हाल में जानी-मानी मेडिकल एंड हेल्थ मैगजीन दी लैंसेंट की एक रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में डायबिटीज के मरीजों की संख्या 11.4 फीसदी यानी करीबन 10.1 करोड़ है. उससे ज्यादा चिंता की बात ये है कि प्रीडायबिटीक लोगों की संख्या उससे भी ज्यादा है. रिपोर्ट के मुताबिक, इस समय भारत में 15.3 फीसदी यानी 13.6 करोड़ लोग प्रीडायबिटीक हैं. यानी इनके डायबिटीज का मरीज बनने की संभावना काफी अधिक है.
डायबिटीज के मरीज हैं तो हेल्थ इंश्योरेंस में ये सारे पॉइंट जरूर चेक कर लें
जिन्हें पहले से कोई बीमारी नहीं है और पूरी तरह स्वस्थ हैं वे जनरल इंश्योरेंस ले सकते हैं. लेकिन जिन्हें डायबिटीज या अन्य बीमारी है वे लोग स्पेशल इंश्योरेंस प्लान ले सकते हैं.

एक तरफ मरीजों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी तरफ स्वास्थ्य सुविधाएं कई गुना महंगी हो चुकी हैं. इसलिए कम हो या ज्यादा, सभी तरह के शुगर मरीजों के लिए हेल्थ इंश्योरेंस लेना अब और जरूरी हो चुका है.
डायबिटीक लोगों का बीमारियों पर काफी खर्चा होता है. इसलिए बीमा कंपनियां इन्हें प्लान देने से कतराती हैं. लेकिन इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि उनके लिए कोई हेल्थ इंश्योरेंस प्लान बना ही नहीं है. दरअसल शुगर के मरीज के लिए एक खास तरह की हेल्थ पॉलिसी आती है. उनके लिए कौन सी पॉलिसी सही रहेगी, पॉलिसी में कौन-कौन सी चीजें चेक करनी चाहिए, इसे समझने के लिए दी लल्लनटॉप ने पॉलिसीबाजार के सिद्धार्थ सिंघल से बात की. सिद्धार्थ पॉलिसीबाजार में हेल्थ इंश्योरेंस के बिजनेस हेड हैं. उन्होंने बताया कि हर कस्टमर के पास दो तरह के हेल्थ इंश्योरेंस लेने का विकल्प होता है.
जनरल इंश्योरेंस- उनके लिए जिन्हें पहले से कोई बीमारी नहीं है और पूरी तरह स्वस्थ हैं.
डायबिटीज स्पेशल इंश्योरेंस- उनके लिए जिन्हें पहले से डायबिटीज है.
हल्का शुगर है तो आरास से मिलेगा रेगुलर प्लानआपको कौन सा डायबिटीज है उसी के आधार पर तय होगा कि कौन सी इंश्योरेंस पॉलिसी मिलेगी. डायबिटीज मुख्यतः दो तरह की होती है- टाइप-1 और टाइप-2. टाइप-1 यानी जो लोग इंसुलिन पर हैं या टैबलेट ले रहे हैं या जिनका HB1C 8 फीसदी से कम है. ऐसे लोगों को सामान्य शुगर मरीज माना जाता है. ये लोग आराम से रेगुलर प्लान ले सकते हैं. कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें कभी शुगर था और अब नहीं है. ऐसे लोग बीमा कंपनी को अपनी हेल्थ कंडीशन की जानकारी देकर सामान्य हेल्थ पॉलिसी ले सकते हैं. ताकि क्लेम पेश करते समय कोई परेशानी न हो.
कई बार हल्के शुगर को कंपनी प्रीएक्जिस्टिंग डिजीज यानी बीमा लेने के पहले से हुई बीमारी मान लेती है और इसी हिसाब से पॉलिसी देती है. इस केस में कंपनियां कुछ खास बीमारियों को कवर के दायरे से बाहर रखती हैं. ये कौन सी चीजें हैं, जरूर पता कर लें. अगर रेगुलर पॉलिसी लेने के कुछ सालों बाद शुगर हो जाता है तो डायबिटीज के सभी खर्चे किसी अन्य बीमारी की तरह ही कवर किए जाएंगे.
टाइप-1 मरीजों के लिए स्पेशल प्लानकई ऐसे मरीज हैं जिनका शुगर बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है या फिर इंसुलिन पर हैं या उनका HBIC काफी ज्यादा है. ऐसे लोगों को रेगुलर इंश्योरेंस प्लान नहीं मिलते. ये मरीज खासतौर पर डायबिटीज पेशेंट्स के लिए डिजाइन प्लान ले सकते हैं. डायबिटीज स्पेशल प्लान के मुख्यतः दो-तीन फायदे हैं. डायबिटीज से जुड़े खर्चे जैसे- टेस्ट, ओपीडी, डायग्नोस्टिक, डायबिटीज से जुड़ी बीमारियों के खर्चे और अन्य बीमारियों पर आने वाले खर्चे तीनों की कवरेज मिल जाती है.
