मूवी रिव्यू: दी बैटमैन
कई जगह पर्फ़ेक्शन और डिटेलिंग को लेकर ‘दी बैटमैन’ का आग्रह प्रभावित करता है.
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DC की मूवीज़ डार्क होती हैं. लेकिन क्या ‘दी बैटमैन’ (The Batman) डार्क कही जा सकती है? मेरे ख़याल से नहीं. हाँ, अगर दो बल्ब और जला लिए होते तब जाकर ये मूवी डार्क वाली कैटेगरी में बेशक आ जाती. अब आप पूछेंगे, ‘भई! कहना क्या चाहते हो?’ आइए इस बात को समझने के लिए दी बैटमैन का ‘रिव्यू’ किया जाए.
# ज़ल्दी बोल पनवेल निकलना है
सबसे पहले फटाफट मोड में ‘स्पॉइलर-मुक्त’ कहानी समझते हैं. एक शहर जिसकी दशा, दिशा और नाम तक ‘लॉर्ड ऑफ़ दी रिंग्स’ के ‘गोलम’ सरीखी है. (अच्छा है कि DC की कहानियाँ किसी दूसरे यूनिवर्स में होती हैं, वरना इसके भी क्लाइमैक्स में आपको ध्वस्त होती स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी और आपदाग्रस्त न्यूयॉर्क सिटी दिखती.) तो इस दरकते शहर, ‘गोथम’ को ढहने से बचाने के लिए है सुपरहीरो. सुपरहीरो, जो हर जगह नहीं हो सकता, इसलिए कई जगह उसके साये भर से गुंडों में दहशत है. या मे बी, जस्ट मे बी, सुपरहीरो ही वो साया है…
“अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर. हर ज़ुल्म मिटाने को, एक मसीहा निकलता है. जिसे लोग बैटमैन कहते हैं…”
डार्क-डार्कर-डार्केस्ट टाइप स्क्रिप्ट्स में ब्राइटनेस तो पहले ही कम रहती है. फिर ऐसा सुपरहीरो, स्क्रिप्ट का कॉन्ट्रास्ट भी कम कर देता है. आपको समझ में नहीं आता कि ब्लैक कहां है, व्हाइट कहां. हीरो कौन, विलेन कौन? और तब दिक्कत आती है क्लाइमैक्स में. क्रिएटर के लिए विलेन भारी पड़ जाता है.
वैसे ‘दी बैटमैन’ में सिर्फ़ एक खलनायक नहीं, लेकिन फिर भी मूवी ‘खलनायकों’ की मल्टी स्टारर नहीं दरअसल खलनायकों की ‘इनसेप्शन’ कहलाएगी. इसके चलते आप दो बड़े और कुछ छोटे-छोटे क्लाइमैक्सेज़ से रूबरू होते हैं. लगता है कि सेकेंड लास्ट क्लाइमैक्स ही लास्ट क्लाइमैक्स है. और फिर ‘दी बैटमैन’ का फ़ाइनल क्लाइमैक्स, ‘कल हो न हो’ में शाहरुख़ के किरदार की मौत वाला क्लाइमैक्स हो जाता है. ऑफ़ कोर्स, ज़्यादा डार्क, ज़्यादा फ़ास्ट-पेस और ज़्यादा VFX लिए हुए.
लीड कैरेक्टर्स, साइड कैरेक्टर्स, विलेन सभी DC यूनिवर्स से हैं. बेशक मूवी की कहानी, कॉमिक्स से अलग हो, लेकिन कैरेक्टर्स के ट्रेट्स सेम कॉमिक्स वाले हैं. अमेरिका नया देश है, जहां कॉमिक्स ही दंत कथाएँ हैं. तो दंत कथाओं की कहानियाँ और रेफ़रेंस तो समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं लेकिन किरदार नहीं बदलते हैं. यूं बैटमैन के प्रशंसक इस मूवी को देखे बिना भी जानते हैं कि ‘रिडलर’, बैटमैन से पहेलियाँ बूझने को कहता है. इन्हें बूझते-बूझते बैटमैन विलेन से होता हुआ अंततः ख़ुद तक की यात्रा करता है.
