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सीरीज़ रिव्यू: कालकूट

इस सीरीज़ को देखते हुए कई मौकों पर गोविंद निहलानी की मज़बूत फिल्म 'अर्धसत्य' याद आती है.

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अरुणाभ कुमार इस सीरीज़ के क्रिएटर हैं.

जियो सिनेमा पर नई सीरीज़ रिलीज़ हुई है. नाम है ‘कालकूट’. मुख्य भूमिकाओं में विजय वर्मा, श्वेता त्रिपाठी शर्मा, गोपाल दत्त और यशपाल शर्मा जैसे एक्टर्स. सीरीज़ को डायरेक्ट किया है सुमित सक्सेना ने. वो इसके को-राइटर भी हैं. अरुणाभ कुमार को बतौर क्रिएटर क्रेडिट दिया गया है. हिंदू मायथोलॉजी के अनुसार ‘कालकूट’ उस विष का नाम था, जिसे देवताओं और असुरों ने मिलकर निकाला था. सीरीज़ से इसका क्या ताल्लुक है, ओवरऑल ये सीरीज़ कैसी है, अब बात उस बारे में.  

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आठ एपिसोड्स में फैली ये सीरीज़ खुलती है एक एसिड अटैक से. पारुल नाम की लड़की पर कोई हमला करके फरार हो जाता है. दूसरी ओर हम मिलते हैं सब इंस्पेक्टर रवि शंकर त्रिपाठी से. रवि टिपिकल किस्म का आदमी नहीं. उससे वर्दी के साथ आने वाली गर्मी बर्दाश्त नहीं हो पा रही. उसी के चलते अब अपनी नौकरी छोड़ना चाहता है. लेकिन सीनियर हैं कि इस्तीफा मंज़ूर नहीं कर रहे. ऊपर से रवि को पारुल का केस थमा देते हैं. रवि सच की तह तक पहुंचने की कोशिश करता है. उसी रास्ते उतरते हुए उसकी अंतरात्मा से लेकर वर्दी तक पर धूल चढ़ती है. खुद के मन में सैंकड़ों सवाल उपजते हैं, जो उसे खाए जा रहे हैं. उन्हीं से लड़कर पारुल का केस सुलझा पाता है या नहीं, यही मोटा-माटी कहानी है.  

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रवि अपने आसपास की दुनिया से खपने लगता है. 

शो का ट्रेलर और शुरुआती कुछ एपिसोड देखने के बाद मेरे ज़हन में एक फिल्म कौंधी थी. गोविंद निहलानी के निर्देशन में बनी ‘अर्धसत्य’. वहां एक आदर्शवादी पुलिसवाला होता है, जो भ्रष्ट तंत्र से बेचैन है. उसके खिलाफ खुद को असहाय पाता है. रवि शंकर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. समाज में हो रहे जघन्य अपराध वो नहीं देख सकता. नहीं सह पा रहा कि एक तरफ किसी के लीक्ड MMS की बात हो रही है और दूसरी तरफ उसी वाक्य को ठहाकों से पूरा किया जा रहा हो. रवि इस पूरे सिस्टम पर चिढ़ा हुआ है. ऊपर से उसे शिकायत है मर्दानगी के ठेकेदारों से. ऐसी विचारधारा से जो सेंसिटिव होने को कमजोरी से जोड़ती है. यहां शो की राइटिंग में अच्छा काम हुआ. आप उम्मीद करते हैं कि रवि कुछ क्रांति लाएगा. लेकिन ऐसा होता नहीं. बल्कि वो खुद कुछ हद तक उसी ज़हर का हिस्सा बन जाता है.  

