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सुशीला देवी: कार बेची, लोन लिया और अब बर्मिंघम से ला रही हैं कॉमनवेल्थ का सिल्वर मेडल!

सालों से इतिहास रच रहीं सुशीला की कहानी.

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Shushila Devi. Getty Images
सुशीला देवी. फोटो: Getty Images
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1 अगस्त 2022 (Updated: 1 अगस्त 2022, 11:54 PM IST) कॉमेंट्स
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साल 2009. भारत के उत्तर-पूर्वी इलाके से निकलकर आई एक लड़की. ठीक से हिंदी ना बोल पाने वाली इस लड़की का खेल किसी भी भाषा से साफ बोलता था. और ये खेल आज भी ऐसा बोल रहा है कि सोमवार, 1 अगस्त की रात इस लड़की ने कॉमनवेल्थ गेम्स का सिल्वर मेडल अपने नाम कर लिया.

ये कहानी है भारतीय जूडोका सुशीला देवी की. सोमवार रात 27 साल की सुशीला ने 48kg कैटेगरी में भारत को सिल्वर मेडल दिलाया है. लेकिन सुशीला के इस मेडल के पीछे का संघर्ष जानना बेहद ज़रूरी है. क्योंकि अगर किसी खिलाड़ी को देश के लिए खेलने के लिए अपनी गाड़ी बेचनी पड़ी, लोन लेना पड़े और खेल छोड़ने के बारे में सोचना पड़े… तो उसकी कहानी सुनानी जरूरी हो जाती है.

# खेल छोड़ने का कर लिया था विचार

इंडियन एक्सप्रेस में छपी शाहिद जज की एक रिपोर्ट से शुरू करते हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 के नवंबर में सुशीला जापान के ओसाका में ग्रैंड स्लैम खेलने गईं. जहां उनके नाम का ऐलान हुआ. लेकिन वो उसे समझ नहीं पाईं. क्योंकि ऐलान जापानी भाषा में हुआ था. और वहां अकेली पहुंची सुशीला को जापानी आती ही नहीं. और इसके चलते उनके विरोधी को वॉकओवर दे दिया गया.

क्योंकि जूडो में नियम है कि अगर आप एक बार नाम के ऐलान के बाद 10 सेकंड तक नहीं आते हैं, तो फिर आपको बाहर मान लिया जाता है. लेकिन अब सवाल ये है कि इस बड़े टूर्नामेंट में सुशीला को अकेले क्यों जाना पड़ा? दरअसल बात ये है कि सुशीला यहां बिना किसी सपोर्ट के आई थीं. और इस टूर्नामेंट के बाद उन्होंने अपने कोच जीवन कुमार शर्मा को बता दिया कि अब उनके पास खेलने के लिए और पैसा नहीं बचा है. वो अपना सबकुछ खर्च कर चुकी हैं.

दरअसल, 2018 एशियन गेम्स से पहले सुशीला को हैमस्ट्रिंग इंजरी हुई. उन्होंने ट्रायल्स से नाम वापस ले लिया. और तभी उनके स्पॉन्सर्स ने भी अपनी पार्टनरशिप तोड़ दी. जूडो के खेल में आपको किसी भी बड़े टूर्नामेंट में क्वॉलिफाई करने से पहले कम से कम 20-30 टूर्नामेंट्स में खेलने होते हैं. सुशीला के कोच ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में एक बार बताया था कि ज़्यादातर बार दौरों पर सुशीला अपना खर्च खुद ही उठाती थीं. सरकार से उन्हें अक्सर ही कोई मदद नहीं मिलती. जिसकी वजह से वो ज्यादातर बार अकेले ही टूर्नामेंट्स में हिस्सा लेने जाती थीं.

कोच जीवन शर्मा के साथ सुशीला देवी. 

