'द ग्रेट इंडियन किचन': स्वादिष्ट भोजन के पीछे की इस सच्चाई को देख हमारा सर शर्म से झुक जाना चाहिए
पुरुष का खाना बनाना क्यों सबसे बड़ा छलावा है.

"आज खाना हम बनाएंगे"
जिस दिन द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास पुरुष के मुंह से ये शब्द निकलते हैं, सबसे ज्यादा खुश और परेशान उसकी पत्नी होती है. खुश इसलिए कि अब वो अपने मायके से लेकर अपने पड़ोसियों तक हर जगह सीना चौड़ा कर बता सकती है, कि कुकिंग उसके पति ने की. जवाब में सुनने को मिलेगा कि उसके पति कितने अच्छे हैं, कितने केयरिंग हैं, कितने मॉडर्न हैं. और परेशान इसलिए कि पति को नहीं मालूम कि गरम मसाले और जीरा पाउडर के लुक्स में क्या फर्क होता है, तेल-सब्जी कहां रखी है. और किचन में होने वाले उस तांडव के बाद अंततः गर्मी में खड़े होकर रोटियां तो पत्नी को ही बेलनी हैं.
इतिहास गवाह है कि मां या पत्नी के साथ रह रहे पुरुष रोज़ का खाना नहीं बनाते. कि दाल-चावल बना दें. वे बस ख़ास डिश बनाते हैं, ख़ास दिनों पर. लॉकडाउन में इंस्पायर हो चुके पुरुष भले ही सब्जियां खुद काट लें. मगर बाकी मजदूरी पत्नी के हिस्से ही आती है. वो कहते हैं न, अनस्किल्ड लेबर.
इतिहास इस बात का भी गवाह है कि ख़ास दिनों में ख़ास व्यंजन बनाने के बाद, पत्नी के सामने चौड़ा होने और मां से दुआएं लेने के बाद पुरुष मोबाइल स्क्रोल करने या बिस्तर पर पसरने जैसे रोज़मर्रा के काम में लग जाते हैं. ठीक उस वक़्त जब पत्नी किचन में बिखरे प्याज़ के छिलकों को समेटती है. बचा हुआ खाना छोटे बर्तनों में खाली कर फ्रिज में लगाती है. गैस स्टोव पोंछती है जो रोज़ के मुकाबले ज्यादा गंदा हुआ होता है. घर में डोमेस्टिक हेल्प की सुविधा होने के बावजूद, रात को किचन तो खुद ही समेटना पड़ता है.
द ग्रेट इंडियन किचन
सबसे पहले तो मैं ये साफ़ कर दूं कि ये लेख किसी भी पुरुष पर कोई पर्सनल अटैक नहीं है. और अगर किसी को पर्सनल अटैक जैसा लगता है तो ये अच्छी बात है क्योंकि आपको अपने किचन के डायनमिक्स समझने की सख्त ज़रूरत है.
आप ये भी सोच रहे होंगे कि तमाम ख़बरों को छोड़कर आज मैं अचानक किचन पर क्यों बात कर रही हूं. तो बता दूं कि इसकी वजह एक फिल्म है. फिल्म का नाम है 'द ग्रेट इंडियन किचन'. फिल्म की सोशल मीडिया पर खूब चर्चा है. पिछले कई दिनों से कई लोग इसपर लगातार लिख रहे हैं. दूसरों को ये फिल्म देखने का सुझाव दे रहे हैं. तो हमने सोचा क्यों न आज इस फिल्म पर ही बात कर ली जाए.
फिल्म में एक लड़की है जिसकी शादी हुई है. मगर क्या शादीशुदा होना ही उसकी पूरी पहचान है? उसके मायके और ससुराल वालों को तो यही लगता है. मगर उसे नहीं लगता. वो डांस करना भी चाहती है, सिखाना भी चाहती है. मगर ससुराल वालों को शायद उनके सबसे बुरे सपनों में भी ये ख़याल नहीं आएगा कि उनकी बहू डांस करेगी.

शादी के तुरंत बाद स्वागत के समय दूल्हा-दुल्हन. (फोटो- वीडियो स्क्रीनशॉट)
ये मलयाली परिवार किसी भी आम और औसत भारतीय परिवार की तरह है. यहां औरत के काम के बारे में ज्यादा बात नहीं होती. औरत का काम अदृश्य होता है. हां वो तीन टाइम खाना बनाती है, तो? वो तो औरतें बनाती ही हैं न? इसमें डिस्कस करने वाली बात क्या है? आपकी मां बनाती थीं, अब आपकी पत्नी बनाती हैं. ऐसा ही इस घर में भी होता है.
