मुद्दा ये कि हमारे समाज में दिमाग की शांति से कई ज़्यादा ज़रूरी है ये 'घर की शान्ति'. सबसे पहले डेमोक्रेसी की मुखालफततो हमारे घर में ही हो जाती है. मेन्टल हेल्थ खराब होना हमारे लिए पागलपन ही होता है. और चूंकि सिनेमा इसी समाज का आइना है, तो वहां भी यही देखने को मिलता है. पुरानी फिल्में और उनके रंग ही ब्लैक एंड वाइट नहीं थे. रंग भरने के बाद भी उनमें किरदारों का पोट्रेयल ब्लैक एंड वाइट जैसा ही था. या तो किरदार 'शुद्ध बुद्धि वाला' होगा या फिर 'इनको कुछ दिमागी बीमारी है' या 'ये पागल है' या 'इनका दिमागी संतुलन हिला हुआ है' वाला. फिल्मों में मेन्टल हेल्थ से जुड़ी कोई भी बात, तकलीफ हो तो उसका इलाज दिखाते थे बस रिवेंज, बदला! बदला लेते ही संतुलन सुधर गया, याद है 'खिलौना' मूवी? संजीव कुमार की वो फिल्म, जिसमें वो एक ऐसा ही किरदार प्ले करते हैं. जिसकी मानसिक हालत ठीक नहीं है और ये दर्शाने के लिए वो अजीब तरह से आँखें फाड़ते, आवाज़ मॉड्यूलेट करते दिखते हैं. तब समाज जैसा मानता था, फिल्मों में भी वही दिखता था."जब रोना आता है तो बड़े कहते हैं आंसू पोछो, जब गुस्सा आता है तो बड़े कहते हैं स्माइल करो, क्यों? ताकि घर की शांति बनी रहे"

पर्सनालिटी डिसऑर्डर पर बात करने वाली फिल्म 'भूलभुलैया' में भी राजपाल यादव का पोट्रेयल ह्यूमर पर्पज़ के लिए वैसा रखा गया. याद करिए पानी-पानी, और अरे बेटी राधा कहा चली अपने गधे पर बैठ कर वाले सीन पर आप खूब हंसे. लेकिन ये एक इंसान की परेशानी थी, जिसे हमने हंसकर बाकी समस्याओं की तरह बस इग्नोर कर दिया. सलमान खान की फिल्म क्योंकि में तो मेन्टल असाइलम को भी सर्कस जैसा दिखाने का उल्टा काम कर दिया गया था. जो किसी बीमारी से परेशान है, उसे कमरे में बंद करने और शॉक लगाने की धमकी देना ही फिल्मों में पागलपन का इलाज था. इसे इतना ड्रामेटाइज़ किया गया कि लोगों में ट्रीटमेंट को लेकर डर बैठ गया.
सिर्फ फिल्में ही क्यों, आगरा और बरेली वाले चुटकुलों से सबने मेन्टल हेल्थ और इलनेस को लेकर अपनी गंभीरता का स्तर दिखा ही दिया है. खैर इन सब बातों के बावजूद कुछ ऐसी फिल्में थीं और फिल्म मेकर्स भी, जो अपना फ़र्ज़ नहीं भूले. पूरे कम्पैशन के साथ ऐसे मुद्दों पर बात करने और सबको अवेयर करने का काम बाखूबी किया. आज हम World Mental Health Day के मौके पर ऐसी ही फिल्मों की एक लिस्ट लाए हैं. जो किसी को 'ये तो पागल है' नहीं कहती, बल्कि उनकी परेशानी बिना किसी तड़के के हमें दिखाती हैं. जो फिल्में कम और जनता के लिए लेसन ज़्यादा हैं. आइए लिस्ट पर नज़र डालते हैं.
1. देवराई डायरेक्टर - सुनील सुकथनकर और सुमित्रा भावे
शेष. एक ऐसा आदमी, जिसे अकेले रहना पसंद था. इंसानों से ज़्याद जंगल पसंद था. एक दिन शेष तूफ़ान खड़ा कर देता है, सबके सामने तमाशा करता है. तमाशा! यही तो कहा जाता है, जब दिल खोलकर कोई अपना गुस्सा या फ्रस्ट्रेशन ज़ाहिर कर देता है. जिसके बाद सब उसे 'ये तो पागल है' कह देते हैं. जिसे घर पर रखना खतरनाक है. उसकी बहन उसका ख्याल रखती है, बाकी सब बस एम्बैरस होते हैं. फिल्म में शेष का भांजा, एक बच्चा जब इस बारे में बात करता है, तो टॉपिक डाइवर्ट कर दिया जाता है. बस यही दिक्कत है हमारी सोसाइटी में. मेन्टल हेल्थ, सेक्स एजुकेशन, लव लाइफ- जिनके बारे में वाकई बात होनी चाहिए, नहीं होती. डिप्रेशन से लेकर स्किज़ोफ्रेनिया सब कुछ पागलपन है. खैर अतुल कुलकर्णी की फिल्म 'देवराई' में उन्होंने बहुत संभल कर पूरी एम्पथी के साथ किरदार निभाया है. वो हकलाना, लोगों को देख घबराना और अपनी बीमारी को समझना, उस समय की vulnerablity उन्होंने खूब अच्छे से दिखाई है. फिल्म सुमित्रा भावे और सुनील सुकथनकर ने डायरेक्ट की है. मस्ट वॉच है.

