अच्छा सिनेमा वो है, जिसमें जीवन हो और जीवन का तिलिस्म भी. जिसमें वास्तविक दुनिया से दूर रहकर भी, उसके पास होने का एहसास हो. जो रील होकर भी रियल हो. मनोज बाजपेयी तीन दशकों से ऐसे ही सिनेमा को बखूबी साध रहे हैं. उनकी हर फिल्म का कहन दूसरी से जितना जुदा होता है, उतना ही ताज़ा भी. पिछले तीन सालों में उन्होंने ‘गुलमोहर’, ‘जोरम’, और ‘डिस्पैच’ जैसी फिल्मों से इस बात को चरितार्थ भी किया है. ‘जुगनुमा’ भी ऐसी ही एक फिल्म है. तमाम फिल्म फेस्टिवल्स की यात्रा के बाद फाइनली इसे 12 सितंबर को भारत में रिलीज किया गया.
Jugnuma: ऐसा जादू, जो जीवन की जड़ता पर चोट करता है
Manoj Bajpayee की फिल्म 'जुगनुमा' किसी सुंदर-शांत नदी जैसी है, जो पत्थर फेंकने पर भी तरंगित होकर सुंदरता ही वापस करती है.


अब आप सोच रहे होंगे कि इतने दिनों बाद किसी फिल्म के बारे में बात क्यों? क्योंकि ‘जुगनुमा’ पर बात होना ज़रूरी है. इस फिल्म को दूर तक ले जाने की भी ज़रूरत भरपूर है. अगर इसे पढ़कर कोई एक शख्स भी फिल्म देख ले, तो इसे लिखना सफल होगा. ‘जुगनुमा’ देखते हुए मानव कौल डायरेक्टेड एक फिल्म याद आई ‘हंसा’. वो भी ऐसी ही सच्ची फिल्म है. बस उसमें मासूमियत का पुट थोड़ा ज़्यादा है. और वो मिथकीय संभावनाओं से दूर है. यूट्यूब पर मिल जाएगी, देख डालिएगा. फिलहाल हम ‘जुगनुमा’ पर लौटते हैं.
ये सच में सिनेमा का जुगनू ही है. इसमें लाइफ है, मैजिक है, मिथ है और है एक अजीब किस्म का आकर्षण, जो मन मोह लेता है. इसकी कहानी एक पहाड़ी इलाके में, 1989 में घटित होती है. जहां देव एक बहुत बड़े बागान का मालिक है, जो उसके पुरखों को अंग्रेजों से मिला है. कुल मिलाकर वो एक बड़ा ज़मीदार है. अपने परिवार के साथ ब्रिटिश स्टाइल हवेली में रहता है. बसंत के दिन हैं. जीवन सुंदर है. शांत है. तभी अचानक उसके बागान में आग लग जाती है. और ऐसा लगातार होता है. अब आग कैसे लगती है, कौन लगाता है, इसके लिए देखिए फिल्म. और फिल्म देखनी क्यों चाहिए, ये हम बताते हैं.
डायरेक्टर राम रेड्डी ने ‘जुगनुमा’ को बड़े ठहराव के साथ अप्रोच किया है. फिल्म को किसी तरह की कोई जल्दी नहीं है. आसपास जो कुछ हो रहा है, ये आपको महसूस करने देती है. परदे पर दिख रहे रंग आर्टिफ़िशियल नहीं लगते. सब सच्चा लगता है. लेकिन इस सच्चाई में भी एक जादू है, जो वास्तविकता के बीच तारी होता है. ‘जुगनुमा’ में बिना कट्स के लंबे-लंबे टेक्स हैं, जिस वजह से इसकी दुनिया में दाखिल होना आसान हो जाता है. ज़्यादातर मौकों पर बैकग्राउन्ड म्यूजिक के तौर पर आसपास की आवाज़ें हैं. सन्नाटा है. वैसे भी साइलेंस का अपना महत्व होता है, जैसे किसी पेपर पर लिखते वक़्त व्हाइट स्पेस का.

