मेरे दर्द में भी आह की आवाज़ नहीं होती
एक कविता रोज में पढ़िए अनुपमा शर्मा की कविता 'देखता हूं अक्सर'
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फोटो - thelallantop
देखता हूँ अक़्सर-
इंसानियत को तार-तार होतेआँखों को ज़ार-ज़ार रोतेरक्त को धमनियों से ज्यादा सड़कों पर बहतेनन्ही देश की आशाओं को गरीबी के भँवर में खोतेआबरू छलनी हुई थी कल जिसकी ,उसी की तस्वीर में माला चढ़तेराजनीति को अभिनय में बदलतेदानवीय सोच को इंसानो में पनपतेलोगो को ख़ामियों पर नाज़ करतेखूबियों को नज़रअंदाज़ करतेरहता हूँ शून्य शांति की आस मेंखोज न जाने पूरी क्यों नही होती?हूँ मैं भी दूरदर्शी,जानता हूँ दुनिया ढूंढने लगी है ख़ुशी, दूसरो के ग़मों मेंध्यान रखता हूँ तभी कि आहट को भी मेरी आहट न होतभी मेरे दर्द में भी आह की आवाज़ नहीं होती।बाज़ारों में घूमता हूँकि सामान मिल जाए कोईमगर कोई सामान मिले न मिलेहैसियत का सबब ज़रूर मिल जाता हैफिर कुछ इस तरह ज़रूरतों को समझाइश देता रहता हूँग़ुरबत की दुहाई देते हुएहवा में उछलती है सिक्के की तरह ये किस्मतज़िन्दगी को देखता हूँ कभी जीतते हुए कभी हारते हुए
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