
'एस्केप फ्रॉम तालिबान' का पोस्टर.
वो वापस भी नहीं जा सकती. हार कर जांबाज़ के बाकी परिवार के साथ सुष्मिता रहने लगती है. वहां रहते हुए सुष्मिता अपने परिवार और गांव की महिलाओं को अपने पतियों की मनमानी का विरोध और अपने हक़ की आवाज़ उठाने के लिए जागरूक करने लगती है. सुष्मिता की महिलाओं को जागरूक करने वाली बात, जब तालिबानियों तक पहुंचती हैं तो वो उस पर बहुत ज़ुल्म ढाते हैं. खैर, कुछ साल बाद गांव की मुखिया की मदद से सुष्मिता वहां से भागने में कामयाब हो जाती हैं. भारत आकर सुष्मिता ने 1995 में अपनी ये कहानी लिखी थी. जिस पर 2003 में डायरेक्टर उज्जल चट्टोपाध्याय ने 'द एस्केप फ्रॉम तालिबान' फ़िल्म बनाई. फ़िल्म में सुष्मिता का रोल मनीषा कोइराला ने और जांबाज़ खान का रोल नवाब शाह ने प्ले किया था.
2012 तक सुष्मिता बनर्जी भारत में ही रहीं. 2013 में वो वापस अफ़ग़ानिस्तान अपने गांव जाकर जनसेवा करने लगीं. जहां कुछ दिनों बाद तालिबान ने उनकी ह्त्या कर दी.

सुष्मिता बनर्जी
#काबुलीवाला 'काबुलीवाला' फ़िल्म रबीन्द्रनाथ टैगोर की लघु-कथा 'काबुलीवाला' पर आधारित है. कहानी है एक फ़ल बेचने वाले की, जो हर साल कलकत्ता आता है और गली-गली जाकर फ़ल बेचता है. फ़ल बेचने के दौरान उसे एक पांच साल की लड़की मिलती है मिनी. अब वो रोज़ मिनी को फल देता और उसके साथ खेलता. काबुलीवाला मिनी को अपनी बेटी की तरह प्यार करने लगता है. एक दिन एक गुंडा काबुलीवाले से पैसे वसूलने की कोशिश करता है. दोनों की थोड़ी हाथापाई हो जाती है. जिस कारण पुलिस काबुलीवाले को पकड़ कर जेल में डाल देती है. कई सालों के बाद काबुलीवाला जेल से रिहा होता है. रिहा होते ही सबसे पहले वो मिनी के घर जाता है. मिनी अब जवान हो चुकी होती है और 'काबुलीवाला' बूढ़ा. लिहाज़ा वो उसे पहचान नहीं पाती.
टैगोर की इस कहानी को कई बार फिल्मी पर्दे पर उतारा जा चुका है. सबसे पहले 1957 में आई बंगाली फ़िल्म 'काबुलीवाला' में. 2018 में 'बायोस्कोपवाला' में. जिसके बारे में हमने आपको ऊपर बताया. हमने जिस फ़िल्म के बारे में लिखा है ये 1961 में रिलीज़ हुई गुरुदत्त की फ़िल्म 'काबुलीवाला है'.

''काबुलीवाला'
#बायोस्कोपवाला एक फैशन फोटोग्राफर हैं. रोबी बासु. काबुल की फ्लाइट पकड़ रहे हैं. फ्लाइट पर चढ़ने से पहले अपनी बेटी से बात करना चाहते हैं. नहीं हो पाती. एक लैटर लिखकर प्लेन पकड़ लेते हैं. प्लेन क्रैश हो जाता है. बेटी मिनी जो कि पैरिस में पढ़ रही है, वो कोलकाता लौटती है. यहां आकर पता चलता है कि मरने से पहले पिता ने एक कैदी को रिहा कराकर उसकी कस्टडी लेने के लिए दस साल तक जंग लड़ी थी. वो कस्टडी अब जाकर मिली है और अल्जाइमर से पीड़ित एक बूढा आदमी अब मिनी की ज़िम्मेदारी है. इस बदमज़ा ज़िम्मेदारी से मिनी चिढ़ी हुई है. उसका रवैया तब बदलता है जब उसे पता चलता है कि ये आदमी और कोई नहीं उसके बचपन का बायोस्कोपवाला है.
वो बायोस्कोपवाला जिसने, बकौल खुद मिनी के. उसे कहानी कहना सिखाया था. जो अफ़ग़ानिस्तान से आया था. और जो मर्डर के इल्ज़ाम में जेल काट रहा था. अब मिनी के सामने कुछ सवाल हैं. क्यों उसके पिता काबुल जा रहे थे? बायोस्कोपवाले रहमत ख़ान का परिवार कहां है? क्या वाकई मर्डर रहमत ख़ान ने ही किया था? अगर हां तो क्यों? रहमत ख़ान की बेटी राबिया की क्या मिस्ट्री है? और सबसे बड़ा सवाल ये कि आगे मिनी क्या करें? सवालों के जवाब तलाशती मिनी कोलकाता के रेड लाइट एरिया सोनागाछी से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक भटकती है. इसी क्रम में बायोस्कोपवाले की ज़िंदगी कई लोगों की यादों के सहारे परत दर परत खुलती जाती है. इनमें शामिल है सोनागाछी का एक दलाल, वहीदा और ग़ज़ाला नाम की वो दो औरतें जो रहमत के साथ अफ़ग़ानिस्तान से आई थीं, रवि बासु की डायरी, उनका आखिरी ख़त और मिनी की यादें.

'बायोस्कोपवाला'
#काफ़िला साल 2000. देश भर में मंदी छायी हुई है. आम आदमी के लिए घर-बार चलाना मुश्किल पड़ रहा है. सब विदेश जाकर पैसे कमाना चाहते हैं ताकि घर पाल सकें. ऐसे ही कुछ भारतीयों और कुछ बांग्लादेशियों और पाकिस्तानियों को एक दिल्ली का एजेंट राशिद ग्रेट ब्रिटेन पहुंचाने का ठेका लेता है. ये सब अपने जीवन की सारी जमा-पूंजी जोड़कर राशिद को दे देते हैं. शिप से ये रवाना हो जाते हैं. रास्त में भयंकर तूफ़ान से शिप भटक जाता है. राशिद समेत जब जमीन पर उतरते हैं तब वहां उन्हें एक अफ़ग़ान गाइड मिलता है. जो उन्हें आगे ले जाने का दावा करता है. लेकिन कुछ वक़्त बाद इन सब के जीवन में अलग ही मुसीबत आ जाती है. 'काफ़िला' 2007 में रिलीज़ हुई सनी देओल स्टारर फ़िल्म है. सनी के साथ फ़िल्म में सुदेश बैरी और सना नवाज़ भी दिखते हैं.

'काफ़िला.'