# हम भी बना लेंगे
क्रिस्टोफ़र नोलन ने बैटमैन वाली मूवीज़ के लिए ऐसा मानक सेट किया है कि अब हर बैटमैन मूवी की तुलना उन मूवीज़ से होना लाज़िमी है. यूं 'दी बैटमैन' के डायरेक्टर मैट रीव्ज़ ने क्रिस्टोफ़र की मूवी देखकर, ‘हम भी बना लेंगे’ कहा हो, या न कहा हो, लेकिन आप ज़रूर जानना चाहेंगे कि आउट ऑफ़ क्रिस्टोफ़र नोलन ये मूवी कितने अंक पाती है. हम आगे इस बात का ख़्याल रखेंगे.
# होली क्रैप, आई एम बैटमैन
बात ये है कि बैटमैन सुपरहीरो होते हुए भी सुपरहीरो नहीं है, क्यूंकि उसके पास कोई स्पेशल पावर्स नहीं है. ऐसा ही एक भारतीय सुपर हीरो भी है. ‘सुपर कमांडो ध्रुव’. इंट्रेस्टिंगली, ‘रिडलर’ से इंस्पायर्ड ‘सुपर कमांडो ध्रुव’ का भी एक विलेन है, ‘क्विज़ मास्टर’.
तो बैटमैन की यही ‘सुपर हीरो’ के बजाय एक आम हीरो वाली इमेज एस्टैब्लिश करने में क्रिस्टोफ़र की ट्रायलॉजी बड़ी भूमिका निभाती है. लेकिन कमाल ये कि ‘दी बैटमैन’ इस इमेज को एक नॉच ऊपर पहुंचा देती है. और काफ़ी हद तक सफल भी होती है. रॉबर्ट पैटिनसन द्वारा अभिनीत बैटमैन टटपूँजिए गुंडों से भी पिट जाने में कोताही नहीं बरतता. और हां, नोलन के बैटमैन के इतर ये बैटमैन कॉकी नहीं, रेक्लूसिव है. अहंकारी नहीं समावेशी है. या मेटाफ़र में कहें तो, ‘आयरन मैन’ कम, ‘कैप्टन अमेरिका’ ज़्यादा है. वो हुड लगाकर घूमता है. फ़िगरेटिवली और लिटररी भी गोथमवासियों को अंधेरे से उजाले की ओर ले जाता दिखता है.
# स्वागत नहीं करोगे हमारा
‘जोकर’ और ‘रिडलर’ DC यूनिवर्स में बैटमेन के लिए वही हैं, जो डायमंड कॉमिक्स (DC) वाले यूनिवर्स में साबू और चाचा-चौधरी के लिए राका है. क्रिस्टोफ़र के ‘दी डार्क नाइट’ के जोकर से ‘दी बैटमैन’ के रिडलर की तुलना (हम नहीं करेंगे तो और करेंगे, सब करेंगे) की जाए तो पॉल फ़्रेंकलिन ने भी रिडलर (और एडवर्ड नेशटन) का रोल बड़ा कमाल निभाया है. ख़ास तौर पर क्लाइमैक्स के अंतिम कुछ मिनटों में. लेकिन ‘वाई सो सीरियस’ वाला वो ‘मोजो’ मिसिंग है. वो ‘कूलत्व’ मिसिंग है. वो ‘सीटी मार’ डायलॉग्स मिसिंग हैं. हालांकि रिडलर के डायलॉग भी फ़िलॉसफ़िकल हैं, लेकिन वो ‘एकैडमिक्स’ के लिहाज़ से फ़िलॉसफ़िकल हैं, कोट और वन-लाइनर्स बनने से चूक जाते हैं.
‘जोकर’ के चलते, हीथ लेजर अमर हो गए, वॉकिंग फ़ीनिक्स ऑस्कर पा गए. ‘रिडलर’ के चलते पॉल फ़्रैंकलिन ऐसा कुछ कर पाएँगे कि नहीं, ये तो नहीं पता. लेकिन वो बेहतरीन अभिनय करने के बावजूद दर्शकों के वास्ते वो दहशत, वो स्पाइन-चिलिंग अनुभव पैदा नहीं कर पाते. ज़ाहिर है कि इस किरदार की स्क्रिप्टिंग में कहीं कमी रह गई.
