1890 के दशक की शुरुआत में बिहार (Bihar) के आरा (Ara) का एक नौजवान वकालत की पढ़ाई करने लंदन गया. वहां जब उसने अपनी पहचान बिहारी के तौर पर बताई तो अंग्रेज चौंक गए. उनके लिए बिहार एक अनजान जगह थी. यही नहीं वहां रहने वाले दूसरे भारतीयों को भी बिहार के बारे में पता नहीं था. युवक को बहुत पीड़ा हुई. लेकिन वह पढ़ाई में रम गया. फिर आया साल 1893. युवक पढ़ाई पूरी कर स्वदेश वापसी कर रहा था. पटना स्टेशन पर उतरते ही उसकी नजर एक बिहारी सिपाही पर पड़ी. उसके बैज पर बंगाल पुलिस लिखा था. यह देखकर युवक की घर लौटने की खुशी गायब हो गई. तभी उसने संकल्प किया कि बिहार को अलग प्रशासनिक पहचान दिलाने के लिए जो कुछ भी बन पड़ेगा वो करेगा. ये उसके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य बन गया.
'लंदन रिटर्न' वकील और मुस्लिमों के साथ आने की वो कहानी जिसने बंगाल से बिहार को अलग कराया
Bihar को Bengal से अलग करने का Movement 1894 में शुरू हुआ. लेकिन 'बिहार बिहारियों के लिए' नारा सबसे पहले 7 फरवरी 1876 को एक उर्दू अखबार 'मुर्ग-ए-सुलेमान' ने दिया था. इस अखबार ने मांग उठाई कि बिहार में बंगालियों की बजाय बिहारियों की बहाली हो.


लंदन से पढ़ाई कर लौट रहे इस युवक का नाम था सच्चिदानंद सिन्हा (sachidananda sinha). उनका जन्म बिहार के एक संपन्न कायस्थ परिवार में हुआ था. उस समय बिहार बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था. तब बिहार के सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में कायस्थ सबसे आगे थे. अंग्रेजी शिक्षा पर भी उनकी ठीक-ठाक पकड़ थी.
फिर भी सरकारी नौकरियों में उनकी जगह नहीं बन पा रही थी. क्योंकि उस पर बंगाली समुदाय की पकड़ थी, जोकि आधुनिक शिक्षा में उनसे भी कहीं आगे थे. बिहारी अस्मिता की राजनीति और अवसरों की कमी ने बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाने की मांग को हवा दिया. और इसके अगुआ बने कायस्थ और एलीट मुसलमान. बिहार बनने की कहानी से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं. और बिहार के बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत आने और इसके साथ भेदभाव की कहानी जान लेते हैं.
22 अक्टूबर 1764 को ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ड क्लाइव और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के बीच युद्ध हुआ. इसे बक्सर के युद्ध के नाम से जाना गया. इस लड़ाई में मुगल बादशाह की हार हुई. और उसको बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपने को बाध्य कर दिया गया.
इसके साथ ही बिहार का अंधकारमय दौर शुरू हुआ. इसे महज एक भौगौलिक क्षेत्र में बदल दिया गया. साल 1836 से 1911 तक तो बंगाल प्रांत के अंदर एक प्रशासनिक यूनिट के तौर पर भी बिहार का कोई अस्तित्व नहीं था. ब्रिटिश शासकों ने बिहारी पहचान मिटाने के लिए सबकुछ किया जो वो कर सकते थे.
बिहार की लगातार उपेक्षा हो रही थी‘बिहार में जातिवाद स्वतंत्रता से पहले’ किताब में गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पांडे लिखते हैं कि कोलकाता प्रदेश की राजधानी थी और देश की भी. बंगालियों को इसका फायदा मिला. शिक्षा और रोजगार के सारे अवसर उनके हिस्से गए. बंगाल का नवजागरण बिहारियों को छू भी नहीं सका. उपजाऊ जमीन और आर्थिक विकास की तमाम संभावनाओं के बावजूद बिहार गरीबी में डूबा रहा.