थोड़ा आगे बढ़ते हैं. क्या आपके घर में भी ऐसा होता है या ऐसा होता था कि दादाजी को गर्म रोटियां ही पसंद थीं? उनकी अगली रोटी तब ही रखी जाए जब पिछली का आखिरी कौर चल रहा हो. ठंडा खाना क्या आपके घर में भी बेशऊर, अनकल्चर्ड होने की निशानी थी? क्या आपके घर में आज भी कहा जाता है कि स्वाद तो सिलबट्टे कि चटनी और मिट्टी के चूल्हे पर पके खाने में ही आता है?
ऐसा ही कुछ इस मलयाली परिवार में भी होता है. ससुरजी बहुत सीधे हैं. धार्मिक, सात्त्विक. ऊंची आवाज़ में बोलते तक नहीं. ऐसे गऊ आदमी को तो गर्म खाना मिलना ही चाहिए. पति भी बेचारा पूरे दिन मेहनत करता है. इतना तो घर कि औरतें कर ही सकती हैं.
सास के लिए ये नैचुरल है. रोज़ सुबह उठकर नारियल घिसना, फिर सिलबट्टे पर ताज़ा चटनी पीसना. वो बिना शिकायत के ये काम करती है. ये देखकर तुरंत समझ में आ जाता है कि इस मां के बेटे लिए क्यों औरत का पूरे दिन किचन में रहना कोई बड़ी बात नहीं है. मगर बहू के लिए सास के स्तर तक पहुंचना आसान नहीं है. वो तुरंत गरमा-गरम दोसे सर्व नहीं कर सकती. सिलबट्टा चलाना उसे नहीं आता. आग पर चावल बनाना नहीं आता. वो मिक्सी चलाती है, प्रेशर कुकर में चावल बनाती है.

खाने के बाद फिल्म में घर के मर्द टेबल कुछ इस तरह छोड़कर चले जाते थे. (फोटो- वीडियो स्क्रीनशॉट)
इसपर उसे टोका जाता है. वो हरसंभव कोशिश करती है सबके मन का खाना बनाने की. मगर इस नई शादी में अभी एक ज़रूरी दिन आना बाकी था. पीरियड का दिन. ये पीरियड उस वक़्त आया है जब सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला पर फैसला दिया है. और औरतों के हक़ में लड़ने वाली एक्टिविस्ट वीडियो सन्देश जारी कर बता रही हैं, कि आज के दौर में आप लड़कियों को किचन में नहीं कैद कर सकते. पीरियड के दिन पत्नी घर के एक अकेले कमरे में पड़ी है. पड़ोस की औरत घर की साफ़ सफ़ाई और कुकिंग करती है मगर पुरुष नहीं करते. पति कि बुआ आ जाती हैं घर संभालने. लेकिन, आई रिपीट, पुरुष घर के काम नहीं करते.
इस घर में बहू पर कोई हिंसा नहीं होती. हाथ नहीं लगाता कोई. बल्कि पति शारीरिक प्रेम के साथ-साथ कभी-कभी बाहर खिलाने भी ले जाता है. लेकिन क्या शारीरिक हिंसा ही सबकुछ होती है? क्या प्रेम और केयर के नाम पर पत्नी से दिनभर कितना भी काम करवाया जा सकता है? ऐसा हमारी मांओं ने कभी नहीं सोचा. जॉइंट फैमिली में तीन टाइम 10-10 लोगों का खाना बना रही औरतों ने नहीं सोचा. उसे कर्तव्य कि तरह निभाया. लेकिन हर लड़की वैसी नहीं होती.

खाने के बाद निकले गंदे बर्तन साफ करने की ज़िम्मेदारी भी घर की बहू पर.
खाना बनाना एक कला है. आपको तमाम कुकिंग वीडियोज और फ़ूड पॉर्न कहलाने वाली तमाम इन्स्टाग्राम पोस्ट्स ने ऐसा बताया होगा. उफ़, वो दालचीनी की खुशबू! हाय, वो जीरे का तड़कना. खाना बनाना जिनके लिए कला है उन्हें उसमें खूबसूरती ही दिखती है. दिखनी भी चाहिए. लेकिन जिनके लिए रोज़ का काम है, उन्हें उसमें प्याज़ के बिखरे छिलके, सड़ती सब्जियां, जूठन कि दुर्गंध, भिनभिनाती मक्खियां, बजबजाती नाली और पांव में चिपकता कूड़ा भी दिखता है. जो आपको इन्स्टाग्राम पर नहीं दिखता.
