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मूवी रिव्यू: अकीरा

बात सोनाक्षी सिन्हा की एक्शन फिल्म अकीरा की जिसे डायरेक्ट किया है गजनी वाले मुरुगदॉस ने.

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'अकीरा' के एक दृश्य में सोनाक्षी सिन्हा.

फिल्म: अकीरा । निर्देशक: एआर मुरुगदॉस । कलाकार: सोनाक्षी सिन्हा, कोंकणा सेन, अनुराग कश्यप, अमित साध । अवधि: 2 घंटे 20 मिनट

आगे Spoilers/खुलासे हैं, अपने विवेक से ही पढ़ें. 1998 में जब जापान स्थित महान फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा का निधन हुआ तो उसी काल में कभी, जोधपुर में कहीं एक बच्ची का जन्म हुआ. उसका नाम भी उसके राजस्थानी पिता ने अकीरा रखा. जापानी में इसका अर्थ होता है गुणवान बेटा. बेटियों और भारत के संदर्भ में इसका अर्थ होता है गरिमा और अंदरूनी मज़बूती से भरी. उसका पिता उसे बेटे जैसा ही मानता है. उसे साहसी बनने के सबक देता है. सिर्फ वही था जिसकी दी हुई सलाहियतों से अकीरा जीवन में कठिन फैसले ले पाती है. हालांकि उसके एक भाई भी है बड़ा, लेकिन पिता की जो स्मृतियां उसे आती है उसमें भाई नहीं है, सिर्फ वह है. भाई मुंबई रहने लगा है. पत्नी भी है. वर्किंग वुमन है. वह जोधपुर से अपनी विधवा मां और अकीरा को मुंबई ले आता है. आने से पहले अकीरा कहती है कि अपने बच्चे संभालने के लिए नौकरानी की जरूरत है इसलिए ले जा रहा है. लेकिन फिर जाती है जब उसके प्राध्यापक उसे कहते है. वह प्राध्यापकों की बड़ी इज़्जत करती है. मुंबई के जिस कॉन्वेंट स्कूल में जाती है वहां के फादर का भी बड़ा सम्मान करती है. कॉलेज में जो हिंदी साहित्य पढ़ाते हैं उनका भी. ख़ैर, अकीरा की भाभी भी है. काम पर जाती है. सास को पहली बार मिलती है तो पैर नहीं छूती. अकीरा के अतीत को लेकर जाने-अनजाने में चुभती बात करती है. जब अकीरा ये भांपती है कि घर में भाभी को वो खटकेगी क्योंकि वो अलग किस्म की महिला है तो वो भाई से कहती है कि रोज़ रेल से आने-जाने के बजाय वो हॉस्टल में रह लेगी. जब सब उसे समझा रहे होते हैं कि घर पर परिवार के साथ रहो तो ब्रेकफस्ट टेबल पर उसकी भाभी कहती है कि "अगर वो हॉस्टल में रहना चाहती है तो रहने दो उसे फोर्स मत करो. जब उसका मन होगा, आ जाया करेगी, कभी-कभी". उसी भाभी का भाई (अमित साध, जिसका अकीरा से रिश्ता अच्छा रहता है) वहीं उनके साथ ही रहता है. भाभी के परिवार की तरफ वाले आए दिन घर पर आए होते हैं. हम देखते हैं कि उसकी मां ही भाभी के बच्चे को संभालती रहती है. भाभी से छुपकर भाई अकीरा को फीस देता है. यहां कहीं न कहीं उस भाभी, जो एक आज़ाद ख़याल वाली कामकाजी महिला भी है, की छवि नेगेटिव सी बनती लगती है. संस्कारी नहीं है, शहर में रहती है, भाई को अपने 'पति के घर' रखती है लेकिन ननद को रखने में दिलचस्पी नहीं. बेरहम सी है. सास को खुश करने की कोशिश नहीं करती. आत्मीयता नहीं है. ऐसी ही कई बातें. लेकिन शायद भाभी के ज़ेहन में हम सिर्फ वहीं से घुस सकते हैं जहां वो अकीरा को हॉस्टल में रहने के लिए सपोर्ट करती है. वो ख़ुद बड़े शहर में रही है और शायद वो चाहती है कि वो भी खुली जिंदगी जिए बिना किसी बंदिश के. निर्देशक एआर मुरुगदॉस ने इससे पहले दो हिंदी फिल्में बनाईं. पहली आमिर ख़ान के साथ 'गजनी', दूसरी अक्षय कुमार के साथ 'हॉलिडे: अ सोल्जर इज़ नेवर ऑफ ड्यूटी'. गजनी में नायिका असिन को गुणवान लड़की दिखाने के लिए वो एक सीन रखते हैं कि कैसे वो विकलांगों को एक युक्ति लगाकर रास्ता पार करवाती है. दूर से सिंघानिया (आमिर) उसे यूं करते देखता है और रीझ जाता है. उसे संस्कार दिखते हैं. 