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चांद की मिट्टी पर उगे पौधे का सच!

Moon Soil पर Plant उगाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े?

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चांद की मिट्टी में उगा पौधा. (सभी तस्वीरें पीटीआई से साभार हैं)
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आयुष
9 जून 2022 (Updated: 10 जून 2022, 16:20 IST)
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गैंग्स ऑफ वासेपुर में पीयूष मिश्रा ने गाया है- इक बगल में चांद होगा, इक बगल में रोटियां. यहां जबरन साइंस घुसाने के लिए माफ कीजिएगा. लेकिन चांद पर रोटी की चादर बिछाने के लिए पहले वहां फसल उगानी होगी.

आज से करीब 50 साल पहले इंसान ने चांद पर कदम रखा. लेकिन हमारी जात कभी वहां टिक नहीं पाई. कहीं भी टिकने के लिए तीन चीज़ें चाहिए होती हैं. रोटी, कपड़ा और मकान. कपड़ा मान लो एस्ट्रोनॉट का सूट है. मकान यानी मून बेस भी बना लिया जाएगा. लेकिन सवाल ये है कि रोटी कहां से लाएंगे. इस सवाल का जवाब मीलों लंबा है. लेकिन साल 2022 के माह-ए-मई में एक छोटा सा कदम उस तरफ बढ़ा दिया गया है.

13 मई 2022 को पहली बार चांद की मिट्टी पर पौधे उगाने की पुष्टि हुई. चांद पर रोटी की कहानी जो 50 साल पहले शुरू हुई थी, वो यहां तक कैसे पहुंची? आगे कहां तक पहुंचेगी? इस घटना के मायने क्या हैं? साइंसकारी का एक एपिसोड इसी कहानी को समर्पित.

चांद पर 'जेसीबी की खुदाई'

अंतरिक्ष की ज़्यादातर कहानियों की तरह ये कहानी भी शुरू होती है स्पेस रेस से. दूसरे विश्व युद्ध से फुरसत होने के बाद अमेरिका और रूस के बीच शीत युद्ध शुरू हो गया. दोनों देश हर चीज़ में कॉम्पिटिशन करने लग गए. जब धरती से बोर हो गए, अंतरिक्ष में रेस लगाने लगे.

माहौल ऐसा खिंच गया कि देखा जाने लगा कि पहले कौन क्या करता है. रूस ने पहला अंतरिक्षयात्री स्पेस में भेजा. यूरी गगारिन नाम था उनका. अमेरिका को ये बात चिपरी लग गई. अमेरिका ने इंसान को चांद पर भेजने का टारगेट रखा. और 1969 में अमेरिका ये कर दिखाया. तीन साल(1969-72) में अमेरिका ने कुल 12 लोगों को चांद पर भेजा. रूस अपना एक भी आदमी चांद पर नहीं भेज पाया.

अब ऐसे माहौल में लाज़िम था कि रूस अमेरिका से कह दे. ‘ठीक है, हम अपने आदमी चांद पर नहीं भेज पाए. लेकिन तुम्हारे वाले चांद से कौनसी  खाक बीन लाए?’ यहां अमेरिका लपककर जवाब दे देगा - ‘अरे मजाक-मजाक में 400 किलो सामान हो गया.'

तीन साल में अमरीकी एस्ट्रोनॉट बोरा भरभर के सामान बटोर लाए. चांद से कुल 382 किलोग्राम चट्टानें, कंकड़, रेत, धूल और कोर सैंपल्स पृथ्वी पर लाए गए. चांद पर खुदाई करके लाए गए इस पूरे माल को ‘लूनर रिगोलिथ’ कहते हैं.

लैटिन में ‘लूना’ का मतलब होता है चांद. ‘रिगोलिथ’ माने किसी ग्रह या उपग्रह की बाहरी सतह. लूनर रिगोलिथ का मतलब हुआ चांद से ऊपर-ऊपर से खोदकर लाई गई सामग्री. इसे भाषा की सहूलियत के लिए हम चांद की मिट्टी कहेंगे. 

NASA ने दी 12 ग्राम मिट्टी

चांद पर मनुष्य भेजने वाले इस प्रोग्राम को नासा ने ‘अपोलो प्रोग्राम’ का नाम दिया. अपोलो प्रोग्राम के लोगों ने बड़ी दूर की सोच रखी थी. उनने सोचा कि ‘यार आज तो हमारे पास कायदे की टेक्नोलॉजी नहीं है. लेकिन भविष्य में हम तरक्की करेंगे. तो ऐसा करते हैं, ये चांद की मिट्टी बचाकर रखते हैं. और फ्यूचर में बेहतरीन टेक्नोलॉजी की मदद से समझा जाएगा.’

