अफवाह एक ऐसा मारक हथियार है, जिसकी चपेट में आने के बाद मानसिक क्षति से लेकर शारीरिक हिंसा तक, हर बुरी चीज़ मुमकिन है. अफवाहों के चलते मासूमों की जान चली जाने के सैकड़ों उदाहरणों से भरा पड़ा है हमारा इतिहास. बदलते दौर में अफवाह ने तरक्की कर ली है. टेक्नोलॉजी ने अफवाह के इम्पैक्ट का दायरा बढ़ा दिया है और इसके फैलने की रफ़्तार तेज़ कर दी है. अब अफवाह सिर्फ एक हथियार नहीं, विध्वंसक शक्ति है. अफवाहों की इसी भयावहता को सेंटर में रखते हुए दिग्गज डायरेक्टर सुधीर मिश्रा ने एक फिल्म बनाई है. नाम भी यही है, 'अफवाह'. इस दौर की विडंबनाओं को रेखांकित करने की कोशिश करती ये फिल्म कैसी है, आइए जानते हैं.
मूवी रिव्यू: अफवाह
भड़काया गया समूह कभी भी उस भस्मासुर में तब्दील हो सकता है, जो खुद आपको लील जाए. जिनकी आंखों पर नफरत की पट्टी बंधी हो, वो अपने रचयिताओं को भी नहीं बख्शते. इस पॉइंट को 'अफवाह' पुरज़ोर ढंग से एस्टैब्लिश करने में सफल होती है


# अफवाह की शक्ल में फेक न्यूज़
जैसा कि टाइटल से ही ज़ाहिर है, फिल्म की कहानी का सेंट्रल प्लॉट एक अफवाह है. लेकिन किसी अज्ञान से उपजी अफवाह नहीं, बल्कि सोची-समझी, प्लांटेड अफवाह. जो किसी ख़ास और बुरे मकसद से फैलाई गई है. रहाब अहमद, ऐड वर्ल्ड का एक धुरंधर है, जो राजस्थान अपने गांव लौटा है. निवी एक पॉलिटिशियन की बेटी है, जिसके पिता ने किसी और से गठबंधन कर लिया है और नज़राने में बेटी सौंपी है. निवी का होने वाला पति विक्रम सिंह, एक युवा नेता है, जो राजनीति की दुनिया में छलांग लगाकर आगे बढ़ना चाहता है. तरक्की की सीढ़ियां रफ़्तार से चढ़ने की खातिर वो कुछ भी करने को तैयार है. दंगे करवाने से लेकर फेक न्यूज़ फैलाने तक कुछ भी. भले-बुरे से उसे फर्क नहीं पड़ता. उसका एक बेहद वफादार गुर्गा है चंदन, जो उसके आदेश का पालन आंखें मूंदकर करता है. भले ही खुद उसकी जान पर बन आए. कुछ पुलिसवाले भी हैं, जो नेता जी की हमलावर बांह बने हुए हैं.
बहरहाल निवी, विक्रम सिंह की दंगों में शिरकत बर्दाश्त नहीं कर पाती और उससे दूर जाना चाहती है. वो भाग रही है और उसके पीछे विक्रम सिंह उर्फ़ विकी बन्ना के गुंडे पड़े हैं. अब सिचुएशन ऐसी बनती है कि निवी के फरार होने की इस कोशिश में उसका साथ रहाब अहमद के साथ बन जाता है. अचानक सर पे आन पड़ी इस मुसीबत से हकबकाया रहाब अपनी अच्छाई के चलते निवी का साथ देता है और उसकी कीमत भी चुकाता है. उधर विकी बन्ना को कोई सलाह देता है कि अगर मंगेतर भाग जाने की बेइज्ज़ती से बचना चाहते हो और अपना पॉलिटिकल करियर बचाना चाहते हो, तो एक अफवाह फैलाने को स्पोंसर करो. तभी बचेगा सब. और यहीं से शुरू होता है वो खूनी खेल, जिसकी जड़ में खूब सोच-समझकर फैलाई गई एक अफवाह है. एक वीडियो वायरल होता है और दोनों भागे-भागे फिरते हैं. कैसे बचते हैं ये दोनों, बचते हैं भी या नहीं, यही फिल्म की कहानी है.
# शुरू में सुस्त, बाद में दुरुस्त
फिल्म शुरू-शुरू में काफी धीमी लगती है. आप एकदम से कनेक्ट नहीं कर पाते. आपको आशंका होती है कि कहीं एक और हार्टलेस सोशल कमेंट्री न बनकर रह जाए ये फिल्म. लेकिन इंटरवल आते-आते चीज़ें पटरी पर लौटने लगती हैं और दूसरे हाफ में तो फिल्म फुल रफ़्तार पकड़ लेती है. अपनी सेंट्रल थीम पर चलते हुए फिल्म और भी ज़रूरी मुद्दों पर बात करती रहती है. पैट्रियार्की, सांप्रदायिकता, वर्क प्लेस में यौन शोषण, फेक न्यूज़ वगैरह-वगैरह. फेक न्यूज़ या अफवाह फैलाने का तंत्र कितने ऑर्गनाइज्ड ढंग से काम करता है ये देखकर दहशत होती है. आप चाहकर भी इसके शिकंजे से बच नहीं सकते. फिल्म में लव जिहाद से लेकर गोतस्करी जैसे तमाम मुद्दों पर बेबाक टिप्पणियां हैं.
