बेसबब मुस्कुरा रहा है चांद, कोई साज़िश छुपा रहा है चांद
दिन गुलज़ार में गुलज़ार की चार रचनाएं, 'मेरे यार जुलाहे...गुलज़ार' से


मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे!
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते जब कोई तागा टूट गया या ख़त्म हुआ फिर से बांध के और कोई सिरा जोड़ के उसमें आगे बुनने लगते हो तेरे इस ताने में लेकिन इक भी गांठ गिरह बुनतर की देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे!
समय
मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं
क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मैले कुतबे दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है जगह-जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं जगह-जगह ढेर हो गयी हैं अज़ीम सदियां मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं
यहीं मुकद्दस हथेलियों से गिरी है मेहंदी दियों की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गयी हैं यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गयी है सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं हुरूफ़ आंखों के मिट चुके हैं
मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं यहीं कहीं ज़िंदगी के मानी गिरे हैं और गिरके खो गए हैं.
ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में एक पुराना ख़त खोला अनजाने में
जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़साने में दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में
शाम के साये बालिश्तों से नापे हैं चांद ने कितनी देर लगा दी आने में
रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे धूप उंडेलो थोड़ी-सी पैमाने में
दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है किसकी आहट सुनता हूं वीराने में
हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले उन को शायद उम्र लगेगी आने में
बेसबब मुस्कुरा रहा है चांद
बेसबब मुस्कुरा रहा है चांद कोई साज़िश छुपा रहा है चांद
जाने किस की गली से निकला है झेंपा-झेंपा-सा आ रहा है चांद
कितना ग़ाज़ा लगाया है मुंह पर धूल-ही-धूल उड़ा रहा है चांद
कैसे बैठा है छुप के पत्तों में बागबां को सता रहा है चांद
सीधा-सादा उफ़क़ से निकला था सर पे अब चढ़ता जा रहा है चांद
छू के देखा तो गर्म था माथा धूप में खेलता रहा है चांद
सारा गांव जगा के रक्खा है शाम से गुनगुना रहा है चांद
दिल अगर है तो दर्द भी होगा, उसका कोई नहीं है हल शायद