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जोकर: मूवी रिव्यू

मूवी इतनी डार्क है कि थियेटर का अंधेरा आपको पर्दे से बेहतर लगता है.

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...जिसको भी देखना, कई बार देखना. (वाकीन फीनिक्स, इन एंड एज़ 'जोकर')
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो.
कैफ़ी आज़मी की ‘अर्थ’ मूवी के लिए लिखी ये ग़ज़ल जोकर मूवी के एक कैरेक्टर के ऊपर बहुत फिट बैठती है. कैरेक्टर, जो इस मूवी का हीरो है. कैरेक्टर, जो इस मूवी का विलेन है. जो इस मूवी का मुख्य पात्र है. जो दरअसल इस मूवी का ऑलमोस्ट इकलौता पात्र है.
एक काल्पनिक शहर है ‘गोथम’ जिसका सुपर हीरो है बैटमैन. सुपर हीरो है तो कोई सुपर विलेन भी होगा. जैसे चाचा चौधरी हैं तो राका. यहां वो सुपर विलेन ‘जोकर’ है. ये सब इस फिल्म की कहानी नहीं है लेकिन इसकी कहानी को समझने से पहले ये सब समझना ज़रूरी है. इस फिल्म की कहानी तो सिर्फ एक लाइन की है- जोकर कैसे जोकर बना? वो खलनायक मूवी में संजय दत्त का कैरेक्टर कहता है न-
मैं भी शराफत से जीता मगर, मुझको शरीफों से लगता था डर.
आनंद बख्शी की इस एक लाइन को खूबसूरती से फैलाकर एक घंटे चालीस मिनट का कर दें तो बनती है साइको थ्रिलर मूवी ‘जोकर’.
सजेशन- क्रिस्टोफर नोलन की बैटमैन वाली ‘दी डार्क नाईट’ इसे और बेहतर तरीके से समझने की ‘मेड इज़ी’ बुक हो सकती है.
'टैक्सी ड्राईवर' का रॉबर्ट डी नीरो का 'आर यू टॉकिंग टू मी' काफी फेमस हुआ था. वो इस फिल्म में भी एक छोटे लेकिन महत्वपूर्ण रोल में हैं. 'टैक्सी ड्राईवर' में रॉबर्ट डी नीरो का 'आर यू टॉकिंग टू मी' काफी फेमस हुआ था. वो इस फिल्म में भी एक छोटे लेकिन महत्वपूर्ण रोल में हैं.

चाहे बाज़ीगर का शाहरुख़ हो या दीवार का अमिताभ. अगर एंटी हीरो की बात होगी तो, उसके एंटी हीरो बनने की कुछ मजबूरियां भी होंगी. हमारे जोकर की भी हैं. प्लस कुछ मानसिक दिक्कतें हैं. होने को वो मानसिक दिक्कतें भी समाज ने ही उसे दी हैं. चाइल्ड एब्यूज़ से लेकर मां का साइको होना सब कुछ उसके वैसे होने को जस्टिफाई करते हैं, जैसा वो आज है. यूं एकबारगी ये फिल्म भी ‘कबीर सिंह’ की तरह घातक हो सकती है, उन लोगों के लिए जिनके लिए फिल्म पर्दे से बाहर निकलकर ‘प्रेरणाओं’ का आकर ले लेती है. उनके लिए भी जो अपने अपराधों के लिए एक एस्केप रूट, एक एक्सक्यूज़ ढूंढ रहे हैं.
मूवी इतनी डार्क है कि थियेटर का अंधेरा आपको पर्दे से बेहतर लगता है. बड़ी अजीब बात है कि फिल्म में जोकर कलरफुल होते हुए भी डार्क है. वो सबसे ज़्यादा दुःख के क्षणों में हंसता है, ठहाके लगाता है. कहता है- एक चुटकुला याद आ गया था. अगर पूछो- कौन सा? तो कहता है- रहने दीजिए आप नहीं समझ पाएंगे. जोकर जिसकी ज़िंदगी में सुख का एक क्षण भी नहीं आया, क्यूंकि उसकी ज़िंदगी एक कॉमेडी थी.
एक्टर वाकीन फ़ीनिक्स को दिया गया कैरेक्टर कहीं से भी आसान नहीं था. जोकर एक ऐसा कैरेक्टर है जो बहुत लाउड है, लेकिन उसके एक्सप्रेशन लाउड नहीं है. वो दुनिया का सबसे कॉन्फिडेंट आदमी है, लेकिन तब तक जब तक कि वो कोई और है. वो जोकर है. जैसे ही वो आर्थर बन जाता है, हारा हुआ बन जाता है.
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी...
टॉड फिलिप्स का बेस्ट ये नहीं है, क्यूंकि वो आना अभी बाकी है. टॉड फिलिप्स का बेस्ट ये नहीं है, क्यूंकि वो आना अभी बाकी है.

