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मूवी रिव्यू: ब्रह्मास्त्र

फ़िल्म लिखाई के मामले में कमजोर है. टेक्निकल पार्ट मजबूत है. इतना ज़रूर है, थिएटर एक्सपीरियंस बढ़िया होगा.

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वीएफएक्स बवाल है गुरु

ऋषियों ने अस्त्र प्राप्त किए. उन अस्त्रों की पीढ़ी दर पीढ़ी रक्षा होती आई. वानरास्त्र, नन्दी अस्त्र, अग्नि अस्त्र समेत सभी अस्त्रों का महाअस्त्र ब्रह्मास्त्र. इसके तीन टुकड़े हो चुके हैं. जिसके अलग-अलग रक्षक हैं. पर अब कोई है जो उन टुकड़ों को पाकर महाशक्तिशाली ब्रह्मास्त्र को फिर से जोड़ना चाहता है. पर वो टुकड़े जुड़ गए तो इस दुनिया के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे. दुनिया कैसे बचेगी? कौन बचाएगा? यही है 'ब्रह्मास्त्र' का पहला पार्ट शिवा.

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फ़िल्म में आलिया और रणबीर

अमिताभ बच्चन की भारी आवाज़ से फ़िल्म खुलती है. उसके साथ चल रहे एनिमेशन के ज़रिए अपना मयार सेट कर देती है. फिर आता है शाहरुख खान का जाबड़ कैमियो. आपकी उम्मीद फ़िल्म से बढ़ जाती है. ग़ज़ब माहौल बनता है. फ़िल्म हमारे अरमानों को चने के झाड़ पर चढ़ाती है. फिर एकदम से वक़्त बदल देती है. जज़्बात बदल देती है. गाना बजने लगता है. लव स्टोरी चलने लगती है. अरमान धराशाई हो जाते हैं. इसके बाद बीच-बीच में एक आध ग्रिपिंग सीक्वेंस आते हैं. इंटरवल के पहले तक फ़िल्म बहुत बोझिल हो जाती है. ज़बरदस्ती खींची हुई फ़िल्म लगने लगती है. हिंदी मसाला फ़िल्मों के वही पुराने क्लीशेज. वही लव स्टोरियां. बिना मतलब के गाने. पूरा स्वाद ख़राब हो जाता है. इंटवल के बाद ऐसा लगता है कोई दूसरी ही फ़िल्म शुरू हो गई है. एक बार जो धुआंदार ऐक्शन शुरू होता है. फ़िल्म के क्लाइमैक्स तक रुकने का नाम ही नहीं लेता. सेकंड हाफ पहले से बहुत बेहतर है. हालांकि एक फ़िल्म को दो हिस्सों में बांटकर नहीं देखना चाहिए. पर फ़िल्म बनी ही ऐसी है. मेकर्स ने फर्स्ट हाफ बिल्डअप में निकाल दिया है. फ़िल्म को कम से कम आधे घण्टे छोटी किया जा सकता था.

फ़िल्म की कुछ तस्वीरें

'ब्रह्मास्त्र' की रिलीज़ से पहले इसके वीएफएक्स पर ख़ूब चर्चा हुई थी. फ़िल्म इस पर खरी भी उतरती है. वीएफएक्स को पूरे नम्बर. क्या बवाल वीएफएक्स है यार. हर अस्त्र का अलग रंग. हर अस्त्र का अलग रूप. एनिमेशन भी शानदार है. इवेन एंड क्रेडिट्स का एनिमेशन भी बढ़िया है. ज़्यादातर फ़िल्मों में हम देखते हैं, ब्लैक स्क्रीन पर टेक्स्ट डालकर क्रेडिट्स बना दिए जाते हैं. पर यहां उन पर भी अलग से मेहनत की गई है. यानी विजुअल इफेक्ट्स के हर एक हिस्से पर ख़ास ध्यान दिया गया है. छोटी-छोटी डिटेलिंग पर काम किया गया है. डायरेक्टर अयान मुखर्जी ने जो प्रॉमिस किया था. पूरा किया है.