2022 में यही हुआ. यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के कुछ वैज्ञानिक नासा के पास गए. इन वैज्ञानिकों ने कहा कि यार अपोलो मिशन में जो चांद से मिट्टी लाए थे, उसमें से हमें चार ग्राम मिट्टी दे दो.

पांडवों ने कौरवों से पांच गांव मांगे थे. वो नहीं दिए, सो महाभारत हो गई. इसलिए नासा वालों ने समझदारी दिखाई. नासा ने कहा, ‘अरे कैसी बात कर रहे हो. ये लो 12 ग्राम मिट्टी रखो.’

नासा से 12 ग्राम चांद की मिट्टी पाने के बाद ये फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट काम पे जुट गए. उनको पता करना था कि क्या चांद की मिट्टी पर पौधे उगाए जा सकते हैं? महीनों शोध के बाद जवाब मिला, हां ऐसा किया जा सकता है.  

स्पेस वाले बागवान 

इस एक्सपेरिमेंट के लिए एक खास पौधे का इस्तेमाल किया गया. Arabidopsis thaliana. इस पौधे का नाम आपने शायद ही पहले कभी सुना हो. इसके बारे में इतना जान लीजिए कि ये ब्रॉकली और फूल-गोभी का रिश्तेदार है.

लेकिन इसी पौधे को क्यों चुना गया? क्योंकि ये एक ऐसा पौधा है जिसके ऊपर बहुत रिसर्च हो चुकी है. वैज्ञानिकों को इसके बारे में ऑलरेडी बहुत कुछ पता है. इसका जेनेटिक कोड भी रिकॉर्ड किया जा चुका है. तो किसी भी नए एक्सपेरिमेंट में इस पौधे में होने वाले बदलाव को बेहतर ढंग से स्टडी किया जा सकता है. इसलिए चांद की मिट्टी पर उगाने के लिए इस पौधे को चुना गया.

इस एक्सपेरिमेंट के लिए अपोलो 11, 12 और 17 मिशन की एक-एक ग्राम चांद वाली मिट्टी ली गई. ये तीनों मिशन चांद के अलग-अलग इलाकों में लैंड हुए थे. इन तीनों इलाकों की मिट्टी डिफरेंट है. एक-एक ग्राम मिट्टी को तीन छोटे ट्यूब्स में पानी और बीज के साथ मिलाया गया. और पोषण के लिए इनमें रोज़ाना एक न्यूट्रिएंट सॉल्यूशन डाला गया.

इन तीन के अलावा अन्य चीज़ों में भी उसी समय ये बीज लगाए गए. जैसे कि ज्वालामुखी की राख और पृथ्वी के कुछ दुर्गम इलाकों से लिए गए सैम्पल्स. इन्हें तुलनात्मक अध्यन के लिए रखा गया. ये देखने के लिए कि पृथ्वी के कठोर इलाकों की तुलना में चांद की मिट्टी कैसे परफॉर्म करती है.

कुल-मिलाकर वैज्ञानिकों के पास कुल छह सैंपल्स हो गए. जिनमें से तीन चांद की मिट्टी के थे. और तीन पृथ्वी के. फिर शुरू हुआ खेल. 

ये तो सफर-सफर की बात है

बीज रोपने के दो दिन बाद ये सभी अंकुरित होने लगे. ये देखकर वैज्ञानिक बहुत खुश हुए. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि चांद की मिट्टी वाले पौधे उगेंगे. इससे ये पुष्टि हुई कि पौधों के अंकुरित होने में चांद की मिट्टी कोई दिक्कत पैदा नहीं करती. छठवें दिन तक करीब हर पौधा एक-जैैसा दिख रहा था. लेकिन छठवें दिन के बाद पौधों ने अलग-अलग रास्ते पकड़ लिए. चांद की मिट्टी वाले पौधे जूझने लगे. उनकी ग्रोथ धीमी हो गई. इनकी कुछ पत्तियों में लाल निशान पड़ने लगे. और कुछ पत्तियां पूरी तरह विकसित नहीं हो पाईं. खैर, आधे और धीमे ही सही, लेकिन चांद की मिट्टी पर भी पौधे बढ़ रहे थे.

