03 जून को तीन बड़ी फ़िल्में रिलीज़ हुई हैं, ‘सम्राट पृथ्वीराज’, विक्रम’ और ‘मेजर’. आज के रिव्यू में हम ‘मेजर’ पर बात करेंगे. शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन, NSG के 51 स्पेशल एक्शन ग्रुप के ऑफिसर जो 26/11 के मुंबई हमले में शहीद हो गए थे. आतंकी हमले में उनके जज़्बे की कहानियां हमने सुनी हैं. उनके ‘Don’t Come Up, I’ll Handle Them’ वाली बात को सुनकर किसके रौंगटे खड़े नहीं होते. ‘मेजर’ फिल्म शहीद मेजर उन्नीकृष्णन और उनकी ज़िंदगी से इंस्पायर्ड है. मेकर्स उनकी कहानी के साथ कितना इंसाफ कर पाए हैं, अब उस पर बात करेंगे.
मूवी रिव्यू: 'मेजर'
'मेजर' फिल्म, फौजी शब्द का मतलब जानना चाहती है. एक फौजी आम आदमी से अलग क्यों होता है, दूसरों के लिए खुद को आगे करने का हौसला कहां से आता है, इन्हीं पक्षों को एक्सप्लोर करती दिखती है.

फिल्म उस घटना से शुरू होती है, जिसकी वजह से पहली बार हम मेजर संदीप का नाम जान पाए. 26/11 का आतंकी हमला. लेकिन ये सिर्फ उस हमले के इर्द-गिर्द सिमटकर नहीं रह जाती. उससे पहले उनकी ज़िंदगी कैसी थी, वो कैसे इंसान थे, फिल्म ये जानने में इच्छुक दिखती है. हालांकि, इसके लिए क्रिएटिव लिबर्टी का सहारा लिया गया है. मेजर संदीप की लाइफ को फिल्म ने एक शब्द से बांधा है, जो उनके हर एक्शन में नज़र आता है. वो शब्द है जुनून. अपने पेरेंट्स के साथ नेवी डे परेड देखने वाले उस बच्चे में जुनून था. जुनून खुद को नेवी की यूनिफॉर्म में देखने का, जुनून दूसरों की लाइफ बेहतर बनाने का. यही जुनून उसकी ड्राइविंग फोर्स बनती है.
अक्सर क्रांतिकारी और खुले विचारों वाले लोगों के लिए एक बात कही जाती है. या यूं कहें तो जुनून रखने वाले लोगों के लिए, कि वो टूट कर प्यार करते हैं. ‘मेजर’ की कहानी में भी ऐसा ही है. एक लड़की को पसंद किया, उससे बेइंतेहा प्यार किया. उस प्यार को अपनी ताकत बनाया. फिल्म में उनका रोमांस और डिफेंस फोर्स वाली लाइफ दोनों साथ चलते हैं. ऐसा कर के मेकर्स उस NSG ऑफिसर की यूनिफॉर्म के अंदर धड़कते नर्म दिल इंसान को जानना चाहते थे. अपनी इस कोशिश में कामयाब भी होते हैं.
इंडियन आर्मी एक सेंटीमेंट है, जिसे हमारी फिल्में और उनके नायक अक्सर बाजुओं पर पहनकर घूमते हैं. ‘मेजर’ में भी ऐसा आपको दिखेगा. लेकिन ये सिर्फ आर्मी के नाम पर हवाबाज़ी नहीं करना चाहती. फिल्म फौजी शब्द का मतलब जानना चाहती है. एक फौजी आम आदमी से अलग क्यों होता है. वो अलग कैसे बनता है, दूसरों के लिए खुद को आगे करने का हौसला कहां से आता है, फिल्म ये पक्ष एक्सप्लोर करती दिखती है.
डिफेंस फोर्सेज़ को बैकग्राउंड लेकर बनाई गई फिल्मों में एक फकीरी दिखती है, कि वहां चीज़ें ओवर द टॉप जाती हैं. उस केस में ‘मेजर’ अपवाद नहीं है. बस ये फिल्म गैर ज़रूरी चेस्ट थम्पिंग से बचती है. जैसा कि मैंने पहले कहा, फिल्म में ड्रामा ऐड करने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है. ये क्रिएटिव लिबर्टी फिल्म को फायदा भी पहुंचाती है और नुकसान भी. फिल्म का फर्स्ट हाफ आपका अटेंशन खींचकर रखता है. लेकिन ये मोमेंटम सेकंड हाफ में थोड़ा डगमगा जाता है. उसकी वजह है कि ड्रामा ऐड करने के चक्कर में कुछ चीज़ें टिपिकल बन जाती हैं. जिन्हें देखकर लगता है कि ये तो पहले भी फिल्मों में देखा है. ये एक बड़ा रीज़न है कि ‘मेजर’ में मास एंटरटेनर बनने के एलिमेंट्स हैं. फिर भी ये बेस्ट बायोपिक्स की लिस्ट में नहीं आ पाती.
अड्रेनलिन रश जगाने के साथ-साथ ‘मेजर’ आपसे इमोशनल अपील भी करना चाहती है. जहां बात आती है एक्टर्स की एक्टिंग की. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन बने अदिवी सेष एक्शन वाले सीन्स में जंचते हैं. जहां उन्हें भारी-भरकम डायलॉग डिलीवर करने होते. लेकिन इमोशनल सीन्स में उन्हें देखकर लगता है कि भाव पूरी तरह चेहरे पर नहीं आ पा रहे. एक्टिंग फ्रंट पर मेरे लिए फिल्म की हाइलाइट रहीं रेवती, जिन्होंने मेजर संदीप की मां का रोल निभाया. एक सीन है जहां उन्हें बुरी खबर मिलती है, और वो बेसुध होकर टूटने लगती हैं. चीखती हैं, चिल्लाती हैं, लेकिन हमें कुछ सुनाई नहीं पड़ता. डायरेक्टर शशी किरण ने इस सीन में कोई आवाज़ नहीं रखी, जिससे उसका इम्पैक्ट हल्का नहीं पड़ता.
शशी किरण ने बताया था कि ये फिल्म बनाने का आइडिया अदिवी को आया था. जिसके बाद वो मेजर संदीप के पेरेंट्स से मिले, और उनसे पूरी कहानी जानी. शशी बताते हैं कि उन घंटों में जो भी उन्हें पता चला, उसका एसेंस उन्होंने अपनी फिल्म में रखने की कोशिश की है. जिसमें वो एक पॉइंट तक कामयाब भी हुए हैं. ‘मेजर’ आपमें जोश भरती है, कुछ मोमेंट्स पर इमोशनल करती है. बस फिल्म का सेकंड हाफ ही उसकी कमजोरी बनकर उभरता है. बावजूद इसके ‘मेजर’ जो मैसेज आप तक पहुंचाना चाहती है, उसमें सफल होती है. ये फौजी पर बनी बेस्ट फिल्म नहीं, पर पूरी तरह खारिज करने वाला सिनेमा भी नहीं.
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