# वक्त बदल गए, जज़्बात बदल गए-
‘दी बैटमैन’ की थीम ‘वेंजेंस’ है. यानी बदला. और थीम की बात इसलिए क्यूंकि क्रिस्टोफ़र नोलन की तीनों बैटमैन मूवी की थीम है. बैटमैन-बिगंस की ‘फियर’, दी डार्क नाइट की, ‘केऑस’ और दी डार्क नाइट राइज़ेज़ की, ‘पेन’. और हर मूवी में इन मनोभावों से उबरने की बात है. ठीक ऐसे ही मैट रीव्स की ‘दी बैटमैन’ में भी बदले वाली थीम बेशक पूरी फ़िल्म के दौरान तारी रहती है. मूवी उसके पक्ष में बात करती है. लेकिन अंत में अचानक से स्टैंड बदलते हुए बताती है कि क्यूं ‘बदला’ एक ग़लत मनोभाव है. यहां पर ‘अचानक’ का कोनोटेशन, नेगेटिव नहीं है, और न ही ये ‘अचानक’ मूवी का सरप्राइज़िंग एलिमेंट है.
# प्यार की भी वैल्यू है, हाफ़ अ परसेंट
बैटमैन की साइड किक और म्यूज़ है ‘कैट-वुमन’. लेकिन हम जानते हैं कि DC की महा-सीरियस मूवीज़ में साइड किक, ‘कॉमिक रिलीफ़’ तो नहीं ही देने वाला. कैट-वुमन, कैट-वुमन है क्यूंकि उसके पास ढेरों बिल्लियाँ हैं, क्यूंकि (जैसा वो ख़ुद एक जगह कहती है) कैट और बैट में क़ाफ़ियाबंदी है, क्यूंकि (अगेन, जैसा वो ख़ुद एक जगह कहती है) She has a thing for Strays. और स्ट्रे तो, बैटमैन भी कम नहीं है. You know what I mean.
कैट-वुमन के रोल में ज़ोई क्रेविट्ज, पता नहीं क्यूं हैली बेरी का नॉस्टैल्ज़िया देती हैं.
# कभी-कभी लगता है, कैमराइच भगवान है
मूवी का ‘भाव पक्ष’ ही नहीं कला पक्ष भी अंधकारमय है. इसके सामने ‘गेम ऑफ़ थ्रोंस’ का लास्ट सीज़न भी आपको टाईड का विज्ञापन लगेगा.
एक फ़ाइट सीन तो सिर्फ़ स्टेनगन की रोशनी के चलते दिख पाता है. कमाल का कैमरा और लाइट वर्क है उसमें. अन्यथा भी कैमरावर्क, सिनेमैटोग्राफ़ी, VFX और एडिटिंग सराहनीय है. हालांकि आग से गाड़ी के निकलने वाले क्लीशे सीन भी हैं लेकिन शायद डायरेक्टर की ज़िद के चलते, कि मैं इसे अपने तरह से दिखाऊँगा.
अंधकार के चलते मूवी में आपको रंगो का स्पेक्ट्रम नहीं सिर्फ़ 50 शेड्स ऑफ़ ग्रे दिखते हैं. लाल पीले टाइप ‘गोविन्दा’ कलर्स के लिए आपको मूवी ख़त्म होने का इंतज़ार करना पड़ेगा. क्यूंकि अंधेरे हॉल से बाहर निकलने पर आप जो भी पहला दृश्य देखेंगे वो आपको ‘दी बैटमैन’ से ज़्यादा सिनेमैटिक लगेगा.
# मेरी ज़बान टूट गई
यूं तो इसे स्टैंड अलोन फ़िल्म के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. लेकिन बैटमैन फ़ैन्स को ये मूवी शायद इस हद तक पसंद आएगी कि एंड का क्लिफहैंगर उन्हें एक उम्मीद की किरण सरीखा दिखे. प्रचार और क्लिफहैंगर के मेल से पैदा हुई यही ‘काउंटर इंट्यूटिव एप्रोच, DC और बैटमैन फ़ैन्स के लिए उदासीनता का बायस बनती है’.
