एक शाम थी, जो कपड़े उतार रही थी. रात आनी थी. रंगीन. टीवी अब सिर्फ दूरदर्शन नहीं रह गया था. बहुत सारे टीवी आ गए थे. सब पर ‘हुस्नपरी तू जानेजहां, तू सबसे हंसी, तू सबसे जवां’ के नारे लगते. हमने भी निरमा संग फेरे लगा लिए थे. अपने हिस्से एक घोड़ा आ गया था, जो पहली बार ‘मस्ती’ में दिखा था. मर्जी का मालिक. ‘मनोहर कहानियां’ में मिला था. साथ में चिकनाई युक्त लिखा था. समझ नहीं आया. समझ आने में वक्त लगता है.
हां, तो ये एक शाम का किस्सा है. मगर किस्से सीधे-सरल नहीं होते. वो व्रत कथाएं होती हैं. किस्सों में बदमाशी का संपुट जरूरी है. शाम थी. बाथरूम था. हम थे. नंगे थे. साबुन था. मगर ये क्या. ये निरमा नहीं था. ये कोई हरा साबुन था. गमकौआ. जैसे ‘मैला आंचल’ की कमला के पास होता था. संघ के विद्यालय का सुंदर इस्तेमाल. कलाइयों के सहारे. साबुन को घुमा दिया. नथुनों की तरफ. प्राणायम की पहली दशा. पूरक. भरपूर सांस. भरपेट. और सब सुगंध भीतर.
पेट में नींबू की खट्टई जम गई. बाहर आए, तो हुस्नपरी भूल चुके थे. शाम धुंआ-धुंआ हो गई थी. रात को रंगीन होना था. वाया टीवी. टीवी पर आई गमकौआ साबुन वाली लड़की. जिससे हमारा रिश्ता था. देह का. लड़की ऊधम मचा रही थी. पानी के झरने के नीचे. एक बड़ा सा पत्ता लिए गिटार बजा रही थी. गिटार इंग्लिश मीडियम के लड़के बजाते थे. लड़कियां सुनती थीं. आग तापती हुई. ये आग गांव सी नहीं होती थी. इसके इर्द-गिर्द ओवरकोट और मफलर के बीच से झांकते सलोने चेहरे डांस करते थे.
दिल का आलम मैं क्या बताऊं तुझे
इक चेहरे ने बहुत प्यार से देखा मुझे
ये चेहरा एक लड़की का था. पर ये पहली लड़की न थी, जिसने मुझे देखा हो. पर पहली ही तो थी, जिसके गाल में डिंपल पड़ते थे. हमारे जैसे. हम-तुम. इसका नाम नहीं पता था. इश्क के लिए नाम से पहले चेहरे की जरूरत होती है. चेहरा क्या होता है. मुहर समझ लीजिए. जो प्रार्थनापत्र पर लग जाए, तो सारा जहां आपका. वर्ना कूड़ादान तो है ही.
फिर सोलहवां साल आया. बाली उमर को खूब सलाम किए. पर जतन कम था. फिर इक शाम आई. उस दिन अपने दीनदयाल नगर वाले कमरे की रद्दी बेची थी. 60 रुपए में. पहला मन तो किया टैंपो पकड़ जाएं. घंटाघर रेलवे स्टेशन से मस्तराम खरीद लाएं. कॉमिक्स एक रूपये रोज के किराए पर चलती थी. और मस्तराम दो रुपये. मनोरंजन से तनोरंजन महंगा होना भी चाहिए. स्थूल का पेट थुलथुल होता है.
होता तो इश्क भी है. जो उस शाम होना था. इसलिए मस्तराम वेटिंग लिस्ट में चले गए. कन्फर्म हुआ टिकट. एक फिल्म का. गुरुदेव सिनेमा में. सब सूफी लग रहा था. परीकथा सी निर्दोष प्रेम कहानी का आंचल लहरा रहा था. पर तभी वो आ गई. वो. जो पहली शाम बाथरूम में मिली थी.
नायक तेल लगाए किनारे की मांग खींचे बैठा था. नायिका की देह से ठहाकों के झरने फूट रहे थे. कितने होमो सेपियंस होंगे, जिनकी आवाज हंसती हुई हो. मुस्काती नहीं. बाकायदा हंसती. पेट के भीतर से बावड़ीभर का रास्ता तय कर सफेद डैने फैलाए उजासी हंसी. नायिका बर्गर खा रही थी. उसके सुंदर दांतों में पत्ता गोभी चिपक गया था. जो तब तक मैंने नहीं खाया था, क्योंकि किसी ने बताया था कि नाले के किनारे उगता है. कोई गरम मसाला उस पत्ता गोभी के प्रति गर्माहट पैदा नहीं कर पाया. पर ये नायिका थी. मसाला नहीं. तो प्यार हो गया. पेयर में. क्वीन कवर एक साथ. पत्ता गोभी भी अच्छा. और तुम तो अच्छी हो ही.
