आगे बढ़ने से पहले. फिल्म के बारे में.
दुर्गामती – एक मिथ.
मुख्य किरदार- भूमि पेडनेकर. जीशु सेनगुप्ता. अरशद वारसी. माही गिल. लिखा है जी अशोक और रविंदर रंधावा ने. डायरेक्ट करने वाले हैं जी अशोक जिन्होंने पहले इसी स्टोरी के साथ तमिल-तेलुगु में बनी फिल्म 'भागमती' डायरेक्ट की थी. 'दुर्गामती' उसी फिल्म की रीमेक है.

कहानी क्या है?
देश के प्राचीन मंदिरों से मूर्तियां गायब हो रही हैं. शक है कि उन्हें देश से कहीं बाहर लेजाकर बेचा जा रहा है. इसी मामले में CBI एक कथित करप्ट नेता को पकड़ने की कोशिश में है. लेकिन ये नेता मानो जल की मछली. हाथ से फिसल- फिसल जाए. क्योंकि उसका कैरेक्टर इतना चकाचक है कि गुलज़ार साहब की भाषा में उसे ‘सुफैद’ कहा जाएगा. किरदार का नाम है ईश्वर प्रसाद. निभा रहे हैं अरशद वारसी. इसी नेता पर शिकंजा कसने के लिए फंदा डाला जाता है एक IAS ऑफिसर पर, जो उसकी सेक्रेटरी रह चुकी है. दस साल तक. भूमि पेडनेकर वही IAS ऑफिसर चंचल चौहान बनी हैं इस फिल्म में. CBI उसे इन्टेरोगेट करने के लिए ले जाती है एक सुनसान हवेली में. क्यों? मत पूछिए.
वो सुनसान हवेली एक समय में किसी रानी दुर्गामती की हुआ करती थी. फिल्म की शुरुआत में कहानी बताई जाती है कि इस रानी को उसके दुश्मनों ने मार डाला था. अब उसकी आत्मा वहां भटकती है. इसलिए रानी की उस हवेली में कोई आता-जाता नहीं.
(लेकिन फॉर सम रीजन उस हवेली के पुरातन ड्रेसिंग टेबल पर आजकल मिलने वाले टेल्कम पाउडर और नारियल तेल रखे होते हैं. क्यों? मत पूछिए)

तो लब्बोलुआब ये कि CBI की टीम (जिसकी जॉइंट डायरेक्टर शताक्षी गांगुली का किरदार माही गिल निभा रही हैं) उस हवेली के बाहर पूरा तामझाम सेट करती है. और उसके भीतर चंचल चौहान को रख देती है. उससे पूछताछ करने के लिए. कि भई राज उगलो नेता के बारे में. अब उस हवेली के भीतर रहकर चंचल के भीतर दुर्गामती की आत्मा आ जाती है. क्यों? ये आप पूछ सकते हैं. वो ये क्योंकि फिल्म में एक और एक्टर को जगह देनी थी. जो है इसका म्यूजिक स्कोर. इस पर आगे बात करेंगे.
अंत तक आते-आते फिल्म सोशियो-पॉलिटिकल कमेंट्री बन जाती है. जो किताबों से लेकर बड़े परदे पर सैकड़ों बार दिखाई जा चुकी है.
तो फिल्म में है क्या?
ये हिस्सा लिखते हुए मैं चाय का चौथा कप पी रही हूं. इसलिए थोड़ा और अटेंशन देते हैं डीटेल में. कहानी बेहद फैली हुई है. अगर इस फिल्म से एक घंटा कम भी कर दिया जाता, तो भी किसी दर्शक के लिए ये फिल्म पूरी निपटाना मुश्किल था, ऐसा बेझिझक कहा जा सकता है. इसी बात पर फिल्म के एडिटर उन्नीकृष्णन पी पी जी को मेरी तरफ से एक कप चाय. #NoHardFeelings.
हॉरर फिल्म के नाम पर मार्केट की गई इस कहानी में हॉरर के वही एलिमेंट हैं जो आज से 30 साल पहले रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में होते थे. बेचारी भूमि पेडनेकर इस फिल्म में जितना चिल्लाई हैं, उस हिसाब से उनका गला हफ्ते भर के लिए तो बैठा ही होगा. मेरी तरफ से चाय का ऑफर उनको भी.