# आर्थिक स्थिति ठीक न है म्हारी
बैटमैन की या कहें कि ब्रूस वेन की किसी भी नई मूवी की बात आएगी तो साथ में सवाल आएगा कि इस मूवी में कौन से नए गैजेट्स इस्तेमाल किए गए हैं? मार्वल फ़ैन्स को इट मे साउंड लाइक आयरन मैन. ब्रूस वेन भी अरबपति है. अनाथ, लेकिन अरबपति. इस मूवी में भी ध्यान रखा गया है कि बैटमैन के गैजेट्स रीपिट न हों. चाहे दीवार पर वर्टिकली भागना हो, उड़ने वाले पैराशूट हों, या गाड़ी हो. और इन सभी गैजेट्स में एक और चीज़ नई है, कि ये सारे गैजेट्स पुराने, जंक खाए दिखते हैं. क्रिस्टन बेल की तरह चमचमाते नहीं.
# ग़ज़ब बेज़्ज़ती है
मूवी में ब्रूस यानी बैटमैन के इतिहास को भी हौले से छुआ गया है. हार्ड कोर DC फ़ैन्स इससे चकित हो सकते हैं. ये उनके लिए ट्रीट है. ब्रूस वेन के पिता जैसे ‘अच्छे किरदारों’ की ‘ग़ज़ब बेइज़्ज़ती’ करने से ये मूवी शाई अवे नहीं करती.
# मैं, मेरे को सब आता है, मैं एक्सपर्ट हूँ
कई जगह पर्फ़ेक्शन और डिटेलिंग को लेकर ‘दी बैटमैन’ का आग्रह प्रभावित करता है. जैसे ग्रीटिंग-कार्ड सीधा न रखे होने के बदले उल्टा रखा होना. लेकिन फिर कुछेक जगह ऐसी हैं जहां पर पर्फ़ेक्शन को और साधा जा सकता था. जैसे कांटैक्ट लेंस वाले कैमरे से आने वाली लाइव वीडियो का बीच-बीच में ब्लैक आउट ‘न’ होना. अगर होती, तो लगता कि, ‘हाँ! पलक झपकाने का भी ख़्याल रखा गया है.’
# हाँ ये कर लो पहले
फ़िल्म का पहला हाफ़ किसी साइको थ्रिलर या सीरियल किलर मूवी सरीखा है. ‘सेवन’ की याद दिलाता. बेशक ‘दी बैटमैन’ एक जासूसी मूवी की तरह प्रमोट की गई है, और बैटमैन और रिडलर को क्रमशः शर्लोक होम्स और प्रफ़ेसर ज़ेम्स मोरियार्टी की तरह प्रोजेक्ट किया जा रहा है, लेकिन फिर रिडलर और बैटमैन की फ़िज़िकल भिड़ंत दिखाना भी ज़रूरी है. तो अपने स्पेक्ट्रम को बढ़ाने के लिए फ़िल्म पर्याप्त लंबी हो जाती है.
# सौ दो सौ ज़्यादा ले-ले लैंड करा दे
अब आप कहेंगे कि भई सब छोड़ो, ये बताओ मूवी कैसी है? देखें या न देखें. इसका उत्तर ये है कि इस मूवी पर ओपिनियन्स का ध्रुविकरण है. लेकिन अन्य मूवीज़ में अगर ध्रुविकरण होता तो यूं होता कि या तो लोगों को मूवी बहुत अच्छी लगती है, या बहुत बुरी लगती है. वन-टाइम वॉच या ओके-ओके वाली समीक्षा कम ही आएगी उन मूवीज़ के लिए. जबकि ‘दी बैटमैन’ को लेकर जो दो पोल्स, दो ध्रुव बने हैं, उनमें से एक है जिन्हें मूवी बेइंतिहा पसंद आएगी, और दूसरे हैं जो मूवी देखने जाएँगे ही नहीं. कितना ही कनविंस कर लो.