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अंपायर के हाथ में वो कौन सी मशीन होती है जिससे टेस्ट मैच रुक जाता है?

अंपायर कैसे तय करता है अच्छी रोशनी, खराब रोशनी.

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कानपुर टेस्ट में रौशनी चेक करते अंपायर. फोटो: AP
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विपिन
5 दिसंबर 2021 (Updated: 5 दिसंबर 2021, 10:26 AM IST) कॉमेंट्स
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क्रिकेट के इतिहास में साल 1979 में पहली बार डे-नाइट मैच खेला गया था. सिडनी के क्रिकेट ग्राउंड पर. यह वनडे मैच था. लेकिन डे-नाइट टेस्ट मैच होने में इस मैच के बाद 36 साल और लगे. 2015 में पहली बार डे-नाइट टेस्ट खेला गया. कहने का मतलब है कि क्रिकेट के इतिहास में लंबे समय तक सूरज की रोशनी में ही मैच खेले जाते थे. इसकी कई वजहें रहीं. इनमें से एक वजह ये थी कि क्रिकेट ग्राउंड पर फ्लड लाइट जिसे फ्लड लाइट्स कहते हैं उसका इंतजाम नहीं था. लेकिन जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी इंप्रूव होती गई फ्लड लाइट्स में डे-नाइट मैच खेलने का चलन बढ़ता गया.
हालांकि टेस्ट मैच के साथ एक और समस्या थी. टेस्ट मैच की लाल गेंद से रात में मैच कैसे खेला जाए. इसका जवाब मिला लगभग तीन दशक बाद, जब टेस्ट क्रिकेट की गेंद का रंग गुलाबी किया गया. और टेस्ट भी डे-नाइट फॉर्मेट में होने लगे. इसे पिंक बॉल टेस्ट कहा गया.
टेस्ट क्रिकेट में डे-नाइट टेस्ट आने का मतलब ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सभी मैच डे-नाइट फॉर्मेट में खेले जाते हैं. आज भी दिन के मुकाबले सबसे ज़्यादा खेले जाते हैं. ऐसे में अकसर दिन का मैच देख रहे फैंस के ज़हन में ये सवाल ज़रूर आता है कि जब क्रिकेट के स्टेडियम में इतनी बड़ी-बड़ी और महंगी लाइट्स होती हैं तो फिर क्यों 'Bad Lights stops play' वाली पट्टी टीवी पर चल जाती है.  उन लाइट्स को जलाकर क्यों नहीं दिन में खेले जाने वाले टेस्ट मैच को पूरा किया जाता.
ऐसा ही सवाल दिमाग में तब भी आया जब भारत और न्यूज़ीलैंड के बीच खेले गए कानपुर टेस्ट में खराब रोशनी के चलते मैच का लंबा वक्त बर्बाद हो गया और टीम इंडिया महज़ एक विकेट से मुकाबला जीतने से चूक गई. इस मैच में पहले दिन 84 ओवर का खेल हुआ, दूसरे दिन 84.1 एक ओवर का खेल खेला जा सका. तीसरे दिन 90.3 ओवर का खेल खेला गया. चौथे दिन फिर से सिर्फ 80 ओवर खेले गए. जबकि आखिरी दिन 94 ओवर का खेल खेला गया. लेकिन मैच के कोटे के 450 ओवर पूरे नहीं किए जा सके. पांच दिन के अंदर मैच में 432.4 ओवर का खेल ही खेला जा सका.
Team India Kanpur
खराब रोशनी के बाद खेल रुकने पर मैदान से लौटती भारतीय टीम. फोटो: AP