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स्टोरी के लिहाज़ से फ़िल्म कमजोर है. एक सपाट कहानी है. उसमें बॉलीवुडिया टच देने के लिए स्क्रीनप्ले के कई सारे पेंच ढीले छूट गए हैं. चूंकि स्क्रीनप्ले ख़ुद अयान ने लिखा है. उन्हें चाहिए था कि इसे और ज़्यादा रिफाइन करते. उन्होंने शायद फ़िल्म के टेक्निकल आस्पेक्ट्स पर ज़्यादा ध्यान दिया है. कहानी को उतना समय नहीं दिया. या समय दिया है तो स्क्रीनप्ले को उतना बढ़िया ढंग से ढाल नहीं पाए हैं. हुसैन दलाल ने डायलॉग लिखे हैं. वो इससे पहले 'ये जवानी है दीवानी', 'टू स्टेस्ट्स' और 'कारवां' सरीख़ी फ़िल्मों के डायलॉग लिख चुके हैं. उनके लिखे संवाद ही 'ब्रह्मास्त्र' का सबसे वीक पॉइंट हैं. बहुत प्रीची लगते हैं. जब आपने इंडियन मायथोलॉजी का मॉडर्नाइजेशन किया है तो डायलॉग इतने संस्कृतनिष्ठ और उर्दूदां रखने की क्या ज़रूरत थी. बेमतलब के कठिन शब्दों की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं थी. नॉर्मल भाषा होती तो ज़्यादा अच्छा होता. ऐसा लगता है किसी अवेंजर मूवी का हिंदी डब्ड वर्जन देख रहे हों. साथ ही कई संवादों का तो कोई मतलब ही नहीं है. एक जगह ईशा शिवा से कहती है 'मुझे तुमसे प्यार है' तो शिवा कहता है बोल दो फिर. तब ईशा कहती है, 'आई लव यू.' मतलब जब हिंदी में बोल दिया है तो अंग्रेजी में बोलना दोबारा ज़रूरी था क्या? ऐसे ही एक डायलॉग है जिसमें  शिवा कहता है: 'मैं अंधेरे की ताकत में नहीं रोशनी की शक्ति में यकीन करता हूँ.' ये तो वही हो गया न मुझे इश्क़ नहीं, प्यार चाहिए. ताक़त और शक्ति में क्या अंतर है जी?

एक टुकड़े ब्रह्मास्त्र की कीमत तुम क्या जानो शिवा बाबू

प्रीतम का म्यूजिक सही है. बैकग्राउंड म्यूजिक ऐक्शन सीक्वेंस में बढ़िया समां बांधता है. सिनेमैटोग्राफी मस्त है. एडिटिंग भी बढ़िया है. एक प्रयोग अच्छा लगता है. एक जगह पर जितनी बार गोली चलती है, उतनी बार स्क्रीन पर हल्की-सी आग के साथ स्क्रीन ब्लैकआउट हो जाती है. बढ़िया एक्सपेरिमेंट है.

शिवा के रूप में रणबीर कपूर ने ठीक काम किया है. उन्होंने कोशिश की है कि ओवर ऐक्टिंग न करें. उसमें वो काफ़ी हद तक क़ामयाब भी रहे हैं. ईशा के रोल में आलिया कहीं-कहीं पर ओवरऐक्टिंग का शिकार हो गई हैं. गुरुजी के रोल में अमिताभ ने बढ़िया काम किया है. उनकी आवाज़ इस फ़िल्म की जान है. शाहरुख भी जितनी देर स्क्रीन पर रहते हैं, बांधे रखते हैं. नागार्जुन ने भी ठीक काम किया है. मोनी रॉय ने बेहतरीन काम किया है. उनको जुनून के रोल के बाद और फ़िल्में मिलेंगी.

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कुलमिलाकर फ़िल्म लिखाई के मामले में कमजोर है. टेक्निकल पार्ट मजबूत है. हां, इतना ज़रूर कहेंगे थिएटर एक्सपीरियंस वाली मूवी है. जाकर देख सकते हैं.

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