शमशेर बहादुर ने मेरे वास्ते तुम्हें ध्यान में धर ही लिखा होगा.
आह, तुम्हारे दांतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है
रफ कट में पत्ता गोभी रहा होगा. बाद में नामवर सिंह ने ही पक्का दूब से रिप्लेस कर दिया होगा. आलोचकों का यही तो है. फील में ढील नहीं देते.
और वो. अब भी वहीं थी. मुझे चबातीं. बर्गर के बहाने. और फिर एकदम से बाथरूम वाली सनसनी कनपटी से रिस कान की लौ तक पहुंच गई. उसने खाते हुए बस इतना ही तो पूछा था.
‘आर यू वर्जिन.’
और हमको पता था. शंख के निशान वाले भार्गव डिक्शनरी की कसम कि इसका मतलब क्या होता है. लड़के की हालत खराब हो गई.
आज पलट देखता हूं, तो वो स्त्री मुक्ति का कितना क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी क्षण था. एक लड़की का यूं अकुंठ भाव से अपने होने वाले पति से पूछना, ‘सेक्स किया है’. ये पूछना. मगर भच्च नहीं, तरल ढंग से. कुछ चालीस एक मिनट बीते और जिया जलने लगा. जां भी. सब कुछ नैनों तले हो रहा था. जो हो रहा था, उसे हिंदी में बयान करना मुमकिन नहीं था. इसलिए कवि अजनबी हो गया. स्वर मिल से तमिल निकल रही थी.
याद था तो रेत का टापू. कभी बनता. कभी पानी में मिलता. कभी उसके पैरों तले ढहता. काले लिबास में लिपटी देह. जैसे कालिदास की कलम से पैदा हुई हो. उसकी देह और नाव का अगला हिस्सा, एक हो गए. सफेद के उभार के लिए.
वो बहुत गोरी थी. क्रीम वाली नहीं. दुनियावी भी नहीं. स्वर्ग के भरम जी. ऊपर से आई होगी. बाद में पता चला. यही सच था. पहाड़ से आई थी. मैदान को मुक्त करने. गंगा तू बहती है क्यों. भूपेन दा. आपका शुक्रिया.
और भइया. अब ‘ऐजी ओजी’ का जमाना तो रहा नहीं था. तो नाम लेकर बुलाते हैं. कब तक वो और नायिका कहेंगे. प्रीती, प्रीति, प्रिटी, प्रीटी. प्रीत ही. कितने नाम. एक ही. मगर कितने ढंगों से. हिंदी वाले सुमन आचार्य जी पढ़ा रहे हैं. भ्रांतिमान अलंकार. ‘बच्चों, जब रंग, गंध, रूप, आकार, कर्म एक से हों, तो भूल से प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आभास होता है.’ यही भ्रांतिमान अलंकार है. क्या कोई मेधावी छात्र इसका उदाहरण बता सकता है.
मैंने फुसफुसाकर छंद पड़ा. मुक्तक. प्रीती, प्रीति, प्रिटी. प्रीत ही. अर्थ खोला. ऐसी भयानक समानता जो चीजों की. कि एक को दूसरा समझ लिया जाए.
और एक बात और समझ ली जाए साधु श्रोताओं. नायक जो था. जो कि नायक कतई नहीं था. क्योंकि वो हम थे. वो आखिरी में धमाके में मर गया था. प्रीति बच गई थी. पनियाली आंखें लिए. इत्ती बड़ी. दिल किया छाती से भींच लू. गुनगुनाऊं.
ए अजनबी तू भी कभी
आवाज दे कहीं से.
उस तक आवाज पहुंच गई. साल भी नहीं बीता था. सोलहवां भी नहीं बीता था. और वो बुलबुलों से भरे टब में नहा रही थी. फिर लाल टीशर्ट, ब्लैक स्कर्ट में बास्केटबॉल कोर्ट पर दौड़ रही थी. उसने बॉल छोड़ दी. हवा में हाथ पसार चिपका लिए. कह दिया. मुझे सीने से लगाए. मुझे सांसों में बसाए. मैंने फिर प्राणायम वाली सांस ली. पूरक. कुंभक से आगे रेचक पर बढ़े. सांस छोड़ने. और छूटती सांस के साथ नींबू फटने लगे.
