बतौर डायरेक्टर Kunal Khemmu के करियर की पहली फिल्म आई है. इसका नाम Madgaon Express. 'दिल चाहता है' और 'ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा' में से दिमाग और पैसा निकाल लें, तो वो 'मडगांव एक्सप्रेस' बनेगी. एक दम 'फुकरे' वाले मिजाज की फिल्म. जिसका सिर्फ एक ही मक़सद है- देखने वालों को मज़ा आना चाहिए. और वो आता है. मैं ये नहीं कहूंगा ये फिल्म आपको पूरे टाइम एंटरटेन करती रहती है. मगर वो एंटरटेन करने की कोशिश पूरे टाइम करती है. इसके लिए मेकर्स को पूरे अंक मिलने चाहिए. 'मडगांव एक्सप्रेस' एक दम whacky टाइप कॉमेडी फिल्म है, जिसे देखने के बाद आपको लगता है कि ये बुरी फिल्म तो नहीं है. मगर ये डिसाइड नहीं कर पाते कि ये अच्छी फिल्म या नहीं.
फिल्म रिव्यू- मडगांव एक्सप्रेस
'मडगांव एक्सप्रेस' एक दम whacky टाइप कॉमेडी फिल्म है, जिसे देखने के बाद आपको लगता है कि ये बुरी फिल्म तो नहीं है. मगर ये डिसाइड नहीं कर पाते कि ये अच्छी फिल्म या नहीं!


'मडगांव एक्सप्रेस' की कहानी मुंबई में रहने वाले तीन दोस्तों की है. डोडो, आयुष और प्रतीक, स्कूल के दिनों से ही गोवा जाने के सपने देख रहे हैं. मगर जा नहीं पा रहे. अब ये तीनों लोग बड़े हो चुके हैं. अपना-अपना करियर सेट करने में लगे हुए हैं. ऐसे ही रैंडमली एक दिन गोवा जाने का प्लान बन जाता है. डोडो इस ट्रिप को ऐसे प्लान करता है, जैसे वो लोग स्कूल में प्लान करते थे. कम से कम पैसों में. इसकी शुरुआत होती है मुंबई से गोवा जाने वाली ट्रेन मडगांव एक्सप्रेस के स्लीपर कोच से. ट्रेन पर चढ़ने से पहले प्रतीक का बैग किसी से एक्सचेंज हो जाता है. इसके बाद जो होता है, वो जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.
'मडगांव एक्सप्रेस' उस तरह की फिल्म है, जो आपको बोर होने का वक्त नहीं देती. तेज़ रफ्तार में भागती रहती है. इस फिल्म में कुणाल दो चीज़ें करते हैं. वो, जो उन्होंने एक्टर के तौर पर अपनी फिल्मों में कर रखा है. और वो, जो वो बतौर एक्टर नहीं कर पाए. रिलेटेबेल फिल्म बनाने की कोशिश. जिसमें वो काफी हद तक सफल होते हैं. क्योंकि फिल्म की राइटिंग मज़ेदार है. शार्प है. राइटर्स को पता है कि वो क्या लिख रहे हैं और वो स्क्रीन पर कैसा दिखेगा. हिंदी फिल्मों में गोवा की इमेज बना दी है. जब ये तीनों लड़के गोवा पहुंचते हैं, तो उन्हें लगता है कि गोवा तो वैसा है ही नहीं जैसा फिल्मों में दिखाया गया. मगर अगले ही सीन में 'मडगांव एक्सप्रेस' गोवा की उसी फिल्मी इमेज को आगे बढ़ाती है, जो इमेज पिछले सीन में तोड़ने की कोशिश की गई थी.
'मडगांव एक्सप्रेस' थिएटर्स में कितनी देखी और पसंद की जाएगी, ये तो अभी नहीं कहा जा सकता. मगर इस फिल्म में वो सारे गुण हैं, जो अगले कुछ सालों में इसे अंडररेटेड कॉमेडी फिल्मों की लिस्ट में जगह दिलाएंगे. कंफर्ट फिल्म के तौर पर डेवलप होगी, जिसे आप कहीं से भी चालू करके देख सकते हैं. फिल्म में एक बहुत घिसा हुआ जोक इस्तेमाल हुआ है. जो कि एक सेक्सिस्ट जोक भी है. मगर वो स्क्रीन पर इतने सूक्ष्म तरीके से घटता है कि आप वो सीन खत्म होने के कुछ सेकंड बाद तक भी हंसते रहते हैं. मगर जैसा मैंने पहले ही कहा कि ये वो फिल्म नहीं है, जिसमें आपको दिमाग लगाना है.
'मडगांव एक्सप्रेस' में प्रतीक गांधी, दिव्येंदु और अविनाश तिवारी ने उन तीन दोस्तों के रोल किए हैं. तीनों ही एक्टर्स का काम मज़ेदार है. हमने अविनाश को कॉमेडी करते नहीं देखा है. इसलिए वो एक सरप्राइज़ वाला एलीमेंट ऐड करते हैं. मगर दिव्येंदु और प्रतीक ने रौला काट दिया है. प्रतीक के हिस्से बेसिकली दो कैरेक्टर्स आए हैं. ये वैसी फिल्म नहीं है, जहां आप एक्टर्स के अभिनय की बारीकियों को नोटिस करें. यहां सारा खेल कॉमिक टाइमिंग का था. जो कि ऑन पॉइंट है. इनके अलावा फिल्म में तीन एक्टर्स और हैं. पहले उपेंद्र लिमये, जिन्हें आपने पिछले दिनों 'एनिमल' में देखा. जो रणविजय के लिए बंदूक बनाकर लाता है. उपेंद्र ने फिल्म में मेंडोज़ा नाम के गैंगस्टर का रोल किया है. दूसरी एक्टर हैं छाया कदम, इन्होंने भी गैंगस्टर का रोल किया है. जिसके जीवन का एक ही मक़सद है, मेंडोज़ा से बदला. तीसरी एक्टर हैं नोरा फतेही. और अच्छी बात ये है कि इस बार वो सिर्फ गानों में डांस करने के लिए नहीं हैं. इन सभी एक्टर्स की परफॉरमेंस फिल्म की राइटिंग को कॉम्प्लिमेंट करती है, जिससे ओवरऑल फिल्म का देखने का अनुभव बेहतर हो जाता है.
कुल जमा बात ये है कि 'मडगांव एक्सप्रेस' कोई ऐसी फिल्म नहीं है, जिसे देखने के बाद आप दुनिया को अलग नज़रिए से देखने लगेंगे. या जिसे नहीं देखकर आप आपका कुछ नुकसान हो जाएगा. मगर गारंटी है कि फिल्म को देखने में मज़ा आएगा. हंसते-गुदगुदाते रहेंगे. वैसे तो ये फिल्म आज के यूथ को ध्यान में रखकर बनाई गई है. मगर होली वाला माहौल है, तो फैमिली के साथ भी जाकर देख सकते हैं.
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