2. 15 पार्क एवेन्यू डायरेक्टर - अपर्णा सेन
कोंकणा सेन शर्मा. जिन्हे आज की जनरेशन जानती है 'वेकअप सिड' जैसी फिल्मों से. उन्ही की एक फिल्म है 'फिफ्टीन पार्क एवेन्यू'. जिसमें उन्होंने एक स्किज़ोफ्रेनिक पेशेंट का रोल किया है. मीठी. मीठी की एक बड़ी बहन है अंजली (शबाना आज़मी) जो उसे बड़े ही प्यार से ट्रीट करती हैं. माँ है वहीदा रहमान. जो बेटी की बीमारी के लिए तांत्रिक बुलाती हैं. इस फिल्म को कोंकणा के बेहतरीन प्रोजेक्ट्स में से एक कहा जा सकता है. जिसमें उन्होंने एक पेशेंट का किरदार बहुत स्मूथली निभाया. वो पेशेंट, जो अपनी ही ख्याली दुनिया में जीती है, सच्चाई से दूर. एक पता है पार्क एवेन्यू का, वही तलाशती है. जो शायद है भी नहीं वहां. कोंकणा की एक्टिंग और फिल्म की डायरेक्टर अपर्णा सेन के शानदार काम के लिए ये फिल्म देखनी चाहिए. इस फिल्म में एक मेंटली परेशान पेशेंट के साथ कैसे रहे, इस बात के छोटे-छोटे लेसन्स हैं. जो एस हर पेशेंट के रिश्तेदारों के काम आयेंगे. और हाँ इस फिल्म की एंडिंग खुद को नॉर्मल कहने वाले इंसानों को भी एक बार अपने दिमाग पर शक कर लेने को मजबूर कर देगी. कि जो देखा वो सच है या जो सच है वो दिखा ही नहीं.

3. डियर ज़िन्दगी डायरेक्टर - गौरी शिंदे
जब हम अपने आप को समझ लेते हैं तो दूसरे क्या सोचते हैं, डज़ नॉट मटर. बस यही फिल्म का वन लाइनर है. बहती रेत से समय नाप लेने वाला इंसान इतना नहीं जान पाता कि अपने खुद के दिमाग में जो थॉट्स हैं, वो कहीं अपने ही लिए स्पाइडर वेब का काम तो नहीं करते? डिप्रेशन, एंग्जायटी, गुस्सा. हमेशा से इसके 'निपटारे' के लिए बड़ों ने कहा, 'अरे सुबह जल्दी उठो, सब ठीक हो जाएगा'. 'अरे तुम फ़ोन बहुत चलाते हो, इसीलिए दिमाग में ये सब बैठ गया है'. हम अक्सर परेशान होते हैं अपने रिलेशनशिप्स, ब्रेकअप्स से जुड़ी एंग्जायटी को लेकर. लेकिन पता नहीं होता क्या करें. डॉक्टर जहांगीर उर्फ़ जग ने हमें बताया था,
'नफरत करना चाहते थे तो इजाज़त नहीं थी और जब हम प्यार करना चाहते हैं, तो पता चलता है ये सारा इमोशनल सिस्टम ही गड़बड़ा गया. रोना, गुस्सा, नफरत कुछ भी खुलकर एक्सप्रेस करने नहीं दिया. अब प्यार कैसे एक्सप्रेस करें!"

'डियर ज़िन्दगी' का ये एक ही नहीं, ऐसे अनेकों सीन हैं जिसमें डायरेक्टर गौरी शिंदे ने बड़ी सेंसिबिलिटी और खूबसूरती से बताया कि जितनी इस शरीर की तबियत का हाल पूछते हैं, उतना ही ज़रूरी है इस दिमाग के हाल जानने-पूछते रहने का. शाहरुख़ खान और आलिया भट्ट ने फिल्म में न पूछे जाने वाले दर्जनों सवालों के जवाब दिए. दिखाया कि ये जिन्हें हम 'अरे कुछ नहीं होता, तू ये सब इग्नोर कर' कहते हैं, गलत है. अपनी मेन्टल हेल्थ के लिए किसी डॉक्टर के पास जाना पागलपन का इलाज कराना है भी, तो होने दो. फिल्म में बहुत सारे सीन हैं, जो बताते हैं कि बचपन की परवरिश और बड़े होकर इंसान की मेन्टल हेल्थ कितनी कनेक्टेड है. कुर्सी वाला सीन, आलिया का अपने ही घर में अकेले होना सब कुछ मेन्टल हेल्थ की चीख-चीखकर बात करते हैं. बस फिल्म की तरह थेरपीज़, समुद्र की लहरों के साथ कबड्डी खेलने वाली, आसान नहीं हो शायद लेकिन ज़रूरी होगी.
5. तमाशा डायरेक्टर - इम्तियाज़ अली
“सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना. तड़प का न होना. सब कुछ सहन कर जाना.”