बहुत से लोगों को लैला-मजनू की प्रेम कहानी बस इतनी पता है कि वो कभी पूरी नहीं हुई. लेकिन साजिद की ये फिल्म उस जोड़े की इस पूरी जर्नी को रिक्रिएट करती है. ये आज भी महान प्रेम कहानियों में क्यों गिनी जाती है, वो इस फिल्म को देखकर पता चलेगा.
इस फिल्म की सबसे अच्छी बात इसकी कहानी है. जो मेकर्स के पास पहले से उपलब्ध थी. लेकिन उसको दोबारा से ट्रेस करके लिखना इतना भी आसान नहीं था. अगर ये सही से हो गया तो बाकी सब हो गया. तो 'लैला मजनू' में ये सही से हो गया है. फिल्म की शुरुआत में ही बैकग्राउंड से एक डायलॉग आता है, जिसमें ये कहा जाता है कि 'हमारी कहानी लिखी हुई. इसे दुनिया क्या, दुनिया वाले क्या, हम खुद नहीं बदल सकते.' फिल्म का प्लॉट कुछ ऐसा है कि कश्मीर में रहने वाले दो परिवारों के बीच भारी दुश्मनी है. लेकिन उनके बच्चे प्यार में पड़ जाते हैं. लेकिन उनकी शादी एक दूसरे से नहीं होती. अब दोनों ही अपनी लाइफ से खुश नहीं है. मिलने की कोशिश होती है लेकिन कभी मिल नहीं पाते. कितनी घिसी हुई कहानी लग रही है सुनकर. लेकिन इसे देखने में रोएं खड़े हो जाते हैं, ऐसे बनाया गया है इसे.

अविनाश इससे पहले 2017 में आई फिल्म 'तू मेरा संडे' में काम कर चुके हैं.
इस फिल्म में नए एक्टर्स काम कर रहे हैं. पहले उन्हें छुपाकर रखा जा रहा था. क्योंकि इम्तियाज़ का ये मानना था कि वो अपने एक्टर्स को दुनिया से सीधे लैला-मजनू के किरदार में ही मिलवाना चाहते थे. ये एक्टर्स हैं अविनाश तिवारी और तृप्ति डिमरी. फिल्म में एक सीन है, जहां लैला और उसके पति के बीच लड़ाई हो रही होती है. इस सीन को देखकर आप इस बात पर शर्त लगा सकते हैं कि ये तृप्ति की पहली फिल्म नहीं है. मजनू के किरदार में अविनाश ने पूरा सेकंड हाफ हथिया लिया है. क्योंकि उस दौरान स्क्रीन पर सिर्फ वही दिखते हैं और आपको किसी और को देखने का मन भी नहीं करता है. फिल्म में एक और एक्टर हैं, जो बहुत इंप्रेस करते हैं. सुमित कौल. इन्होंने लैला के पति इब्बन का रोल किया है. इनका कश्मीरी लहज़े में बात करना बहुत अच्छा लगता है लेकिन इस कैरेक्टर से पूरी फिल्म में एक खुन्नस सी बनी रहती है.

तृप्ति की ये पहली फिल्म है. दूसरी बार ऑडिशन लेकर उन्हें फिल्म में लिया गया है.
इस कहानी में कुछ बहुत अलग नहीं है. बस ट्रीटमेंट का कमाल है सब. ये फिल्म अपने किरदारों की वजह से पसंद आती है. उनके पागलपन की वजह से पसंद आती है. जो पागलपन 'गीत' में था, 'जॉर्डन' में था, 'वेरॉनिका' में था, 'वेद' में था, वही पागलपन 'कैस' में दिखता है. और उसका पागलपन आप थोड़ा आगे तक देखना चाहते हैं. फिल्म खत्म होने के बाद कैस का क्या होता है. वो कहां जाता है? क्या करता है? जिंदा भी है कि नहीं? लेकिन फिर आप अपनी लैला को ढूंढ़ने में लग जाते हैं और कैस पीछे छूट जाता है.
फिल्म में एक सीन है जहां दीवाना कैस अपनी माशूक से बात कर रहा होता है. बगल में लोग नमाज़ अदा कर रहे होते हैं. कैस के बोलने से उनके नमाज़ में बार-बार खलल पड़ती है. वो उठकर चिक्खम-चिल्ली मचाते हैं और फिर कैस को पत्थर से मार देते हैं. वो समझ नहीं पाता कि उसे मारा क्यों गया? वो तो अपनी माशूक से बात कर रहा था, वो खोया हुआ था. फिर इन लोगों का ध्यान उस पर कैसे चला गया? वो भी अपने खुदा से बात कर रहे थे. फिल्म की एक अच्छी आदत है, वो बिना कहे बहुत कुछ कहती है. और आपको सुनकर सहमत होना पड़ता है.