अमिय कुमार बागची ने उत्तर और दक्षिण बिहार के विऔद्योगीकरण (Deindustrialisation) का विस्तार से सर्वेक्षण किया है. उन्होंने बताया कि बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत आने के बाद से बिहार का हथकरघा उद्योग, कागज उद्योग, चीनी उद्योग, टेन्ट बनाने का कारोबार, लाह के जेवर बनाने का धंधा, बर्तन उद्योग, शीशा उद्योग आदि चौपट हो गए. दूसरे शब्दों में कहें तो कलकत्ता के आसपास आधुनिक उद्योग खड़े हो गए पर बिहार में 1901 में जमालपुर (मुंगेर) में सिर्फ एक कारखाना आया.
बिहार एक समय कपास और सिल्क के कपड़ो के लिए मशहूर था. सत्रहवीं और अठारहवीं सदी की शुरुआत में इनका व्यापार उफान पर था. 1867 में पेरिस एक प्रदर्शनी हुई. इस प्रदर्शनी में बिहार से भेजे गए सामानों की लंबी सूची थी- जहानाबाद के थान सलूम और महमूदे सूती कपड़े . दाऊदनगर का कालीन, पथलकुट्टी के काले पत्थर के सामान और कोबरा व हिरण के सींग.
लेकिन सिर्फ 11 साल बाद डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर का विलाप देखिए. उनके मुताबिक, बिहार में किसी भी महत्व की दस्तकारी का कोई अस्तित्व नहीं रहा. पुराने कागज और चीनी की फैक्ट्रियां जर्जर हो गईं. अब खेती सभी वर्गों का अकेला पेशा रह गया है.
एल. एस एस. ओ मैली ने साल 1911 में बंगाल के औद्योगीकरण से बिहार और उड़ीसा की तुलना की थी. इसी साल बिहार और उड़ीसा बंगाल से अलग हुए थे. उनके मुताबिक तब बिहार और उड़ीसा में 20 या उससे ज्यादा मजदूर वाले फैक्ट्रियों की संख्या मात्र 583 थी.
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नौकरियों पर भी बंगाली समुदाय का कब्जासाल 1844 में सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया. इससे पहले सरकारी कामकाज की भाषा फारसी थी. अंग्रेजी भाषा लागू होने के बाद से सरकारी नौकरियों पर बंगालियों का कब्जा हो गया.
साल 1895 से 1898 तक प्रांतीय सिविल सेवा में होनेवाली सालाना सात बहालियों में हर साल पांच बंगाली बहाल हुए. साथ में एक मुसलमान और एक बिहारी हिंदू. लेकिन साल 1899 आते आते यह परिपाटी भी बंद कर दी गई. और एक भी बिहारी हिंदू को प्रांतीय सेवा में बहाल नहीं किया गया.
1899 में कलकत्ता हाईकोर्ट में जूनियर जजों की संख्या 60 थी, इसमें सिर्फ तीन बिहारी थे. इसी तरह से 1895 से 1898 के बीच कुल 69 डिप्टी कलेक्टरों और सब-डिप्टी कलेक्टरों की भर्ती हुई. इसमें 44 पद बंगाली हिंदुओं को मिले. बिहारी हिंदुओं के हिस्से सिर्फ 7 पद आए. बिहार प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारी थे. जिसमें सिर्फ तीन बिहारी थे. जबकि बंगालियों की संख्या 90 थी.
शिक्षा के क्षेत्र में भी बंगाली वर्चस्वउन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में बंगाल प्रांत में कुल 39 कॉलेज थे. 11 सरकारी कॉलेज, एक नगरपालिका संचालित कॉलेज, पांच सरकारी सहायता प्राप्त और 22 सहायता रहित कॉलेज. लेकिन बिहार में सिर्फ एक सरकारी कॉलेज था.
मेडिकल और इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृति पर तो बंगालियों का पूरा एकाधिकार था. जब तक बिहार बंगाल का हिस्सा रहा. यहां न एक मेडिकल कॉलेज खुला, न इंजीनियरिंग कॉलेज. साल 1905 तक बिहार में एक भी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं था. और सिर्फ पांच मेडिकल डॉक्टर थे.
उर्दू अखबार ने सबसे पहले उठाई अलग बिहार की मांगसरकारी नौकरियों, शिक्षा और उद्योग धंधे के मामले में बिहारियों की उपेक्षा के चलते बिहारी बुद्धिजीवियों को महसूस हुआ कि उनके प्रति भेदभाव बरता जा रहा है. उन्हें इस बात से भी ठेस पहुंची कि बंगाली बुद्धिजीवी उनके प्रति उदासीनता बरतते हैं. अलग पहचान खो देने और अपनी भाषा, रीति-रिवाज और संस्कृति की उपेक्षा से शिक्षित बिहारी बेहद दुखी थे.