कुछ प्लान डायबिटीज रिवर्सल प्रोग्राम भी ऑफर करते हैं, जो शुगर लेवल नीचे लाने में मदद करते हैं. इसके अलावा डायबिटीज के कारण कई अन्य तरह की बीमारियों होने की संभावना बनी रहती है. स्पेशल प्लान अमूमन डायबिटीज के कारण हुई बीमारी भी कवर की जाती है, जो एक रेगुलर प्लान में नहीं की जाती. कंपनियां ऐसे मरीजों को एक वेटिंग पीरियड देती हैं, जो अमूमन 3-4 साल का होता है. मान लेते हैं किसी का वेटिंग पीरियड 3 साल है. इस केस में मरीज 3 साल के बाद ही डायबिटीज से जुड़ी बीमारियों के लिए क्लेम पेश कर सकेगा.
हालांकि, वेटिंग पीरियड को लेकर हाल ही में नियम बदले हैं. पहले वेटिंग पीरियड फिक्स रहता है, लेकिन अब इसे कम करने का भी विकल्प दिया जा रहा है. कई बीमा कंपनियां कस्टमर्स को ऑप्शन देती हैं कि वो चाहें तो प्रीमियम बढ़ाकर वेटिंग पीरियड 30 दिन पर ला सकते हैं. ऐसे मामलों में प्रीमियम 20-25 फीसदी बढ़ जाता है.
स्पेशल प्लान लेने वालों को रेगुलर प्लान लेने की जरूरत नहीं होती. एक ही प्लान में उनके डायबिटीज से जुड़ी बीमारियों के खर्चे और बाकी दूसरे हेल्थ एक्सपेंस दोनों कवर हो जाते हैं.
ऐसे प्लान में भी 1 से 2 साल का वेटिंग पीरियड दिया जाता है. कम से कम 30 दिन तो इंतजार करना ही पड़ता है. कोई भी प्लान इसके बाद ही कवर देगा. ऐसे प्लान पहले दिन से ही कवरेज के नाम से बिकते हैं. वेटिंग पीरियड कितना रखना चाहिए? इस सवाल पर सिद्धार्ध ने कहा,
कहां से प्लान खरीदना बेहतर?‘अगर आपको हल्का-फुल्का शुगर है तो वेटिंग पीरियड वाली पॉलिसी ले सकते हैं. हां, अगर 10-15 फीसदी ज्यादा देकर अगर पहले दिन से ही कवरेज मिल रहा है तो उसे ही लेना चाहिए.’
ऑनलाइन प्लान खरीदना ज्यादा बेहतर रहता है. इसकी वजह है. दरअसल इस समय ढेरों कंपनियां हैं जो ढेरों तरह के बीमा प्लान ऑफर कर रही हैं. इसलिए ऑप्शन बहुत सारे हैं. ऑनलाइन खरीदने पर आप पता कर सकते हैं कि आपके लिए कितनी पॉलिसी का विकल्प है. सभी पॉलिसी की आपस में तुलना करके ये पता कर सकते हैं कि आपके लिए कौन सा प्लान बेस्ट है. इसके अलावा जिस बीमा कंपनी से प्लान लेने जा रहे हैं उसका क्लेम सेटलमेंट रेशो जरूर चेक कर लें. कंपनी कितने दावे पर क्लेम वापस करती है इसका अनुपात क्लेम सेटलमेंट रेशो कहलाता है. रेशो जितना ज्यादा रहे उतना अच्छा रहता है.
हेल्थ ही नहीं, कोई भी बीमा पॉलिसी लेते समय नियम और शर्तें बहुत अच्छे से पढ़ लें. कई बार लोग बीमा कंपनी को नहीं बताते कि उन्हें कौन से टाइप का डायबिटीज है. ऐसा नहीं करना चाहिए. इसके अलावा कितने का कवर है, वेटिंग पीरियड, सब लिमिट जैसी चीजें पूरी तरह समझ लेनी चाहिए. आइए इन चीजों को और डिटेल में समझते हैं.
कितने का हो प्लान?खासकर शुगर के मरीजों को कम से कम 10 लाख का प्लान तो लेना ही चाहिए. अधिकतम कवर की कोई सीमा नहीं है, जितनी क्षमता है उतने अधिक का कवर ले लें. क्योंकि ऐसे लोगों को आने वाले समय में बीमा की जरूरत पड़ेगी इसकी काफी अधिक आशंका होती है. ऊपर से इलाज का खर्च दिन पर दिन महंगा ही होता जा रहा है. ऐसे में अधिक कवर वाली पॉलिसी काफी मददगार रहती है.
कम करवा लें वेटिंग पीरियडये जरूर चेक कर लें. हेल्थ प्लान का वेटिंग पीरियड कितना है. यानी प्लान के तहत डायबिटीज या पहले से जो भी बीमारी है उससे जुड़ा खर्चा कब से कवर होगा. पॉलिसी के नियम शर्तों में इसकी जानकारी दी होती है. इसके अलावा ये भी पूछ लें कि क्या कोई ऐसा ऑप्शन है जिससे वेटिंग पीरियड कम करवाया जा सकता है? अगर है तो उसे जरूर ले लें.
