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एक कविता रोज: 'साला बिहारी, चोर, चीलड़, पॉकेटमार'

एक कविता रोज में आज पढ़िए अरुणाभ सौरभ की कविता 'स्साला बिहारी'.

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17 जून 2016 (Updated: 17 जून 2016, 01:11 PM IST) कॉमेंट्स
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arunabhअरुणाभ सौरभ युवा कवि हैं. सहरसा, बिहार से हैं. आजकल दिल्ली में पाए जाते हैं. हिंदी और मैथिली में कविताएं लिखते हैं. श्रमसंस्कृति को सलाम करती उनकी कविता 'वो स्साला बिहारी' बहुत चर्चित रही है. अरुणाभ ने अपनी जिंदगी का लंबा वक्त गुवाहाटी में गुजारा है वहीं इन्हें ये कविता लिखने की प्रेरणा मिली. यह कविता उनकी किताब 'दिन बनने के क्रम में' संकलित है. 

वो स्साला बिहारी

अबे तेरी... और कॉलर पकड़ तीन-चार जड़ दिए जाते हैं मुंह पर इतने से नहीं तो बिहारी मादर...चोर, चीलड़, पॉकेटमार भौंसड़ी के... सुबह हो गई चाय ला तेरी भैण की झाडू-पोछा तेरी मां लगाएगी? जब भी मैं अपने लोगों के बीच से गुजरता हूं रोजाना सुनने को मिलती हैं कानों को हिला देने वाली गालियांउनके लिए जो हर ट्रेन के जनरल डब्बे में हुजूम बनाकर चढ़े थे भागलपुर, मुजफ्फरपुर दरभंगा, सहरसा, कटिहार से सभी स्टेशनों पर दिल्ली, मुंबई, सूरत, अमृतसर, कोलकाता, गुवाहाटी जाने वाली सभी ट्रेनों में अपना गांव, अपना देस छोड़कर निकला था वो मैले-कुचैले एयरबैग लेकर दो वक़्त की रोटी पर एक चुटकी नमक दो बूंद सरसों तेल आधा प्याज के खातिर जो गांव में मिला नहीं कटिहार से पटना तक नहीं मिला और जब निकल गया वहां से, तो शौचालय के गेट पर गमछा बिछाकर बैठ गया और गंतव्य तक पहुंचने के बाद भूल गया किवो कहां है, कहां का है सीखनी शुरू कर दी हर शहर की भाषा पर स्साला बिहारी मुंह खोलते ही लोगों को पता लग जाता है देश के सभी बड़े शहरों में वो झाडू लगता रहा बरतन मांजता रहा रिक्शा खींचता रहा ठेला चलाता रहा संडास को हटाता रहा मैला ढोता रहा हर ग़म को चिलम की सोंट पर और खैनी के ताव पर भूलकर, वह बीड़ी पर बीड़ी जलाता रहा गांव पहुंचने पर भी अभ्यास किया तेरे को, मेरे को...पर हर जगह जो मिला सहर्ष स्वीकार किया झाडू, कंटर, बरतन रिक्शा, ठेला और गालियां और लात-घूसेऔर उतने पैसे, कि वो, उसका परिवार और उसकी बीड़ी, खैनी चलते रहे अपने टपकते पसीने में सीमेंट-बालू सानकर उसने कलकत्ता बनाया था अपने खून में चारकोल सानकर उसने बनाए थे दिल्ली तक जाने वाले सारे राष्ट्रीय राजमार्ग वज्र जैसी हड्डियों की ताकत से उसने खड़ी की थीं बम्बई की सारी ईमारतेंफेफड़े में घुसे जा रहे रुई के रेशे से खांसते-खांसते दम ले-लेकर उसने खड़ा किया था सूरत कितनी रातों भूख से जाग-जाग रैनबसेरा पर उसने सपने देखे थे लुधियाना, चंडीगढ़, हिसार से लेकर जमशेदपुर, रांची, बिलासपुर, दुर्गापुर, राउरकेला और रुड़की, बंगलौर तक को संवारने, निखारने के अपनी आह के दम पर उसने कितने मद्रास को चेन्नैई बंबई को मुंबई होते देखा था उसे पता था कि उसके बिना जाम ही जाती हैं हैदराबाद से लेकर शिलांग तक की सारी नालियां कितने पंजाब, कितने हरियाणा और मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ की खरीफ से लेकर रबी फसलें उसी के हाथों काटी जाएंगी फायदा चाहे जिसका भी हो धूप ने उसकी चमड़ी पर आकर कविता लिखी थी पसीने ने उसकी गंदी कमीज पर अल्पना बनाई थी रंगोली सजाई थी कुदाल ने उसकी किस्मत पर अभी अभी सितारे जड़े थे रिक्शे ने अरमान जगाया था कि अचानक उसकी बीवी चूड़ी तोड़ देती है सिन्दूर पोंछ लेती है कि ठेला पकड़े हुए हाथ अभी भी ठेला पकड़े हुए हैं और गर्दन पर खून का थक्का जम गया है वो स्साला बिहारी कट गया है, गाजर मूली की तरह सामूहिकबंबई या गुवाहाटी में और बीवियां चूड़ी तोड़ रही हैं लेकिन साला जबतक जिंदा रहा जानता था किइस देश के हिंदू समाज के लिएजितना संदेहास्पद हैमुसलमान का होनाउससे ज्यादा अभिशाप हैभारत में बिहारी साला यह भी जानता था कि बिहारी होना मतलब दिन रात खटते मजूरी करना है जी-जान से उसे मालूम था कि कहीं पकड़ा जाय झूठ-मूठ चोरी-चपारी के आरोप में तो नहीं बचाएंगे उसे जिला-जवार के अफसर बिहारी का मतलब वो जानता था कि अफसर, मंत्री, महाजन होना नहीं है बिहारी का मतलब फावड़ा चलाना है पत्थर तोड़ना है गटर साफ़ करना है दरबानी करना है चौकीदारी करना है आवाज में निरंतरता है-- ओय बिहारी तेरी मां की तेज-तेज फावड़ा चला निठल्ले यूपी बिहार के चूतिये तेरी भैण की तेरी मां की... अगर आप भी कविता/कहानी लिखते हैं, और चाहते हैं हम उसे छापें. तो अपनी कविता/कहानी टाइप करिए, और फटाफट भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर. हमें पसंद आई, तो छापेंगे.‘एक कविता रोज’ की दूसरी कविताएं पढ़ने के लिए नीचे बने ‘एक कविता रोज’ टैग पर क्लिक करिए.

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