हालांकि बिहार को बंगाल से अलग करने का आंदोलन 1894 में शुरू हुआ. लेकिन 'बिहार बिहारियों के लिए' नारा सबसे पहले 7 फरवरी 1876 को एक ऊर्दू अखबार मुर्ग-ए-सुलेमान ने दिया था. इस अखबार ने मांग उठाई कि बिहार में बंगालियों की बजाय बिहारियों की बहाली हो.
इसके बाद 22 जनवरी 1877 को ‘कासिद’ अखबार ने बिहार को अलग करने के पक्ष में तर्क जुटाने की कोशिश की. उनकी दलील थी कि बिहार और बंगाल का एक प्रांत होना, बिहार के लिए नुकसानदेह है. यह साथ स्वाभाविक नहीं है. क्योंकि दोनों की परंपराएं, रीति-रिवाज और स्वभाव अलग-अलग हैं. एक साथ होने से बंगालियों का फायदा हो रहा है. और बिहारियों का नुकसान. इस अखबार ने बंगालियों को बिहार का ‘उपनिवेशक’ बताया.
साल 1881 में अंग्रेजों को ‘बिहार बिहारियों के लिए’ नारे में कुछ औचित्य दिखा. बंगाल के गवर्नर आश्ले ईडन ने बिहार की कुछ नौकरियों को बिहार के लिए आरक्षित करने का आदेश दिया. लेकिन इस पर बंगाली एलीट क्लास ने नाराजगी जताई. उनके प्रतिनिधि अखबार ‘सहचर’ ने 17 जनवरी 1881 को इस सर्कुलर पर यह कहकर आपत्ति जताई कि ये बंगालियों के प्रति भेदभाव है. क्योंकि बंगालियों को नौकरी उनकी शिक्षा और मेरिट की बदौलत मिलती है. दबाव में आकर सरकार ने सर्कुलर वापस ले लिया.
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बिहार को अलग राज्य बनाने की मांग कैसे उठी?बिहार की लगातार हो रही उपेक्षा मॉडर्न अंग्रेजी बोलने वाले बिहारियों को रास नहीं आई. सच्चिदानंद सिन्हा और महेश नारायण जैसे बिहारी बुद्धिजीवियों ने महसूस किया कि बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनकर बिहारियों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है. इन दोनों ने मिलकर साल 1894 में बिहार टाइम्स अखबार की स्थापना की. और अलग बिहार की मांग करते हुए संपादकीय और कॉलम लिखना शुरू किया.
महेश नारायण इस अखबार के संपादक थे. उनके बड़े भाई गोविंद चरण कलकत्ता यूनिवर्सिटी में एम. ए. की डिग्री पाने वाले पहले बिहारी थे. गोविंद चरण को फिर भी नौकरी पाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. महेश नारायण अपने भाई के कड़वे अनुभव से बहुत प्रभावित थे. वह भूल नहीं पाए कि उनके भाई को बिहारी होने की वजह से कितना भेदभाव झेलना पड़ा.
सिन्हा और महेश नारायण दोनों कायस्थ समुदाय से थे. ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ किताब में श्रीकांत और प्रसन्न कुमार चौधरी लिखते हैं,
बिहार के कायस्थों का एक महत्वपूर्ण मुद्दा नौकरियों में बंगाली वर्चस्व का विरोध करना था. इस मुद्दे पर उन्हें दूसरे बिहारी समुदायों का भी समर्थन प्राप्त था. लेकिन इस वर्चस्व के लाभ से सबसे ज्यादा लाभ उन्हें ही होना था. क्योंकि वे बिहार के सबसे अधिक शिक्षित समुदाय थे.
बिहार में जातिवाद स्वतंत्रता पूर्व किताब के मुताबिक, द बिहार टाइम्स अखबार की स्थापना बिहार आंदोलन के लिए बड़ा लैंडमार्क था. सच्चिदानंद सिन्हा ने इस अखबार के शुरुआत को बिहार में नवजागरण की शुरुआत बताया. वहीं हसन इमाम ने इसके संपादक महेश नारायण को बिहारी जनमत का जनक करार दिया.