सब लिमिट जरूर चेक कर लेंहर बीमा के तहत मिलने वाली रकम कुछ तय स्थितियों के हिसाब से बंटी होती है. जिसे सब-लिमिट कहते हैं. मान लेते हैं किसी ने 10 लाख की पॉलिसी ली है. इसमें हो सकता है डायबिटीज से जुड़े खर्चों के लिए 5 लाख तक की सब-लिमिट तय हो. इससे ऊपर का जो भी खर्चा होगा वो खुद ही भरना होगा. या फिर आंख, दिल की बीमारी, किडनी ट्रांसप्लांट या डायलिसिस को लेकर कोई सीमा तय है. ये भी देख लें कि ये खर्चे कितनी बार क्लेम किए जा सकते हैं.
रूम किराये का कितना हिस्सा वापस होगा?बहुत सारे लोग पॉलिसी साइन करते समय ये नहीं देखते कि रूम के खर्चे पर कोई सीमा है या नहीं. अगर है तो कितनी. पॉलिसी में आपको ये रूम रेंट कैपिंग के नाम से लिखी मिल जाएगी. प्लान में सिंगल एसी प्राइवेट रूम कवर है या डबल शेयरिंग रूम कवर है या कोई भी रूम ले सकते हैं, ये सारी चीजें जरूर पता कर लें. सिद्धार्थ ने बताया कि मान लीजिए प्लान के आधार पर 5,000 रुपये का रूम ही कवर है. लेकिन आपने 10,000 रुपये का रूम ले लिया.
ऐसे में बीमा कंपनी की तरफ से हॉस्पिटल के रूम पर सिर्फ आधा खर्चा यानी 5,000 रुपये ही मिलेगा. इतना ही नहीं, डॉक्टर और डायग्नोसिस, टेस्ट जैसे बाकी खर्चे भी इसी अनुपात में मिलेंगे. यानी कि अगर कुल बिल दो लाख का आया है तो आपको सिर्फ एक लाख रुपये ही मिलेंगे. इसलिए रूम रेंट कैपिंग समझना बेहद जरूरी है. आजकल ज्यादातर कंपनियां रूम रेंट पर कोई सीमा नहीं लगा रही हैं. आप जिस तरह के रूम में चाहें भर्ती हो सकते हैं.
कौन सा खर्चा कवर होगा कौन सा नहीं?लगभग सभी तरह के हेल्थ प्लान हॉस्पिटल में भर्ती होने का खर्चा तो कवर करते हैं. लेकिन फिर भी रूम रेंट वगैरह की सीमा जरूर चेक कर लें. प्लान में ओपीडी बेनेफिट है या नहीं. चूंकि शुगर मरीजों को अक्सर डॉक्टर की सलाह लेनी पड़ती है, टेस्ट भी आए दिन कराने पड़ते हैं, ऐसे में इन लोगों का हर महीने 7 से 8 हजार का खर्चा आ ही जाता है. ऐसे में ओपीडी कवर बहुत काम आता है. कंपनी ने ओरिजनल प्लान में ये सुविधा दी है तो बहुत बढ़िया. अगर नहीं है, तो पता कर लें कि थोड़ा ज्यादा प्रीमियम देकर अलग से ओपीडी कवर लेने का ऑप्शन है या नहीं.
छुटपुटिया खर्चे को इग्नोर न करेंहॉस्पिटल में भर्ती होने पर कई तरह के छोटे-छोटे खर्चे होते हैं जिन्हें कंपनियां अक्सर कवर नहीं करती हैं. जैसे- बेडशीट, मेडिकल ग्लव्स, पीपीई किट वगैरह, ये कंज्यूमेबल एक्सपेंस कहलाते हैं. सुनने में लगता है कि इन चीजों पर कितना ही खर्च हो जाएगा. लेकिन हकीकत ये है कि आपके कुल खर्चे में इन चीजों की 5-7 फीसदी हिस्सेदारी होती है. उदाहरण के तौर पर अगर 1 लाख का बिल आया है तो आठ से दस हजार रुपये इन्हीं चीजों का खर्चा हो सकता है. इसलिए थोड़ा ज्यादा प्रीमियम देकर आप इन खर्चों को भी कवर करा लेंगे तो सही रहेगा.
कौन सा ऑपरेशन होगा कवर?बहुत खतरनाक शुगर लेवल के साथ जी रहे मरीजों के केस में कई बार शरीर का अंग ऑपरेट करके निकालना पड़ता है या नकली अंग लगाना पड़ता है. इसे एम्प्यूटेशन कहते हैं. ऐसे लोगों को ये जरूर चेक कर लेना चाहिए कि प्लान में एम्प्यूटेशन का खर्चा कवर है या नहीं.
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