लील' किताब के अन्दर 'अश्लील' किताब रखकर पढ़ रही थी. वैसे ही जैसे रेहाना के कमरे की दीवार पर लगे पोस्टर पर लिखा था 'Education is the key to success' लेकिन दरवाज़ा बंद हो जाने के बाद उसे पलट कर माइली सायरस का पोस्टर कर लेती थी. वैसे ही जैसे उसके बुर्के के नीचे घुटने पर फाड़ी हुई जींस और 'नाइस ड्रेस' बुलवाने वाले टॉप होते थे. इन लड़कियों के चारों तरफ़ बुर्के ही बुर्के थे. इन बुर्कों से उन्हीं आज़ादी पानी थी और उसके नीचे लगी लिप्स्टिक दुनिया को दिखानी थी. बल्कि दिखानी भी नहीं थी, बस उन लिप्स्टिक लगे होठों को उसी हवा का एक्सपोज़र दिलाना था जो हवा बाकी सभी के नथुने में घुस रही थी.
बेहतरीन फ़िल्म. 'लिप्स्टिक अंडर बुर्का' वही फ़िल्म है जिससे सेंसर बोर्ड को खतरा महसूस हो रहा था. कह रहे थे कि ये फ़िल्म कुछ ज़्यादा ही 'विमेन सेंट्रिक' है. फ़िल्म देखने पर मालूम चलता है कि क्यूं सेंसर बोर्ड को चिरी फटी का मनी ऑर्डर आया था. लड़कियों पर बनी फ़िल्म. जिसमें लड़कियां अपनी मर्ज़ी से सब कुछ कर रही हैं. वो अपने पति को ज़लील करती हैं, वो अपनी मर्ज़ी के बगैर हो रही शादी से इनकार करती हैं, वो विधवा होने के बाद अपनी सेक्स की ज़रुरत को किसी के साथ फ़ोन पर पूरा करती हैं और उसके बाद उसे असल ज़िन्दगी में भी उतारना चाहती हैं, वो सिगरेट पीती दिख रही हैं, वो अपनी मर्ज़ी से अपनी सगाई के फंक्शन के दौरान टाइम निकाल के अपने बॉयफ्रेंड के साथ सेक्स कर रही होती हैं, वो अपने उस पति के लिए कंडोम खरीदने जाती है जिसे कंडोम का इस्तेमाल बकवास लगता है, वो अपने पति की इजाज़त के बगैर नौकरी कर रही होती है. ऐसी लड़कियों को एक साथ, एक जगह देखकर सेंसर बोर्ड की बौखलाहट कोई बड़ी बात नहीं है. सेंसर बोर्ड को असल में फ़िल्मी पार्टी सॉंग्स में शो-पीस बनी लड़कियों की आदत है जिनके गर्म वालपेपर मोबाइल पर खूब डाउनलोड किये जाते हैं.
रत्ना पाठक शाह से आप प्यार करने लगेंगे. 'साराभाई वर्सेज़ साराभाई' की माया के जैसे ही ये रोल रत्ना पाठक शाह के साथ रहेगा. 'डेथ इन अ गंज' के साथ कुछ ही वक़्त पहले डायरेक्टोरियल डेब्यू करने वाली कोंकणा सेन शर्मा के लिए इज्ज़त और बढ़ जाती है. फ़ीमेल ऐक्टर्स में कोंकणा बाकी नामों से मीलों आगे हैं. ओमकारा की बहन, सिड की साथी राइटर, डायन, मिसेज़ तलवार, सभी रोल दिमाग में घुस के बैठे हुए हैं. कोंकणा फ़िल्म-दर-फ़िल्म अपने आप को बीस साबित करती जा रही हैं. इनके अलावा अहाना कुमरा और असम से आईं प्लाबिता ने अपने हिस्से की क्रांतियां की हैं. अहाना को पैसे कमाने हैं, उसके पास कई प्लान्स हैं और उसमें साथ है उसका बॉयफ्रेंड. वहीं प्लाबिता अपने कट्टरपंथी मुस्लिम परिवार से लड़ रही है. वो बुर्के सिलती है, कमरे में पड़ी रहती है, अपना सब कुछ अपने परिवार से छुपाती है. गाना चाहती है, माइली सायरस से इंस्पायर्ड है.

फ़िल्म में एकमात्र आज़ादी ही वो मुद्दा नहीं है जिसके बारे में बात की गई है. इसके अलावा और भी बहुत सी चीज़ें हैं जिनपर ध्यान खींचा गया है. पति की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ बाहर नौकरी कर रही कोंकणा सेन शर्मा यानी शीरीन प्रेग्नेंसी और अबॉर्शन से परेशान है. वो चाहती है कि पति कंडोम इस्तेमाल करे लेकिन हाय ये 'मेल ईगो!'. मैरिटल रेप का भयानक चेहरा इस फ़िल्म में देखने को मिलता है. आप शीरीन का दर्द देख रहे होते हैं और उसी वक़्त ये भी सोच रहे होते हैं कि जिस तरह के समाज में हम आज रह रहे हैं, कितनी ही औरतें रोज़ाना ये झेला करती होंगी. और इसी जगह पर ये फ़िल्म अपने होने को जस्टिफाई कर जाती है. फ़िल्म के लिए अलंकृता श्रीवास्तव को खूब सारा थैंक यू कहा जाना चाहिए. इस बात के लिए भी कि उन्होंने अपनी लड़ाई बीच में नहीं छोड़ी और सेंसर बोर्ड को अपनी मनमानी नहीं करने दी. फ़िल्म रिलीज़ करवाई. पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई जग्गा जासूस के बाद लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का के फॉर्म में एक और कमाल की फ़िल्म आई है. ये एक बेहद नई तरह की फ़िल्म है और ये नयापन आते रहना चाहिए. साथ ही इस फ़िल्म को देखने के बाद आप अपने साथ खूब सारी बातें लेकर जाते हैं जिनके बारे में आप बैठ कर कितना ही सोच सकते हैं. उन बातों के बारे में सोचना भी चाहिए. ये फ़िल्म आपकी बुद्धि खोलेगी. ये फ़िल्म आपको इंसान बना सकती है. ऐसी फिल्मों के टिकट खरीदते वक़्त उनपर 'अडल्ट' का ठप्पा नहीं बल्कि इन्हें सिलेबस में शामिल करवा दिया जाना चाहिए.
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