इस फिल्म की कास्टिंग के दौरान शुरुआत में ही अविनाश को शॉर्टलिस्ट कर लिया गया था लेकिन उनके बाद भी कई लोगों का ऑडिशन हुआ लेकिन फिर अविनाश ही फाइनल कर लिए गए.
एक लड़की आकर कैसे लड़के की फ्लैट चल रही ज़िंदगी को सर के बल कर देती आपको यहां देखने को मिलता है. जैसे हीर ने 'जनार्दन जाखड़' को जेजे बना दिया, वैसे ही इस फिल्म की लैला, कैस को मजनू बना देती है. पागल कर देती है और बदले में बस फलक की ओर देखने को कहती है. उसे पता नहीं कि यही तो कैस को खल रहा है. उसे खुशी चाहिए लेकिन वो इंतज़ार कर रहा है. जब उसका सब्र जवाब दे देता है, तो निकल जाता है खुश होने. अकेले. अब उसे लैला से प्यार करने के लिए लैला की ही जरूरत नहीं है. कैस और लैला का सफर साथ शुरू हुआ था लेकिन कैस अब आगे निकल गया है. वो वहां से लौट भी नहीं सकता और आगे भी नहीं जा सकता. फिल्म में एक सीन है जहां दीवाना हो चुकी कैस से मिलने लैला आती है. उस समय वो बताता है कि उसे हर जगह क्या दिखता है. और वो अपने अंदर की सारी ऊर्जा लगाकर ये नाम लेता है- 'लायला लायला'. ये फिल्म के उन सीन्स में से एक है, जहां अविनाश इतने तेज चमकने लगते हैं कि बाकी सब चीज़ें फीकी हो जाती हैं. और पूरी फिल्म में ये चीज़ आप कई जगह एक्सपीरियंस करते हैं. और उसके पीछे डायलॉग्स का बहुत बड़ा हाथ है. फिल्म के डायलॉग वैसे तो काफी रियल हैं लेकिन सुनने में इतने मीठे हैं कि शायरी जैसे लगते हैं.

इस फिल्म से पहले साजिद जॉन अब्राहम प्रोडक्शन के लिए 'बनाना' नाम की एक फिल्म डायरेक्ट कर चुके हैं लेकिन वो किसी वजह से रिलीज़ नहीं हो पा रही.
फिल्म में डायलॉग से ज़्यादा कुछ कहने या करने की कोशिश ही नहीं की गई है. फोटो वाली कहानी टाइप लगती है ये फिल्म. कश्मीर के कभी हरे-भरे तो कभी बर्फ से ढंके पहाड़. नीली झील. घने जंगल. इस माहौल में घट रही ये कहानी बहुत सूफी सी हो जाती है. नॉर्मल रफ्तार से शुरू हुई ये फिल्म हर बढ़ते सीन के साथ तेज होती जाती है. और खत्म ऐसे होती है जैसे इसे कोई रेस जीतनी हो. 'आहिस्ता' और 'हाफिज़ हाफिज़' गाने के बीच जो कुछ घटता है उससे आप एक पल को नज़र नहीं हटा सकते. अगर ऐसा हुआ तो आप सेकंड भर में काफी कुछ मिस कर जाएंगे. सामने अविनाश परफॉर्म कर रहे होते हैं पीछे से मोहित चौहान अपना जादू बिखेर रहे होते हैं. ये फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा है. इस फिल्म के लिए गाने नीलाद्री कुमार और जॉय बरुआ ने बनाएं हैं. फिल्म में 'सरफिरी' गाने का प्लेसमेंट थोड़ा अजीब लगता है. क्योंकि ये एक सीन के बीच नेपथ्य से आकर सामने खड़ा हो जाता है, जबकि आप वो सीन देखने में इंट्रेस्टेड हैं. वो गाना आप यहां देख सकते हैं:
ये एक ऐसी फिल्म है जिसके किरदार से लेकर माहौल और कहानी सबकुछ अप टू द मार्क लगते हैं. मुझे तो लगते हैं. लेकिन अगर आपको मुझसे असहमत होना है, तो फिल्म देखनी पड़गी. लैला मजनू की कहानी के लिए. अधूरे प्रेम को मुक्कमल होते देखने के लिए. कलाकारों के काम के लिए. अपने इम्तियाज़ प्रेम के लिए. बहाना चाहे कोई भी हो ये फिल्म देखी जानी चाहिए.
ये भी पढ़ें:
फिल्म रिव्यू: हल्का
फिल्म रिव्यू: जीनियस
फिल्म रिव्यू: सत्यमेव जयते
फ़िल्म रिव्यू: यमला पगला दीवाना, फिर से
वीडियो देखें: इम्तियाज़ अली क्यों कहते हैं कि हजार साल से भी पुरानी लैला-मजनूं की कहानी आधुनिक थी