ऐसे मल्टीलेयर्ड कैरेक्टर को निभाना आसान नहीं होता. हंसने की बीमारी में रोना आसान नहीं होता. लेकिन फ़ीनिक्स की एफर्टलेस ऐक्टिंग सब कुछ आसान बना देती है.
रोने के लिए आज़ाद हो तुम, हंसने के लिए मजबूर हैं हम.
डीसी कॉमिक्स के ‘गोथम’, 'एल्फ्रेड बटलर' और ‘ब्रूस वेन’ जैसे रेफरेंसेज़ के अलावा फिल्म में कुछ बढ़िया ‘रियल लाइफ’ रेफरेंसेज़ भी है, जो आप और मैं, जैसा जोकर कहता है- नहीं समझ पाएंगे. जैसे 1984 में हुई न्यू यॉर्क सिटी सबवे शूटिंग का रेफरेंस. फिल्म में ‘टैक्सी ड्राईवर’ वाले रॉबर्ट डी नीरो भी हैं, और उनकी फिल्म ‘टैक्सी ड्राईवर’ के कुछ रेफरेंस भी.
फिल्म के भाव बहुत डार्क है लेकिन इसका आर्ट बहुत कलरफुल. निर्देशक टोड फिलिप्स की ये अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है. लेकिन इसे देखकर ये भी कहा जा सकता है कि उनका बेस्ट अभी बाकी है. शॉकिंग इफेक्ट्स में उन्होंने ज़रूर कमाल किया है और कई बार आपका दिल एक दो बीट्स मिस करता है. फिर चाहे वो जोकर का कांच से टकराने का सीन हो या जोकर का नीरो के कैरेक्टर मरी फ्रेंकलिन को गोली मारना.
फिल्म में सब कुछ बेहतरीन हो ऐसा भी नहीं. जैसे, इसकी फिलोसोफी ग़लत है या सही ये तो खैर डिबेटेबल है, लेकिन ये अधपकी ज़रूर है. फिल्म को ‘जबरन’ आर्टिस्टिक बनाने की कोशिश दिखती है और इस चक्कर में गुडफेलास या पल्प फिक्शन जैसी किसी क्राइम, थ्रिलर विधा की ‘एपिक’ बनने से रह जाती है. फिल्म अपने ट्रीटमेंट में मुझे ‘बर्डमैन’ के सबसे करीब लगी. और हां, ‘फाइट क्लब’ की तरह स्प्लिट पर्सनैलिटी वाला सस्पेंस या थ्रिल भी यहां पर उतनी बेहतरी से काम नहीं करता.
'गुडफेलाज़' या 'पल्प फिक्शन' बनने की कोशिश में फिल्म अधिकतम 'बर्डमैन' के लेवल को छू पाती है. 'गुडफेलाज़' या 'पल्प फिक्शन' बनने की कोशिश में फिल्म अधिकतम 'बर्डमैन' के लेवल को छू पाती है.

फिल्म की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमने जोकर को बहुत पावरफुल देखा है, फिर चाहे वो कॉमिक्स में हो या मूवीज़ में. इस वाले जोकर और उस वाले जोकर में ज़मीन आसमान का फर्क है.
अंत में मुझे ये लगता है कि अगर ‘गॉड इज़ डेड’ कहने वाले नीत्शे कोई मूवी बनाते तो ऐसी ही बनाते.


वीडियो देखें:
वॉर: मूवी रिव्यू-