मेरे ख्वाबों में जो आए
मेरी नीदों को चुराए
मेरा दिल धड़काए
मेरे होश उड़ाए
साजन
आएगा
आएगा
आएगा
साजन
और अब जो ये रिश्ता जुड़ गया था. तो बहुत बुरा लगा. उस कमीने ने जब शिमला के एक घास वाले मैदान पर प्रीति के साथ सेक्स किया. कित्ता भद्दा लगता है पढ़ने, सुनने, कहने में ही. सेक्स. उस वक्त यही लगता था. खैर. क्या कहना. आखिर में वो उस चोमू चंद्रचूण के पास लौट आई थी. वो चंद्रचूण नहीं, हम जैसे घसियार लौंडों का प्रतिनिधि था.
उसने संघर्ष किया. डर के खिलाफ. हमने उसे दाद दी. मगर अब उम्र बढ़ रही थी. रेखें फूट चुकी थीं. मसें भर चुकी थीं. फिल्म सुहागरात की तरफ बढ़नी चाहिए थी. बढ़ी. और ये क्या. जैसा सही में होता है, वैसा वहां भी हो गया.
जानम देख लो
मिट गईं दूरियां
मैं यहां हूं
यहां हूं
यहां हूं
यहां
तुम छुपा न सकोगी
मैं वो राज हूं
तुम भुला न सकोगी
वो अंदाज हूं
गूंजता हूं जो दिल में
तो हैरान हो क्यों
मैं तुम्हारे ही
दिल की तो आवाज हूं
नायिका के बाल ऐसे हो गए थे, जैसे रात मेंहदी की सेज पर सोए हों. आंखें गाढ़ी भूरी. किनारे काजल की मेढ़. और उससे रिसता पानी. जिसे पोछने के लिए हाथ बढ़ाया. हटाया तो हटा नहीं. बांह तुम्हारी कील में फंस गई थी. बड़ी सी. प्रीति को पता चल गया था.
उसका चेहरा दरिया के मानिंद हो चला था. उत्ताल हवा बह रही थी. डूबने वाला बस एक बार लहर पर टिकना चाहता था. और उसके लिए नाक की वो मोटी सी कील काम आई. कुछ पल के लिए डूबता मस्तुल वहां फंस गया. फिर डूबने के लिए. बचने के लिए नहीं. वो तो निरीह मनुज की मुई किस्मत में बदा है. मरने से पहले आंख भर उसे देख लेने के लिए. ताकि जब पानी में गर्माहट गुमा चुकी देह मिले, तो उसे पता चल जाए. पता नहीं चलेगा जी. क्रिमिनल साइकॉलजी जो पढ़ी है उसने.
गुनाह ही तो था. यूं उसे देखना. एक गड़हे से बाहर ही न निकालना.
तुम्हारे डिंपल पड़ते हैं.
हां.
मेरे भी.
पता है मुझे.
अच्छा. और क्या पता है.
यही कि अब कुछ पता न चले
इस इलहाम के बाद…
डॉक्टर साहब ने आला हटाया. बड़बड़ाहट सुनने के लिए उसकी जरूरत नहीं थी. बैरिटोन में बोले, ‘बचाया तो उसे जाता है विजय बाबू, जो बचना चाहे. जब मरीज दुआ में मर्ज मांगे तो कोई क्या करे.’
जोर का बुखार आया था उस रात. जो अब तक नहीं उतरा है. पढ़ा नहीं. डॉक साब क्या बोल गए हैं.
और बुखार वाली नींद में नजर क्या आता है. एक लड़की. जिसके सिर से घुंघराले बाल छितराए हैं कंधों पर. और हर बाल से एक स्वर झर रहा है. नींबू वाले झरने की तरह. जो जमीन पर गिरता है तो ये आवाज आती है.
प्यार बिन जीने में रखा क्या है
प्यार जिसको नहीं वो तनहा है
प्यार सौ रंग लेके आता है
प्यार ही जिंदगी सजाता है
लोग छुप छुपके प्यार करते हैं
जाने क्यों साफ कहते डरते हैं
ये आखिरी लाइन ही हमारा हासिल है.
प्रीति. बस प्रीत ही.
और अंत में..
फौजी अफसर की बहादुर बेटी. तुम्हें सौ-सौ सलाम. जब चंकी पांडे मुकर गए. दाऊद के खौफ से. तब उदय प्रकाश ने कविता लिखी. मगर जब तुम नहीं मुकरीं. भरत शाह वाले मामले में. अपने बयान से. माफिया के डर को दबोच लिया. तब किसी कवि ने कविता नहीं लिखी.
जो नहीं लिखा गया वो हुआ ही नहीं. ऐसा तो नहीं है न प्रीति. जैसे हमारा प्यार.
लिरिल के एड में प्रीति जिंटाः
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