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शो की राइटिंग में आसपास की दुनिया को बारीकी से ऑब्ज़र्व करके उतारा गया है. कुछ मौकों पर डिस्टर्बिंग भी लगता है. जैसे एक सीन है. वहां पुलिसवाले अस्पताल में पारुल की मां का बयान ले रहे हैं. वो रोते हुए अपनी व्यथा बता रही हैं. उसी कमरे में सफाई कर्मचारी काम कर रहा है. वो उन्हें बीच-बीच में टोकता है. पांव ऊपर करने को कहता है. ताकि पोंछा ठीक से लग सके. एक ही कमरे में दो दुनिया दिखती हैं, जो पूरी तरह एक-दूसरे से कटी हुई हैं. शो सिर्फ आंतरिक या शारीरिक हिंसा ही नहीं दर्शाता. बल्कि इस ट्रैजडी में कॉमेडी भी ढूंढता है. शो में दो किस्म की कॉमेडी दिखीं – ब्लैक ह्यूमर और सिचुएशनल. ब्लैक कॉमेडी में ऐसी चीज़ों के इर्द-गिर्द मज़ाक बनाया जाता है, जो आमतौर पर वर्जित होती हैं. सिचुएशनल होती है परिस्थिति की मोहताज़. जैसे रोजमर्रा की लाइफ की किसी परिस्थिति में ही कुछ गड़बड़ हो गई. वो इतनी सिली होगी कि अपने आप हंसी आ जाए. ये स्क्रिप्ट के स्ट्रॉन्ग पॉइंट्स थे.  

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सीरीज़ ह्यूमर का सहारा लेकर ज़रूरी मसलों पर कमेंट करता है. 

शुरुआती पांच एपिसोड तक मुझे लगा कि ये सॉलिड शो है. लेकिन ये विश्वास जल्दी ही बदल गया. पारुल के केस की उधेड़बुन के साथ रवि की पर्सनल लाइफ का ट्रैक भी चलता रहता है. मेकर्स उसे ठीक से संभाल ही नहीं पाए. एंड तक वो गैर-ज़रूरी सा लगने लगता है. शुरुआत में आपको लगता है कि ये वास्तविकता के करीब है. इस मामले में भी क्लाइमैक्स निराश करता है. आखिरी एपिसोड को पूरी तरह फिल्मी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसा लगता है कि मेकर्स भूल गए कि उन्होंने ये सफर कहां से शुरू किया था. शो पैट्रीयार्की, महिलाओं का चरित्र हरण, कैज़ुअल सेक्सिज़्म जैसे नासूरों को आंखों के सामने लाती है. बस उन पर सही मरहम नहीं लगा पाती.  

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‘कालकूट’ पर ‘अर्ध सत्या’ का गहरा असर साफ दिखता है. 

शो अगर अपने आखिरी के एपिसोड्स में ट्रैक नहीं खोता तो ये मस्ट वॉच बनता. बहरहाल अभी भी कई वजहों से देखा जा सकता है. उनमें से एक एक्टिंग भी है. विजय वर्मा चाहे कहीं का भी किरदार निभाए, वो उसकी बोली पकड़ लेते हैं. उस पर काम करते हैं. ऐसा ही मुझे ‘दहाड़’ में भी लगा था. ‘कालकूट’ में भी वो पूरी तरह यूपी के ही लड़के लगते हैं. जब रवि शंकर वल्नरेबल होता है, बिलखता है, तब वो रवि ही है. और जब उसके खून में गर्मी बढ़ने लगती है, वो रौब झाड़ने लगता है, तब भी वो रवि ही लगता है. विजय ने ऐसा काम किया है अपने किरदार पर. उनके साथ ही यशपाल शर्मा और गोपाल दत्त जैसे एक्टर्स ने भी अपने किरदारों को बिलीवेबल बनाया. वो हमारे बीच के लोग ही लगते हैं. शो में श्वेता त्रिपाठी शर्मा के लिए ज़्यादा स्कोप नहीं छोड़ा गया. फिर भी जितनी जगह मिली, उतने में उन्होंने सही काम किया.  

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‘कालकूट’ की कहानी और उसके किरदार आज के हैं. ऐसे समाज में बसे हैं, जो नैतिकता के स्तर पर दिन-ब-दिन खोखला पड़ता जा रहा है. शो इसी नोट पर शुरू होता है. बस काश उस पर बना भी रहता. 

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