टेस्ट में आधे से ज़्यादा वक्त खराब रोशनी की वजह से भारतीय टीम कानपुर टेस्ट के आखिरी पलों में आखिरी विकेट के लिए संघर्ष कर रही थी. लेकिन बार-बार अंपायर की तरफ से ये इशारा मिल रहा था कि मैच किसी भी पल खत्म हो सकता है. टीवी पर देखने पर या घर के आसपास देखने पर तो हमें ये ही लगता है कि यार लाइट तो कितनी सही है. इतने में तो एक-डेढ़ घंटा और खेला जा सकता है. फिर क्यों ये मैच आगे नहीं बढ़ाया जा रहा. लेकिन इंटरनेशनल क्रिकेट मैचों को लेकर ICC के कुछ नियम हैं. इस स्टोरी में हम उन्हीं नियमों को समझेंगे जिसने पहले टेस्ट मैच को एक विकेट पहले ही खत्म करवा दिया था.
ICC की वर्ल्ड टेस्ट चैम्पियनशिप प्लेइंग कंडीशंस वाले नियमों के मुताबिक. एक पॉइंट है Fitness For Play. इसमें वैसे तो मैच में बाधा वाली बहुत सारी बातें बताईं गई हैं. लेकिन अपने काम का पॉइंट है मौसम और लाइट्स वाला. मैदान पर जब भी खराब रोशनी होती है तो अंपायर इस बात का फैसला करते हैं कि खेल खेलने लायक स्थिति है या नहीं. मैच कब तक चलेगा कैसे तय होता है? दरअसल जब दिन का खेल खत्म होना होता है. तो उसमें ये माना जाता है कि या तो 90 ओवर पूरे हों या फिर दिन के खेल का समय पूरा हो जाए. अगर शुरुआती दिनों में कुछ ओवर कम फेंके गए हैं तो आगे के दिनों में समय को बढ़ाकर भी कोटा पूरा किया जा सकता है. उसके बाद खेल को खत्म मान लिया जाता है.
अब ये खराब रोशनी वाली बात तय कैसे होती है. इसके लिए हमने एक सीनियर अंपायर और सीनियर क्रिकेट रिपोर्टर से बात की. दोनों ने बताया कि टेस्ट मैच पांच दिन तक खेला जाता है. इसमें टेस्ट मैच में जिस भी दिन या जिस भी वक्त अंपायर्स को अपनी आंखों से देखने पर लगेगा कि रोशनी कम हो रही है. तो वो उस रोशनी की रीडिंग ले लेंगे. ये रीडिंग एक उपकरण से ली जाती है. ये रीडिंग सुबह के सेशन, दोपहर के सेशन या शाम के सेशन में भी लिया जा सकती है. सबसे कम रोशनी वाली रीडिंग को अंपायर्स अपने पास पर्ची में लिखकर रख लेते हैं. दिन की उस रीडिंग को पैमाना माना जाता है और इस रेंज से नीचे रोशनी गई तो खेल रोक दिया जाता है.
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कप्तान अजिंक्य रहाणे अंपायर्स से बातचीत करते हुए. फोटो: AP