यदा-कदा किचन में जाकर लज्ज़तदार चिकन या उंगलियां चाटते रह जाओ, ऐसा पनीर बनाने वाले पुरुष क्या रात को सिंक में फंसी हुई जूठन भी निकालते हैं? अगर उनके घर में पत्नी है, तो नहीं.
लेकिन हलवाई तो पुरुष...
कई लोग ये भी कहते हैं कि अरे कितने बड़े-बड़े शेफ पुरुष होते हैं. हलवाई पुरुष होते हैं. वो तो रोज़ खाना ही बनाते हैं. ये बात भी बिल्कुल सच है. मगर क्या हलवाइयों और खानसामों के स्टाफ में औरतें नहीं होतीं? बिल्कुल होती हैं और वो यहां भी मजदूरी करती ही नज़र आती हैं. हमने कुछ समय पहले खान-पान इंडस्ट्री में महिलाओं कि भूमिका पर एक शो किया था. तब हमने बात की थी फ़ूड हिस्टोरियन सोहेल हाशमी से. जानिए उन्होंने क्या कहा था-
"हमारी कल्नरी हिस्ट्री का मामला है, सिर्फ इसमें ही औरतें गायब नहीं हैं. औरतें हर जगह से गायब हैं. और वो एक लॉजिक है, कि पितृसत्तात्मक समाज जो होता है, वो सारे काम जो आपको रोज़ करने होते हैं और जिसकी कोई पेमेंट नहीं मिलती है वो काम औरतें करती हैं. उसी काम को करने के अगर पैसे मिलने लगे तो मर्द करते हैं. तो इसका कोई शाही खानदान से लेना-देना नहीं है. हर जगह यही हो रहा था. सभी शाही खानदानों में खाना पकाने का काम, जो मुख्य होता था, प्रधान रसोइया या खानसामा होता था, वो मर्द होता था. और जिस पड़े पैमाने पर खाना पका करता था, उसमें और सैंकड़ों लोग काम करते थे. उसमें औरतें ज़रूर थीं. प्याज़ वगैरह छीलने का काम औरतें करती थीं. और खड़े होकर छोंकने का काम मर्द कर देते थे. रेसिपीज़ भी सुरक्षित रखी जाती थीं, और वो हमेशा बाप से बेटे को मिलती थी. इसका लॉजिक भी पितृसत्तात्मक समाज वाला ही है. ये कि ये हमारे खानदान की विरासत है, और ये अगर हमारी बेटियों को पता चल गई तो उसकी शादी के बाद ये बात दूसरे परिवार को पहुंच जाएगी."
ये आज की नहीं, सैकड़ों साल पुरानी परंपरा है कि पुरुष अगर पकवान बनाएगा तो महिला वो चीज़ बनाएगी जिसकी बात नहीं होती. "आज रोटी बहुत अच्छी बनी है." ऐसा आपने कितनी बार कहा या सुना है?
औरत को यूं आंकड़ा बनता देखिए
बात काम करने की हो रही है तो फिल्म से दूर कुछ असल आंकड़ों पर नज़र डाल लेते हैं. हमने ऐसा किया और पाया कि ये फिल्म इन्हीं आंकड़ों की कहानी है.
हमारे देश में औरत और आदमी किस तरह के कामों को कितना वक्त देते हैं. इसे लेकर बकायदा सर्वे किया गया है. भारत सरकार का सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय. ये आंकड़ों को लेकर काम करता है. सर्वे वगैरह करवाता है. इसके नेशनल स्टेटिस्टिक्स ऑफिस यानी NSO ने 29 सितंबर 2020 को एक रिपोर्ट जारी की थी. ‘भारत में समय का उपयोग-2019' के नाम से. NSO का ये सर्वे जनवरी 2019 से दिसंबर 2019 के बीच किया गया था. देश के करीब एक लाख 38 हज़ार परिवारों को इसमें शामिल किया गया था. सर्वे में ये पता चला कि आज भी हमारे देश में घर के काम का ज्यादा भार औरतों के कंधों पर ही है. खाना बनाना, साफ-सफाई जैसे घरेलू कामों में करीब 81.2 फीसद औरतें हिस्सा लेती हैं. वहीं केवल 26.1 फीसद आदमी ही ये काम करते हैं. यानी औरतों की संख्या आदमियों के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा है. जहां औरतें दिन के 299 मिनट यानी करीब 5 घंटे औसतन ये काम करती हैं. तो आदमी केवल 97 मिनट, यानी करीब डेढ़ घंटे में ही टाटा-बाय बाय कह देते हैं.