खेल के प्रति अपने प्यार के लिए उन्होंने 2016 में खरीदी अपनी कार को भी बेच दिया. उन्होंने कई लोन्स लिए. ओसाका से लेकर बूडापेस्ट तक… वो तमाम शहरों, देशों तक खुद के खर्च पर जाती रहीं, लड़ती रहीं. लेकिन जब हालात एकदम खराब हो गए, जेब खाली हो गई तो उन्होंने हार मान ली. इसके बाद द्रोणाचार्य अवार्ड कोच जीवन कुमार शर्मा ने उनकी मदद की. उन्होंने कई बार सुशीला लिए टिकेट्स का इंतज़ाम किया और स्पॉन्सर्स को फिर से सुशीला से जुड़ने के लिए मनाया.

# कैसे देखा सुशीला ने इस खेल का सपना

सुशीला के घर में शुरुआत से ही जूडो का माहौल था. सुशीला के अंकल दिनिक सिंह एक इंटरनेशनल प्लेयर और कोच भी रहे. जिन्होंने सुशीला के भाई शिलाक्षी सिंह को इस खेल के लिए प्रेरित किया. बचपन में अपने भाई को देख सुशीला भी उनके साथ-साथ हो लीं. स्पोर्ट्सस्टार वेबसाइट से बात करते हुए एक बार सुशीला के भाई ने बताया था कि जब भी वो ट्रेनिंग के लिए जाते तो सुशीला उनके साथ हो जाती. वो हमेशा शिलाक्षी का पीछा करतीं.

जल्दी ही भाई शिलाक्षी इम्फाल की स्पोर्ट्स अथोरिटी ऑफ इंडिया (SAI) में जूडो की क्लासेज लेने लगे. घर से 10 किलोमीटर दूर वो हर रोज़ ट्रेनिंग के लिए जाते. तो सुशीला भी उनकी साइकल के पीछे बैठ जातीं.

वहां भाई के साथ-साथ वो भी जूडे क्लासेज़ लेने लगीं. और यहां से ही उनके सफर की शुरुआत हुई. साईं सेंटर में उनके खेल को देख ये बात समझ आने लगी कि ये लड़की आगे जा सकती है. इसके बाद सुशीला को पटियाला भेज दिया गया. यहां पर वो नेशनल सेंटर ऑफ एक्सिलेंस में तैयारी करने लगीं. नौ साल की सुशीला जब पटियाला पहुंची तो उन्हें हिंदी भी नहीं आती थी.

सुशीला देवी. 

सुशीला को अब भी ये बात महसूस नहीं हुई थी कि वो इंटरनेशनल लेवल पर खेल सकती हैं, या भारत के लिए ओलंपिक्स खेल सकती हैं. लेकिन यहां मेरीकॉम और बाकी खेलों से जुड़े सीनियर्स को देखकर उन्हें ये बात समझ आई कि बड़ा बनना है तो मेहनत करनी होगी. और यहीं पर सुशीला को मिले उनके कोच जीवन कुमार शर्मा. जिन्होंने सुशीला के टैलेंट को पहचाना को उन्हें एक सही दिशा दिखाई.

द्रोणाचार्य अवार्ड जीत चुके कोच शर्मा ने एक बार कहा था,

'मैंने उसके अंदर जो पहली चीज़ देखी वो थी उसकी दृढ़शक्ति. वो आसानी से हार नहीं मानती थी. और हां वो कभी भी हार से डरती नहीं थी और उस हार को एक्सेप्ट करना भी उसे आता था.'

सुशीला ने इसके बाद देश के लिए ढेर सारे मेडल्स जीते. साल 2014 में ग्लास्गो कॉमनवेल्थ में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता. इसके बाद 2018 और 2019 में उन्होंने हॉन्ग-कॉन्ग एशिया ओपन में भी सिल्वर मेडल अपने नाम किया. 2019 साउथ एशियन गेम्स में उन्हें गोल्ड मेडल मिला. जिसके बाद वो 2020 समर ओलंपिक्स में क्वॉलिफाई करने वाली अकेली भारतीय जूडो खिलाड़ी भी रहीं. अब कॉमनवेल्थ गेम्स में सिल्वर मेडल जीत उन्होंने एक बार फिर इतिहास रच दिया है.

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