'हॉलिडे' में हीरोइन का पात्र रिंग में बॉक्सिंग करता दिखता है और फौजी हीरो अक्षय छुट्‌टी पर आया है और उसे देखता है. वह उस लड़की की बॉक्सिंग से प्रभावित नहीं है बस उसके प्रति आकर्षित है. ताकत तो यहां उसकी सर्वोपरि रह जाती है. दोनों ही फिल्मों में मुरुगदॉस ने एक्शन बहुत रखा था. उनके विलेन बहुत बुरे विलेन थे. हीरो बहुत अच्छे हीरो थे. हीरोइन बहुत आदर्श प्रेमिकाएं थीं. 'अकीरा' में मुरुगदॉस कई चीजें अलग करते हैं. इस बार चीजें स्पष्ट रूप से नहीं होतीं. बल्कि ज्यादातर महत्वपूर्ण सीन में वैसा नहीं होता जैसा मनोरंजन के लिहाज से होना चाहिए था. जैसे कहानी बुरे पुलिसवाले (अनुराग कश्यप) और अकीरा पर केंद्रित है लेकिन दोनों सिर्फ आखिरी सीन में आमने-सामने होते हैं और वहां भी अकीरा घुटनों पर ही रहती है. एक सीन में वो उससे लात खाती है, दूसरे में उसकी टांग पर फरसा मारती है. बस. इसके सिवा कुछ नहीं. जबकि आप कोई भी मनोरंजक फिल्म उठा ले जो जबरदस्त रिपीट वैल्यू वाली हो उसमें इन दो ध्रुवों का आमना सामना, कुछ ड्रामैटिक डायलॉगबाज़ी और विचार-व्यवहार कई बार होता है. यहां ये नहीं. अकीरा को कॉलेज में एक पाश्चात्य हेयरकट और गैर-संस्कारों वाली लड़की बार-बार तंग करती है और एक सीन में वो उसके साथियों को धो देती है. लेकिन इनका भी कोई संबंध बाद में नहीं दिखता. आप 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन' जैसी फिल्म भी अगर देखें या 'आई एम नंबर फोर' देखें तो कॉलेज में बुली करने वाले लड़कों को सुपरहीरो जरा दंडित करता है लेकिन फिर दोनों के संबंधों का पटाक्षेप भी सही नोट पर होता है. यहां अकीरा उस लड़की से मिलती है लेकिन अधूरे अंत की ओर जाने के लिए. अकीरा जब हॉस्टल में रहने आती है तो कमरा नंबर 17 ही उपलब्ध होता है लेकिन उसे न तो कोई लेना चाहता है, न फादर देना चाहते हैं क्योंकि वहां बीते दिनों एक लड़की ने आत्महत्या की थी. लेकिन अकीरा कहती है कि "मैं ले लूंगी". वह ठोस लड़की है, एक सीन में जब उसकी भाभी कुछ यूं कहती है "मैंने तुम्हे तो नहीं किया न?" तो उसका जवाब होता है, "मुझे हर्ट करना इतना आसान नहीं". तो वो कमरा ले लेती है. जब कमरे में पहुंचती है तो उस आत्महत्या करने वाली लड़की का अतीत हमें दीवारों पर दिखता है. वो उस यकीन वाली लड़की थी कि दुनिया में मर्द-औरत, ऊंचे-नीचे, अमीर-ग़रीब के बीच असमानता की खाई क्रांति से ही पाटी जा सकती है. उसके कमरे की दीवारों पर नारे लिखे हैं. सूत्र वाक्य उकेरे हैं. उससे भी ख़ास वहां दीवार पर अर्जेंटीना के मार्क्सवादी क्रांतिकारी चे गुवेरा की फोटो लगती है. वहां अरुंधति राय की फोटो लगी है जो नक्सलवाद, वैश्वीकरण, आर्थिक उदारवाद और कश्मीर जैसे मसलों पर बहुत ही सघन कलम से लिखती हैं. एक लिहाज से आइकॉनिक महिला हैं. लेकिन अकीरा उस तरह की आइकॉनिक लड़की नहीं है. एक तरह से ऐसा लगता है कि इस कमरे में साम्यवाद की मौत हो गई है और नई किराएदार आई है जो अलग मूल्य-व्यवस्था में मानने वाली है. उस कमरे में जाने के बाद अकीरा का पहला ही कदम इसे साबित करता है. जब क्लास चल रही होती है और पूरे कॉलेज के स्टूडेंट साथ मिलकर कैंटीन के बुरे खाने की शिकायत दर्ज करवाने क्लास बीच में छोड़कर साथ जा रहे होते हैं तो अकीरा ही ऐसी होती है तो गुरुजी से बैठकर हिंदी साहित्य का लेक्चर सुनती रहती रहती है. उसमें क्रांति-व्रांति की