खास बात ये थी कि चांद की मिट्टी के ही अलग-अलग सैंपल्स अलग-अलग प्रतिक्रिया दिखा रहे थे. अपोलो 11 का सैंपल बाकी दो के मुकाबले कमज़ोर पड़ने लगा. ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि चांद के अलग-अलग इलाकों में सूर्य से आने वाले रेडिएशन की मात्रा अलग होती है. इससे वहां की मिट्टी में फर्क पड़ता है. कुछ और दिन बाद कोई भी नंगी आंखों से देखकर बता सकता था कि चांद वाले तीन पौधे बाकी तीन से अलग दिखाई दे रहे हैं.

बीस दिन के बाद इन पौधों की जेनेटिक स्टडी की जाने लगी. जीन्स हर जीव की बुनियाद तय करते हैं. वैज्ञानिक ये देखना चाहते थे कि पौधों में किस तरह के जेनेटिक बदलाव आ रहे हैं. जेनेटिक स्टडी से पता चला कि चांद की मिट्टी में लगे पौधे तनाव महसूस कर रहे हैं. इस तरह का तनाव तब देखा जाता है, जब मिट्टी में बहुत ज़्यादा सॉल्ट और हैवी मेटल्स होते हैं.

तो कुल-जमा बात ये है कि

·  चांद की मिट्टी पर पौधे उगाए जा सकते हैं. 
·  चांद की मिट्टी में पौधों के लिए एक स्ट्रेस भरा माहौल है. यानी ये पौधे तनाव महसूस करते हैं. 
·  चांद के अलग-अलग इलाकों की मिट्टी में पौधे अलग तरीके से रिएक्ट करते हैं.

अब आगे क्या होगा? 

अब भविष्य के लिए बहुत सारे सवाल हैं. आगे ये देखा जाना है कि पौधे लगाने से चांद की मिट्टी में क्या बदलाव आते हैं? क्या इन पौधों के जीन्स में इस तरह छेड़खानी की जा सकती है कि ये उस तनाव को झेल पाएं? क्या चांद की इस स्टडी से हमें मंगल ग्रह पर पौधे उगाने में कुछ मदद मिल सकती है? इस तरह के कई छोटे-बड़े सवाल हैं.

लेकिन मन में एक सवाल शुरू से उठ रहा होगा कि ये सब करने की क्या ज़रूरत है?

आपको शुरू में अपोलो मिशन्स के बारे में बताया था. उन अपोलो मिशन्स के बारे में एक और फैक्ट ये है कि आखिरी अपोलो मिशन 1972 में गया है. उसके बाद नासा ने लोगों को चांद पर भेजना बंद कर दिया. अमेरिका के अलावा कोई और देश कभी चांद पर किसी इंसान को नहीं पहुंचा पाया. मतलब 50 साल से चांद पर कोई होमो सेपियन नहीं गया है.

लेकिन अमेरिका दोबारा चांद पर जाने की तैयारी कर रहा है. नासा के इस प्रोग्राम का नाम है - ‘आर्टेमिस प्रोग्राम’. चांद पर पहला मिशन साल 2025 में भेजने का प्लान है. पिछली बार(अपोलो) की तरह इस बार नासा चांद पर टहलने नहीं जा रहा है. इस बार प्लान लंबा रुकने का है. We are going to the Moon — to stay. इस तरह के ट्वीट आ रहे हैं नासा की तरफ से. 

ऐसे में, ये रिसर्च चांद पर भोजन और ऑक्सीजन की बुनियाद बन सकती है. सिर्फ चांद पर ही नहीं, बल्की मंगल और बाहरी अंतरिक्ष में डेरा जमाने के लिए भी ये रिसर्च मददगार साबित होगी.

इस रिसर्च का एक बोनस पॉइंट है. इस तरह के प्रयोग से खेती-किसानी में इनोवेशन आस लगी रहती है. पृथ्वी के वो इलाके, जहां कुछ भी उगाना बहुत मुश्किल है, जहां भोजन की कमी है, वहां इससे मदद मिल सकती है. ये समझने में मदद मिलेगी कि पौधे तनावयुक्त माहौल में कैसे फल-फूल सकते हैं.

त्रिभुवन ने कहा है - ‘उन्हें मंगल पर जीवन की तलाश है, मंगलमय जीवन की नहीं.’ तो मंगल पर जीवन ठीक है, लेकिन धरती पर जीवन भी मंगलमय हो. ये जीवन मंगलमय होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए? इस रिसर्च के बारे में अपनी राय हमें कॉमेंट सेक्शन में बताइए.

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