फिल्म ये तो बताती है ही कि जनता को ट्रिगर करना कितना आसान है. साथ ही ये भी बताती है कि ऐसे ट्रिगर की गई जनता को कंट्रोल करना अक्सर काबू से बाहर की चीज़ हो जाती है. भड़काया गया समूह कभी भी उस भस्मासुर में तब्दील हो सकता है, जो खुद आपको लील जाए. जिनकी आंखों पर नफरत की पट्टी बंधी हो, वो अपने रचयिताओं को भी नहीं बख्शते. उन्हें भी मिटाने से पीछे नहीं हटते. इस पॉइंट को ये फिल्म पुरज़ोर ढंग से एस्टैब्लिश करने में सफल होती है. इस फिल्म की ये सबसे बड़ी कामयाबी है.
# दी भूमि-शारिब शो
परफॉरमेंसेस की बात की जाए तो सभी एक्टर्स ने अच्छा काम किया है, लेकिन दो लोग सबसे ज़्यादा चमके हैं. भूमि पेडणेकर और शारिब हाशमी. आदर्शवादी, हकपरस्त निवी के किरदार में भूमि पूरी तरह घुस गई हैं. अपने किरदार की छटपटाहट उनकी देहबोली से खूब झलकती है. फिल्म में एक सीन है, जहां वो एक ऐसे स्टूडेंट से उलझती है, जो पढ़ा-लिखा होने के बावजूद अफवाह को सच मान बैठा है. उस सीन में भूमि का एग्रेशन और डायलॉग डिलीवरी देखने लायक है. उनके किरदार की जो बगावती वो टोन है, वो उन्होंने पूरी फिल्म भर बड़े ही इफेक्टिव तरीके से कैरी की है. विकी बन्ना के राइट हैण्ड चंदन के रोल में शारिब हाशमी ने गर्दा उड़ा दिया है. स्वामिभक्ति में ग़लत से ग़लत कार्य करने में न हिचकने वाले चंदन की जब खुद की जान खतरे में पड़ती है, तो उस समय का उसका मानसिक द्वंद्व शारिब ने बेहतरीन ढंग से पोट्रे किया है. क्लाइमैक्स में तो वो चौंका देते हैं.
मोस्टली स्वीट और लवेबल किरदार निभाने वाले सुमित व्यास एक रूथलेस पॉलिटिशियन के रोल में भले लगे हैं. बहुत प्रभावशाली लगे हैं वो. ये फिल्म उनके दमदार एक्टिंग कैलीबर का सबूत है. नवाज़ुद्दीन ने इस बार अपने यूजुअल स्पेस से बाहर कोई किरदार निभाया है. और चूंकि वो बहुत कद्दावर अभिनेता हैं, उन्होंने रहाब अहमद बड़े ही एफर्टलेस ढंग से पेश किया है. एक और एक्ट्रेस का ज़िक्र करना ज़रूरी है. टीजे भानु. नैतिकता और मजबूरियों के बीच फंसी एक पुलिस वाली का किरदार उन्होंने प्रभावी ढंग से निभाया है. लल्लनटॉप सिनेमा को दिए इंटरव्यू में डायरेक्टर सुधीर मिश्रा ने उनकी बहुत तारीफ़ की थी. फिल्म देखकर पता चला कि उस तारीफ़ में ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं थी. उन्हें और देखना पसंद करेंगे लोग.
राइटर-डायरेक्टर सुधीर मिश्रा की रेपुटेशन रही है कि वो मुद्दों पर आधारित फ़िल्में बनाते हैं और अपने सब्जेक्ट के साथ पूरा न्याय करते हैं. इस बार भी वो कामयाब रहे हैं. फेक न्यूज़ की भयावहता से वो हमें परिचित तो कराते हैं, लेकिन डॉक्यूमेंट्री स्टाइल में नहीं. एक थ्रिलर फिल्म देकर. क्लाइमैक्स को उन्होंने जिस ढंग से पेश किया है वो आपको प्रभावित भी करेगा और परेशान भी. सुधीर मिश्रा अंत में एक गधों का मेटाफर इस्तेमाल करते हैं. उसके बारे में ज़्यादा लिखना स्पॉइलर हो जाएगा, लेकिन उस एक सीन ने पैसा वसूल टाइप फीलिंग दी है. बिना किसी डायलॉग के वो सीन इस दौर पर एक सशक्त टिप्पणी करता है. दिमाग बंद करके कुछ भी फैला देने वाली भीड़ को समराइज़ करता है. धनुष की 'कर्णन' के बाद गधों का इतना तगड़ा रूपक इसी फिल्म में देखा.
तो कहने की बात ये कि 'अफवाह' महज़ एक थ्रिलर फिल्म नहीं, बल्कि एक वेक अप कॉल भी है. सबको अटेंड करनी चाहिए. देख डालिए.
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