इस रोशनी में भी दो स्टैंडर्ड होते हैं. मीडियम पेसर्स के लिए अलग रोशनी और स्पिनर्स के लिए अलग रोशनी वाली रीडिंग लिखी जाती है. इसमें भी ये तय किया जाता है कि कितनी रोशनी तक फास्ट बोलर गेंदबाज़ी कर सकता है और कितनी रोशनी तक स्पिनर. रोशनी के मानक पैमाने पर एक फास्ट बोलर गेंदबाज़ी करता है. लेकिन जब रोशनी उससे कम हो जाती है तो वह गेंदबाजी नहीं कर सकता. हालांकि ऐसे में एक विकल्प होता है स्पिन गेंदबाजी का. स्पिन गेंदबाज उस रोशनी में भी गेंदबाजी कर सकता है जिस रोशनी में फास्ट बॉलर नहीं कर सकता.
यहां पर खराब रोशनी के पैमाने पर पहुंचने के बाद भी अगर दोनों कप्तान खेलने के लिए तैयार होते हैं तो फिर उस उपकरण से वो वाली लाइट रीडिंग ले ली जाती है. और फिर उस वक्त की लाइट की रीडिंग को खराब रोशनी का पैमाना माना जाता है. हालांकि इसमें भी एक फेर ये है कि अगर कप्तानों के खेलने के लिए तैयार होने के बाद भी कोई खिलाड़ी कह दे कि मैं इस रोशनी में नहीं खेलना चाह रहा. तो खेल रोक दिया जाएगा.
कभी-कभी बाउंड्री लाइन पर जाकर भी रोशनी चेक की जाती है. क्योंकि कई बार बल्लेबाज़ी करने वाली टीम को जीत दिख रही होती है और बल्लेबाज़ जीतना चाहता है. ऐसे में बल्लेबाज़ कहता है मुझे गेंद दिख रही है. लेकिन बाउंड्री पर खड़ा फील्डर गेंद दिखने की बात से इंकार कर दे तो ऐसे में अंपायर बाउंड्री के पास जाकर भी रोशनी चेक करते हैं.
अब एक सवाल ये उठता है कि यार फ्लड लाइट का भी तो इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन ये काम रातों-रात नहीं होता. इसके लिए सीरीज़ से पहले ही तय होता है कि टेस्ट मैचों में अगर खराब रोशनी होती है तो क्या फ्लड लाइट्स का इस्तेमाल किया जाएगा. अकसर विदेशी दौरों पर जाने वाली टीमें इसके पक्ष में नहीं रहती. क्योंकि उन्हें डर रहता है कि घरेलू परिस्थितियों में ज़्यादा लंबा मैच चलना ड्रॉ की संभावना को भी खत्म कर सकता है. हालांकि अब क्रिकेट में ऐसी चीज़ें भी बदल रही हैं. जिन सीरीज़ में फ्लड लाइट का इस्तेमाल होता है वहां भी अगर फ्लड लाइट की रोशनी नैचुरल लाइट से ज़्यादा होने लगे तो मैच रोक जा सकता है. अंपायर के हाथ में क्या होता है? अंपायर के हाथ में अकसर एक यंत्र दिखता है. हमने तो अकसर टीवी पर ही देखा है तो बहुत अधिक समझ नहीं आता है कि क्या मामला होता है. मैदान पर गए दर्शक बता पाएं तो अलग बात है. लेकिन फिर भी उसे कहा जाता है लाइट मीटर. यानी लाइट का पैमाना मापने वाला मीटर. ये ज़िम्मेदारी ICC की होती है कि वो मैच या सीरीज़ से पहले मैच के अधिकारियों को लाइट मीटर उपलब्ध करवाए. मैच में इस्तेमाल होने वाले सभी मीटर समान रूप से कैलिब्रेटेड होते हैं. जिससे की किसी भी मीटिर में रीडिंग का फ़र्क ना आए.
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लाइट मीटर से रोशनी चेक करते अंपायर्स. फोटो: AP

इस मीटर का इस्तेमाल ये चेक करने के लिए होता है कि मैदान पर जो रोशनी आ रही है वो कितनी है और फिर उस रीडिंग को अंपायर्स नोट कर लेते हैं. अगर मीटर ने इशारा दे दिया कि नहीं रोशनी ज़रूरत से कम है. तो फिर खेल वहीं रोकने का संकेत दे दिया जाता है. मैदान पर लाइट मीटर का इस्तेमाल मैदानी अंपायर करते हैं. लाइट मीटर के अंदर एक तरफ लाइट सेंसर लगा होता है जो कि रोशनी को माप सकता है. जबकि दूसरी तरफ स्क्रीन पर रीडिंग दिखती है. अकसर अंपायर पिच के सिरे पर खड़े होकर साइट स्क्रीन की तरफ इसे रखकर रीडिंग लेते हैं.
लाइट मापने के लिए कोई एक सेट आंकड़ा या अंक नहीं होता कि इतने नंबर का मतलब खराब रोशनी और इतने नंबर का मतलब अच्छी रोशनी. हर मैदान का अपना अलग इंफ्रास्ट्रक्चर होता है. कई मैदानों पर दर्शकों को ओपन एरिया में बिठाया जाता है. जबकि कई मैदानों पर दर्शकों के लिए छत होती है. कई मैदानों पर हरियाली बहुत ज़्यादा होती है. जिससे रोशनी का फर्क पड़ता है. जबकि कई मैदानों पर ये कम होती है. हर मैदान पर अंपायर की आंखें ही रोशनी पर अंतिम फैसला लेकर लाइट मीटर का इस्तेमाल करती हैं.
इस तरह से लाइट मीटिर वाला पूरा खेल क्रिकेट के मैदान पर चलता है.

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