इस तेज़ रफ़्तार दुनिया में ये फिल्म किसी ऊंट की सवारी जैसी है. इस पर सवार होकर आप आसपास की चीजों को उसी रूप में देख सकते हैं, जिस रूप में वो संसार में मौजूद हैं. मसलन ये फिल्म देव की कहानी कहती है, लेकिन उसके इर्दगिर्द की कई कहानियों को आप तक पहुंचने देती है. पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों से भी रूबरू होने का मौका देती है. जैसे तिलोत्तमा शोम के किरदार का फिल्म में सिर्फ एक सीन है. लेकिन वो फिल्म खत्म होने के बाद भी आप के साथ रह जाता है. ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि तिलोत्तमा ने अद्भुत काम किया है. एक जगह मनोज बाजपेयी उनकी तारीफ़ में कहते हैं कि अगर कोई तिलोत्तमा को जानता न हो तो, मजाल है कि वो न मान बैठे कि ये कोई पहाड़ी महिला ही है.
‘जुगनुमा’ में मेन प्लॉट के अलावा एक सबप्लॉट भी है, जो कुछ अलग अर्थ लिए हुए है. एक तरफ़ देव की पत्नी नंदिनी है, जो पितृसत्ता का शिकार है. उसे जब कहा जाता है- खाना बनाओ, वो बनाती है. जब कहा जाता है- गाओ, वो गाती है. जब कहा जाता है- जाओ, वो चली जाती है. दूसरी तरफ़ देव की बेटी वान्या है, जो पितृसत्ता के बंधन को मानती ही नहीं. लेकिन राम रेड्डी ने यहां एक अनकही लकीर खींची है. वान्या पेट्रिआर्की की बेड़ियां ज़रूर तोड़ती है, लेकिन कभी भी कोई सीमा नहीं लांघती. इस वजह से उसका पक्ष फिल्म में कहीं भी कमज़ोर नहीं होता. हीरल सिद्धू ने इस कैरेक्टर के साथ न्याय किया है. और अपना शतप्रतिशत देने की कोशिश की है.
प्रियंका बोस ने देव की वाइफ नंदिनी का किरदार निभाया है. और क्या लाजवाब निभाया है. वो नंदिनी के मन को परदे पर उधेड़ कर रख देती हैं. उसके संकोच और अन्डर-कॉन्फिडेंस की प्रियंका ने अपनी देहबोली के जरिए खूबसूरत नुमाइश की है. देव के मैनेजर के रोल में दीपक डोबरियाल अद्भुत हैं. एक सीन है, जहां मनोज उन्हें छुट्टी लेने के लिए कहते हैं. दीपक उसका मुंह से कोई जवाब नहीं देते. उनकी आंखें सारे उत्तर देती हैं. उन्होंने कमाल काम किया है.

मनोज बाजपेयी के तो क्या कहने! उन्होंने एक्टिंग की ही नहीं है. वो एकदम रियल लगे हैं. पंकज कपूर कहते हैं, अच्छी एक्टिंग वही होती है, जिसमें एक्टिंग न दिखे. मनोज बाजपेयी इन्हीं शब्दों को देव के कैरेक्टर के जरिए सच साबित करते हैं. किसी जमाने में जो काम नसीर और ओम पुरी ने किया था, वैसा ही काम मनोज आज के दौर में कर रहे हैं. उनकी फिल्मों का चुनाव बहुत यूनीक है, और उनकी एक्टिंग किसी मंझे हुए शास्त्रीय गायक सरीखी. वो जब भी चाहता है, अपनी मुरकियों और गले की हरकतों से सबको चौंका देता है. ठीक वैसे ही मनोज बाजपेयी भी अपने अभिनय से चौंकाते रहते हैं. देव के मन की उथल-पुथल उनके चेहरे पर साफ़ झलकती है. एक सीन है, जिसमें पुलिस देव के कुछ कामगारों को पकड़कर ले जा रही होती है. उस समय मनोज ने कुछ अलग ही किया है. वो गाड़ी के अंदर बैठे हैं और जिस तरह से शक के भाव को खुद में ओढ़ते हैं, अप्रतिम है.
खैर, राम रेड्डी ‘जुगनुमा’ को किसी निष्कर्ष तक नहीं ले जाना चाहते. आप खुद अपने निष्कर्ष तक पहुंचिए. किसी अच्छी रचना की पहचान भी यही होती है. इसमें कई परतें होती हैं, जो खुलते-खुलते खुलती हैं. और सबके लिए अलग तरीके से खुलती हैं. ‘जुगनुमा’ देखिए, और हमें बताइए - ये आपके लिए किस तरह से खुली.
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