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मेरे दर्द में भी आह की आवाज़ नहीं होती

एक कविता रोज में पढ़िए अनुपमा शर्मा की कविता 'देखता हूं अक्सर'

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5 अक्तूबर 2016 (Updated: 6 अक्तूबर 2016, 12:11 PM IST) कॉमेंट्स
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ये हैं भोपाल की अनुपमा शर्मा. लिखने-पढ़ने की शौकीन और हमारी अच्छी रीडर और दोस्त. इन्होंने पहले बॉटनी पढ़ी पर वहां मन लगा नहीं तो जर्नलिज्म किया. रहने वाली हैं भोपाल की. कभी-कभी रेडियो, मैगजीन और अलग-अलग वेबसाइट्स के लिए भी लिखती हैं. एक कविता रोज में पढ़िए अनुपमा की कविता -

देखता हूँ अक़्सर- 

इंसानियत को तार-तार होते
आँखों को ज़ार-ज़ार रोते
रक्त को धमनियों से ज्यादा सड़कों पर बहते
नन्ही देश की आशाओं को गरीबी के भँवर में खोते
आबरू छलनी हुई थी कल जिसकी ,उसी की तस्वीर में माला चढ़ते
राजनीति को अभिनय में बदलते 
दानवीय सोच को इंसानो में पनपते 
लोगो को ख़ामियों पर नाज़ करते 
खूबियों को नज़रअंदाज़ करते 
रहता हूँ शून्य शांति की आस में
खोज न जाने पूरी क्यों नही होती?
हूँ मैं भी दूरदर्शी,
जानता हूँ दुनिया ढूंढने लगी है ख़ुशी, दूसरो के ग़मों में 
ध्यान रखता हूँ तभी कि आहट को भी मेरी आहट न हो
तभी मेरे दर्द में भी आह की आवाज़ नहीं होती।
बाज़ारों में घूमता हूँ
कि सामान मिल जाए कोई
मगर कोई सामान मिले न मिले
हैसियत का सबब ज़रूर मिल जाता है
फिर कुछ इस तरह ज़रूरतों को समझाइश देता रहता  हूँ
 ग़ुरबत की दुहाई देते हुए 
हवा में उछलती है सिक्के की तरह ये किस्मत
ज़िन्दगी को देखता  हूँ कभी जीतते हुए कभी हारते हुए

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