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जब एक निर्दलीय विधायक ने बीजेपी-कांग्रेस दोनों को रुलाया

हिमाचल प्रदेश के इस चुनाव में पता चला था, पुरानी खुन्नस कितना नुकसान करवाती है.

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1998 के चुनाव में निर्दलीय लड़े रमेश ने बीजेपी-कांग्रेस दोनों को खूब दौड़ाया था.
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सौरभ द्विवेदी
30 अक्तूबर 2017 (Updated: 29 अक्तूबर 2017, 03:41 AM IST) कॉमेंट्स
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1998 के चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी, दोनों को 31-31 सीटें मिलीं. सिटिंग सीएम थे वीरभद्र सिंह. बीजेपी के विधायक दल के नेता थे प्रेम कुमार धूमल. पांच कैंडिडेट जीते थे पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस के टिकट पर. और एक जीता था निर्दलीय. यही निर्दलीय सबसे कीमती बन गया था. क्योंकि ये बीजेपी-कांग्रेस में से जिसके पास जाता, उसका सरकार बनाने का दावा मजबूत हो जाता. और राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना पड़ता. पंडित सुखराम सौदेबाजी में मशगूल थे. कौन उन्हें ज्यादा वजन देगा. उन्हें पता था कि आखिर में उनके ही समर्थन से सरकार बनेगी. मगर फौरी तौर पर तो नतीजे आने के बाद निर्दलीय की मान मनौवल हो रही थी. और कौन थे ये महाशय. ये थे रमेश धवाला. बीजेपी के कार्यकर्ता रहे जीवन भर. ज्वालामुखी सीट से टिकट मांगा. पार्टी ने नहीं दिया. लड़ गए निर्दलीय और जीत भी गए. अब बीजेपी वाले इनके पीछे-पीछे और ये आगे-आगे.

जब रास्ते में लपका कांग्रेस ने

ज्वाला से अपनी जीत का सर्टिफिकेट लेकर रमेश धवाला घर पहुंचे. शाम को समर्थकों से मिले. अगले दिन शिमला के लिए निकले. भाजपा वालों को भरोसा था कि पुराने संबंध, संघ और विचारधारा का हवाला देकर धवाला को अपनी तरफ खींच लेंगे. वह शिमला में उनका इंतजार कर रहे थे. मगर वीरभद्र ने यूं ही 12 साल सूबा नहीं संभाला था. उन्होंने रास्ते में ही फील्डिंग सेट कर दी. धवाला कांग्रेस के नेताओं से शिमला पहुंचने से पहले ही मिल लिए और फिर सीधे पहुंचे वीरभद्र सिंह के पास. उनके समर्थन वाले कागज पर दस्तखत कर दिए. तब तक हिमाचल विकास कांग्रेस के आका पंडित सुखराम ने अपने पत्ते नहीं खोले थे.

पहले मौका वीरभद्र को मिला पर सरकार बनाने में बाजी धूमल ने मारी.
पहले मौका वीरभद्र को मिला पर सरकार बनाने में बाजी धूमल ने मारी.

अब सबकी निगाहें राज्यपाल वीएस रमादेवी पर थीं. उनके सामने दो नजीर थीं. सबसे बड़ी पार्टी, या सबसे बड़ा गठबंधन. उन्होंने 32 विधायकों का समर्थन पाए वीरभद्र को न्योता दिया. उन्होंने शपथ ली, मगर तय समय में सपोर्ट नहीं जुटा पाए तो इस्तीफा दे दिया. अब सपोर्ट किसका नहीं जुटा पाए, ये तो जाहिर ही है. पंडित सुखराम का. वीरभद्र सुखराम की समर्थन की शर्तें पूरी नहीं कर पाए.

पुरानी खुन्नस पड़ी भारी

सुखराम को पुरानी खुन्नस भी थी. 1983 में जब राजीव गांधी के दखल के बाद ठाकुर राम लाल ने सीएम की कुर्सी छोड़ी तो सबसे तगड़ा दावा उनकी कैबिनेट के पीडब्लूडी मिनिस्टर सुखराम का ही था. मगर तब आलाकमान ने दिल्ली से केंद्रीय मंत्री वीरभद्र को मुख्यमंत्री बना भेज दिया. वीरभद्र ने सात साल राज किया. तीन साल बाद फिर सत्ता में लौटे. और इस तीसरे कार्यकाल में सुखराम को सिरे से किनारे लगा दिया. सुखराम पहले तो नरसिम्हा राव की छत्रछाया में बतौर संचार मंत्री खूब पनपे, मगर फिर घोटाले में रगड़ दिए गए. कांग्रेस ने बाय कहा तो उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बना ली. मंडी में उनका रसूख ज्यादा था. गृह जनपद वाला फैक्टर. ज्यादातर विधायक वहीं से जीते उनके. मगर एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर उन्होंने वीरभद्र का खेल बिगाड़ दिया. राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सुखराम ने डिप्टी सीएम की पोस्ट समेत सभी विधायकों के लिए मंत्री पद मांगा था. वीरभद्र को अंदाजा था कि इतने पर भी सरकार पांच साल नहीं खिंच पाएगी.

पंडित सुखराम से पुरानी खुन्नस वीरभद्र को भारी पड़ी थी.
पंडित सुखराम से पुरानी खुन्नस वीरभद्र को भारी पड़ी थी.

वीरभद्र ने इस्तीफा दिया. राज्यपाल रमादेवी ने बुलाया प्रेम कुमार धूमल को. उनके पास सुखराम के समर्थन की चिट्ठी थी. एक चिट्ठी और थी. रमेश धवाला की. जी, वही रमेश धवाला जिनसे आप इस स्टोरी की शुरुआत में मिले. धवाला भी कांग्रेस का पाला छोड़कर वापस भाजपा में लौट आए थे. ये उन्हीं के समर्थन की चिट्ठी थी. ये ड्रामा नतीजे आने के बाद लगभग दो हफ्ते चला. और इसमें धवाला के खूब चर्चे रहे. धूमल ने पांच साल सरकार चलाई. उनसे शांता कुमार खेमे के कुछ विधायक नाराज भी रहे. कुछ मंत्रियों के इस्तीफे भी हुए. मगर नंबर्स के मामले में सरकार की सेहत बराबर दुरुस्त रही.



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