कोई इच्छा नहीं. हां लेकिन जब उन्हीं गुरुजी को कोई पुलिसवाला रात में दो थप्पड़ लगा देता है और सब छात्र सड़कों पर उतर आते हैं तो पुलिस की गोली, लाठी के बीच वो अकेली होती है जो सड़क से नहीं हटती. वो समानता के लिए आंदोलन का रास्ता नहीं समझती, वो संस्कारों-नैतिकताओं के लिए आंदोलन का रास्ता लेती है. अकीरा की मूल्य व्यवस्था यूं है कि उसे लड़ना आता है. उसमें ताकत है. वो अकेली दस-दस लड़कों को ढेर कर सकती है. लेकिन जब व्यवस्था से उसकी भिड़ंत होती है तो वो clueless हो जाती है. जाहिर है उसका वैल्यू सिस्टम उसे politically agile नहीं बनाता. पुलिसवाले उसके खिलाफ प्लान बनाते रहते हैं और उसे सामने देखते हुए भी कुछ सूझता नहीं. जब जंगल में उसे एनकाउंटर करने लाया जाता है तो पांच सेकेंड में समझ में आने वाली बात उसे दस मिनट में समझ नहीं आती. उसके पास एक लड़के को शूट कर दिया जाता है. फिर दूसरे को. बीच में दो पुलिसवाले दूर जाते हैं. उनकी गाड़ी ख़राब होती है. एक पुलिसवाला जो ढीला सा है. अकेला है लेकिन अकीरा कुछ नहीं करती. उसे कुछ सूझता ही नहीं. अंत में जब ट्रिगर दबने ही वाला होता है तो गोली नहीं निकलती. फिर स्प्रिंग अटक जाती है. इतना भगवान भरोसे रहने के बाद वो पुलिसवाले को लात मारती है और चली जाती है. सिर्फ एक लात का काम था लेकिन वो समझ ही नहीं पाई. ऐसा फिल्म में बहुत बार होता है कि कहानी की ये नायिका परिस्थितियों के भरोसे जिंदा रह पाती है, इसमें इसकी ख़ुद की काबिलियत नहीं होती. ऐसे मौकों पर उसका एक्शन जानने का कोई फायदा नहीं होता. जहां एक्शन करने की जरूरत होती है वहां उससे कुछ नहीं होता. उसके वैल्यू सिस्टम की सबसे मोटी बात अंत में दिखती है जब कोंकणा सेन का बहुत ही बेहतरीन तरीके से निभाया हुआ गर्भवती व ईमानदार लेकिन सुपीरियर ऑफिसर के आदेश का पालन करने को बाध्य इंस्पेक्टर राबिया सुल्तान का किरदार चार दोषी पुलिसवालों की अकीरा के खिलाफ साजिश का पता लगा लेता है और बचाने पहुंचता है. सब सेट हो चुका होता है लेकिन फिर स्थिति बनती है कि राबिया ने दोषी पुलिसवालों को पकड़ा तो किसी कारण शहर में दंगे फैल जाएंगे और हजारों लोग मारे जाएंगे तो उसे पीछे हटना पड़ता है. यहां अकीरा हमेशा जो महिलाओं से करवाया जाता रहा है वो करती है. वो बलिदान देती है. वो मूक-बधिर बच्चों से इशारों में कहती भी है कि उसे क्राइस्ट की तरह सूली पर चढ़ना पड़ा है. वो सही या गलत, न्याय और अन्याय को भूल जाती है और त्याग करती है. वो समय पर छोड़ देती है कि उसका बुरा करने वाले उसके बारे में क्या राय बनाएंगे. कि वे लोग नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं. यहां आते-आते कृष्ण का गीता में दिया ज्ञान ही अप्लाई होता लगता है. कि अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता, सब मैं ही करने वाला हूं. तुम बस आगे बढ़ो और कर्म किए जाओ. अकीरा भी यही करती है कि वो मान लेती है कि दुनिया को बेहतर नहीं किया जा सकता कि इसमें सब कुछ होना पहले से नियत है. कहानी में भी उन दोषी पुलिसवालों का कुछ नहीं होता. उनके शरीर पर चंद घाव होते हैं और जिनसे दुरुस्त होकर वे अपनी-अपनी ड्यूटी जॉइन कर लेंगे. जबकि उन्होंने इस प्रक्रिया में कई बेकसूर लोगों की जानें ली होती हैं. अकीरा की इस जर्नी में सबसे आकर्षक कुछ है तो उसके हमनाम कुरोसावा. उनकी फिल्मों में मनोरंजन और बुद्धिमत्तापूर्ण सोच का बहुत स्पष्ट निरूपण रहा है. जिसकी यहां कमी है. 'योजीम्बो' और 'रेड बियर्ड' देखें.