बाकी के किरदार भी वैसे ही आधे-अधूरे से लिखे हुए लगते हैं. असल में पंजाबी माही गिल को बंगाली दिखाने के चक्कर में उनसे जो टूटी-फूटी बांग्ला बुलवाई गई है एक्सेंट के साथ, वो बेहद अननैचुरल लगती है. एक डायलॉग वो फिल्म के बिलकुल शुरुआत में बोलती हैं – आई डोंट लाइक नेगेटिविटी. फिर फिल्म में वो इसे एक बार और दुहराती हैं. क्यों? मत पूछिए. हमने तो फिल्म के शुरूआती पंद्रह मिनटों में ही लॉजिक नाम के शब्द को तिलांजलि दे दी थी.

फिल्म की सबसे बड़ी कमी ये लगती है कि हर सीन के दौरान दर्शक को ये अहसास कराया जाता है कि उसे डरना है. अगर परदे पर मौजूद हीरोइन के चीखने से नहीं, तो दरवाजे के चूं-चूं करने से, उससे नहीं तो बिना किसी जरूरत के धड़ाम-भड़ाम की आवाजों से. मतलब दर्शक को डर ना भी लगे, तो म्यूजिक स्कोर से उसे ये याद दिलाया जाता है,
-तू डरा हुआ है. तुझे मालूम नहीं है लेकिन तू है.

इसीलिए फिल्म में एक एक्टर और होने की बात कही गई है. जी, वही म्यूजिक स्कोर.
हंसाने के लिए जिन एलिमेंट्स को रखा गया है, वो दर्शक को ऐसा महसूस कराते हैं मानो छोटे से बच्चे को बिठा कर ‘झां-झां’ खिलाया जा रहा हो और वो मुस्की मार रहा हो. ‘इन योर फेस’ वाला अप्रोच धड़ल्ले से अपनाया गया है. चाहे वो अच्छाई हो. बुराई हो. कॉमेडी हो. ट्रेजेडी हो. जो बुरा है वो बहुत ही बुरा है. जो अच्छा है, वो बहुत ही अच्छा है. जोकि असल जिंदगी में होता नहीं है. इसलिए, वो क्या कहते हैं उसको, 'सस्पेंशन ऑफ डिस्बिलीफ़’ बहुत मुश्किल हो जाता है इस फिल्म को देखते हुए. और ये फिल्म हॉलीवुड की हिट फिल्म 'द यूजुअल सस्पेक्ट्स' से एक बहुत बड़ा एलिमेंट उठाती है. और जैसे का तैसा चेप देती है.
अंत में जब फिल्म भाषण देने वाले मोड में आती है, तब तक देखने वाला ऐसा थक चुका होता है गोया किसी स्टूडेंट को स्कूल के एनुअल फंक्शन में चीफ गेस्ट के भाषण के लिए जबरदस्ती बिठाया गया हो.
मोरल ऑफ द स्टोरी
हमारे एक वरिष्ठ हैं. हम लोगों से अक्सर कहते हैं, अति किसी भी चीज़ की बुरी होती है. जो सब्सटेंस हो, वो मुख्य चीज हो. उस पर बाकी सभी चीज़ें चांदी का वरक होती हैं. सजावट के लिए, थोड़ी-थोड़ी. दिक्कत ये है कि ये फिल्म पूरी चांदी का वरक है. बिना चाय की अदरक है.
बस इतने से समझ जाइए. अब आगे और लिखेंगे तो एक कप चाय की ज़रूरत और पड़ेगी. क्यों? अब भी आपको पूछना पड़ेगा क्या?