फिल्म सिर्फ़ मज़ाक उड़ाकर ही रह जाती तो भी ठीक था. लगता है इस तरह के फूहड़ हास्य की निरंतर होती आलोचना निर्माता-निर्देशक के दिल को लग गई है. हद तो तब हो गई जब वो फिल्म के क्लाईमैक्स में गढ़े एक इमोशनल दृश्य में इस फूहड़ता का जस्टिफिकेशन भी देने की कोशिश करते है. इशारों ही इशारों में बताया गया है कि अच्छी नीयत से किया मज़ाक चाहे कितना भी बुरा हो, चलता है. अौर मज़े की बात ये है कि इसे भी अत्यंत फूहड़ता के साथ एक चर्च में पादरी के मुंह से बुलवाया गया है.
मैं इस तरह की फिल्मों को देखकर गुस्सा नहीं होता था, बल्कि मैं तो इनकी 'रीहैश' क्वालिटी के चलते इन्हें 'इको-फ्रैंडली फिल्में' कहता हूं. लेकिन यह स्पष्टीकरण देखकर मुझे सच में गुस्सा आया. अब तो इच्छा हो रही है कि 'फ्री स्पीच' वाले अपने तमाम सिद्धांत छोड़कर एक बार इस फूहड़ हास्य से 'आहत' हो ही जाया जाए.
शारीरिक भिन्नताअों का मज़ाक उड़ाना हास्य का एक प्रकार है फिल्म में. दूसरा प्रकार गलत भाषिक अनुवादों से खेलते चीप वनलाइनर्स से मिलकर बनता है. जैसे अंग्रेज़ी मुहावरों के हिन्दी में शाब्दिक अनुवाद से पैदा हुआ हास्य. शायद यह हाउसफुल सीरीज़ के लेखकों के इस फिल्म में खुद निर्देशक बन जाने का प्रभाव है, या शायद अब भाषा ही वो चीज़ रह गई है जिसका मज़ाक बिना किसी को 'आहत' करने के खतरे के उड़ाया जा सकता है.
कुछ नमूने देखिए, नायिका सरस्वती पार्टी में बड़े गंभीर होकर कहती हैं, 'हम बच्चे नहीं बना रहे हैं'. पिता स्पष्ट करते हैं, 'we are not kidding'. या दूसरा जब नायिका बोलती है कि नायक उसकी 'सेब की अांख' है, जिसका अर्थ खुद ही स्पष्ट भी करती है, 'apple of my eye'. ये तमाम इतने टुच्चे जोक हैं कि इन पर न हंसी अाती है ना गुस्सा. हां, इंटरवल तक आते आते नींद ज़रूर आने लगती है. आगे कहानी में कुछ 'अमर, अकबर एंथनी' का छौंक है अौर चुटकुलों में गोलमाल सीरीज़ की फिल्मों का.
अक्षय अौर रितेश तो इस हाउसफुल में पहले से थे. अभिषेक बच्चन इस नए इंस्टॉलमेंट में नए जुड़े किरदार हैं. अभिषेक यहां रैपर की भूमिका में हैं अौर रैप आर्टिस्ट बादशाह के सस्ते अवतार लगते हैं. अभिषेक सही स्क्रिप्ट मिले तो बढ़िया कॉमेडी कर सकते हैं, अौर इसके सबूत में 'ब्लफमास्टर' याद की जा सकती है. लेकिन यहां उनके लिए भी कोई मौका नहीं. फिल्म में अभिषेक बच्चन से जुड़े तमाम चुटकुले उसके 'बड़े बाप' अौर उनकी 'विश्व सुंदरी' पत्नी के इर्द गिर्द बुने गए हैं. बोमन ईरानी जैसे बढ़िया कलाकार भी इतनी खराब एक्टिंग करते हैं कि लगता है उन्हें ऐसा करने का बाकायदे निर्देश मिला है. जैकी श्रॉफ़ सीधे नाइंटीज़ से निकलकर दूसरे हाफ़ में आते हैं, पर लगता है वो तो खुद ही पके हुए हैं. वैसे जब उनके हाथ में बंदूक आती है, मैं सोचता हूं कि काश वो सबको गोली मारकर यह तमाशा बन्द करें. तीनों नायिकाअों में जैकलिन सबसे बेहतर लगी हैं, आप यह सुनकर ही समझ लीजिए की बाकी दो का काम किस लेवल का है.
अौर चंकी पांडे, उनकी तो परदे पर उपस्थिति ही अश्लील है. वैसे फिल्म में चंकी पांडे के होने का उद्देश्य ही शायद फिल्म के छिछोरेपन को स्थापित करना है. अच्छा है, कम से कम उनके बारे में तो यह कहा जा सकता है कि वे अपने उद्देश्य में सफ़ल हैं.
इस तमाम घटियापन में अक्षय कुमार अकेले अभिनेता हैं जो इस बेसिरपैर की कॉमेडी में भी कुछ आकर्षित करते हैं, लेकिन इसके पीछे फिल्म की खूबी कम अौर खुद अक्षय की तारीफ़ ज़्यादा है. पूरी फिल्म में मशहूर नामों, चीज़ों, जगहों के संदर्भ बिना किसी वजह के भरे गए हैं. ये सभी संवादों में वर्डप्ले का हिस्सा है. 'आदमी को खुश रहना चाहिए, गंभीर तो गौतम भी है', 'इंसान का दिल बड़ा होना चाहिए, छोटा तो भीम भी है' अौर 'एंग्री बर्ड्स क्यों बने हो' जैसे संवाद रीकलेक्शन के दम पर पब्लिक को मोह लेने का जाल है. लेकिन इनकी उमर बुलबुले बराबर है.
फिल्म देखकर निकलते हुए मैं सोचता हूं, क्या यही हमारे सिनेमा का भविष्य है? रचनात्मकता ज़रा भी नहीं. जैसे किसी कस्टमाइज़ फैक्ट्री में बनी फिल्में. जिनमें लोकेशन, किरदार, कहानी तो छोड़ो, चुटकुले तक नहीं बदलते. अौर हम किसी अश्लीलला की हद तक आलीशान मॉल में बैठकर इस सिनेमा को देख रहे हैं, हंस रहे हैं. जैसे किसी लाफ़्टर क्लब की सदस्यता ली है अौर अब मेम्बरशिप का पैसा वसूलने के लिए हंसना होगा. क्या उम्मीद की कोई किरण है?
उम्मीद की किरण कहीं अौर है. जब हम देश की 3,700 स्क्रीनों में 'हाउसफुल 3' नामक फिल्म का कस्टमाइज़ वर्ज़न देख रहे हैं, आज ही के दिन उम्मीद का सूरज किसी सुदूर सिनेमाघर में निकल रहा है. नाम है 'तिथि'.
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