साल भर के भीतर ही यह अखबार पूरी तरह से स्थापित हो गया. और इसे बिहारी जनमत की मान्यता प्राप्त प्रवक्ता होने की हैसियत मिल गई. इसके बाद से बिहार को अलग प्रांत बनाने के पक्ष में अपार उत्साह पैदा हुआ. अलग प्रांत की मांग को लेकर आम सभाओं का आयोजन बिहार के राजनीतिक जीवन का हिस्सा बन गया. स्टीफन एफ. ऑस्टिन स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के रिसर्च स्कॉलर आर्येन्द्र चक्रवर्ती ने अपने पीएचडी थीसिस ‘प्रांतीय अतीत और राष्ट्रीय इतिहास’ में लिखा है,
साल 1905 में बंगाल के विभाजन से पहले अलग बिहार की मांग भी जोर पकड़ने लगी. सच्चिदानंद सिन्हा और महेश नारायण सिन्हा ने मांग उठाई कि बिहार को अलग करना सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी जरूरी है. इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि दोनों प्रदेशों की संस्कृति में अंतर है और भाषाई तौर भी दोनों अलग हैं. उनके मुताबिक बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा होने की वजह से बिहार पिछड़ता जा रहा है.
हालांकि उनकी उम्मीदें धाराशायी हो गईं जब अंग्रेजों ने प्रशासनिक के बजाय सांप्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन किया. लेकिन इन लोगों ने हिम्मत नहीं छोड़ी. और बिहार को अलग प्रांत बनाने की अलख जगाए रखी.
साल 1905 के बाद आंदोलन ने पकड़ा जोरगिरीश मिश्र और व्रजकुमार पांडे के मुताबिक, साल 1905 में बंगाल विभाजन के बाद से बंगाली एलीट के प्रति अंग्रेजों के रुख में बदलाव आया था. स्वेदशी आंदोलन के जरिए ब्रिटिश विरोधी आंदोलन और क्रांतिकारी आंदोलनों के चलते बंगाली बुद्धिजीवियों और ब्रिटिश शासकों के बीच गहरी खाई पैदा हो गई थी. दूसरी ओर सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने को बंगाल के विभाजन के खिलाफ होने वाले आंदोलन से तब तक अलग रखा जब तक बंगाली उनके अलग बिहार प्रांत की मांग का समर्थन करने को तैयार नहीं हुए.
साल 1905 के बाद सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहार के पढ़े लिखे मुसलमानों को भी अलग बिहार आंदोलन के साथ जोड़ा. अली इमाम, हसम इमाम, मुहम्मद फखरुद्दीन और मजहरुल हक जैसे नए नेता इस आंदोलन में शामिल हुए.
अप्रैल 1908 में बिहार प्रांतीय कांग्रेस कॉन्फ्रेंस का पहला अधिवेशन हुआ. इस अधिवेशन में अली इमाम और मुहम्मद फखरुद्दीन के प्रयासों से बिहार को अलग प्रांत बनाने का प्रस्ताव पास किया गया. इस प्रस्ताव को बिहार के सभी हिस्सों को व्यापक समर्थन मिला.
जैसे जैसे अलग बिहार राज्य बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी. बंगाल प्रांत के प्रशासन में भी बिहारियों की जगह बननी शुरू हुई. साल 1907 में बिहार के वकील शरफुद्दीन को हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया गया. वहीं साल 1908 में वकील अली इमाम को सरकार का स्टैंडिंग काउंसिल नियुक्त किया गया.
इससे बिहारी बुद्धिजीवियों का हौसला और आत्मविश्वास बढ़ा. साल 1910 में सच्चिदानंद सिन्हा और मजहरुल हक इंपिरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए. इससे अखिल भारतीय स्तर पर अलग बिहार राज्य की आवाज उठाने में मदद मिली.
इस आंदोलन का अंतिम लक्ष्य 12 दिसंबर, 1911 को हासिल हुआ. दिल्ली दरबार के दौरान जॉर्ज पंचम के भारत के सम्राट के तौर पर राज्याभिषेक के अवसर पर ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग करने की घोषणा की. 22 मार्च, 1912 को इसका नोटिफिकेशन जारी किया गया. 1 अप्रैल 1912 से बिहार और उड़ीसा प्रांत एक लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन अस्तित्व में आया. और सत्ता का केंद्र पटना आ गया.
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