अब घर के बुजुर्गों और बच्चों की देखरेख की बात करते हैं. इस काम के पैसे नहीं मिलते. इसमें भी औरतें औसतन दिन के 2 घंटे 14 मिनट का समय देती हैं. आदमी केवल 1 घंटे 16 मिनट ही ये काम करते हैं. इस अनपेड काम में भी औरतें आदमियों की तुलना में दोगुना समय दे रही हैं.
अगर पेड कामकाज की बात करें, यानी ऐसे काम जिन्हें करने पर पैसे मिलते हैं, तो 57.3 फीसद आदमी ऐसे कामों का हिस्सा हैं. वहीं औरतों की संख्या केवल 18.4 फीसद है.
NSO के ही सर्वे को अगर आगे देखें, तो ये पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों में 93.2 फीसद औरतें, अनपेड डोमेस्टिक काम करती हैं. और शहरी इलाकों में ये आंकड़ा 88.8 फीसद है. BBC के सौतिक बिस्वास की इस साल जनवरी में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि देश में करीब 160 मिलियन यानी 16 करोड़ औरतें होम मेकर्स हैं, जो घर की सफाई, कपड़े, खाना बनाना, परिवार को संभालने जैसे काम करती हैं. दिन के पांच-छह घंटे ये काम करती हैं.
और जहां पैसे मिलते भी हैं...
हम ये नहीं कह रहे कि औरतें प्रोफेशनली एक्टिव नहीं हैं. वो हैं. समय के साथ नौकरी करने वाली औरतों की संख्या भी बढ़ रही है. लेकिन ये संख्या पुरुषों के मुकाबले काफी कम है. और यहां पर भी औरतें डिस्क्रिमिनेशन का शिकार होती रही हैं. कैसे? पुरुषों के मुकाबले कम सैलेरी पाकर. मार्च 2019 में मॉन्स्टर सैलेरी इन्डेक्स पब्लिश हुआ था, जिसमें पता चला था कि हमारे देश में औरतें आज भी पुरुषों के मुकाबले 19 फीसद कम कमाई करती हैं. सर्वे ने पुरुष और महिलाओं को मिलने वाली सैलेरी का औसत निकाला, पता चला कि जहां हर एक घंटे के लिए साल 2018 में किसी पुरुष को 242.49 रुपए मिले थे, तो वहीं औरतों को प्रति घंटे के हिसाब से 196.3 रुपए दिए गए थे. IT जैसी बड़ी इंडस्ट्री में भी सैलेरी गैप पसरा हुआ है. यहां पुरुष और महिलाओं की सैलेरी में 26 फीसद का अंतर है. वहीं मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में पुरुष महिलाओं के मुकाबले 24 फीसद ज्यादा कमाते हैं.
दिसंबर 2019 में वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम (WEF)की ग्लोबल जेंडर गैप पर एक रिपोर्ट आई थी. इसमें बताया गया था कि जेंडर के पहलू पर किस देश में सबसे ज्यादा समानता है. 149 देशों की लिस्ट थी. इस लिस्ट में पहले नंबर पर आइसलैंड था, यानी वहां सबसे ज्यादा जेंडर इक्वेलिटी देखी गई थी. भारत का नंबर 108वां था.
क्या घर के काम के लिए औरतों को सैलेरी दी जाए?
कुछ दिन पहले होम मेकर्स को सैलेरी देने की एक बहस छिड़ी थी. इसकी शुरुआत एक्टर कमल ने की थी. 'द न्यूज़ मिनट' की रिपोर्ट के मुताबिक, कमल की पॉलिटिकल पार्टी मक्कल निधि माइम ने तमिलनाडु विधानसभा चुनाव को लेकर दिसंबर 2020 में अपना एजेंडा जारी किया था. इस एजेंडे में शामिल था होम मेकर्स जिनके काम की तरफ कोई ध्यान नहीं देता, उन्हें सैलेरी देना. कमल हासन के इस ऐलान के बाद हमारे देश के लोग दो धड़ों में बंट गए थे. एक धड़ा उनके एजेंडे में शामिल इस पॉइंट का सपोर्ट कर रहा था, तो दूसरा विरोध. विरोध करने वाले लोग ये तर्क दे रहे थे कि इस प्रपोज़ल से उन औरतों की संख्या में कमी आएगी, जो फॉर्मल जॉब्स करना चाहती हैं, क्योंकि उनसे कहा जाएगा कि घर के काम में पैसे तो मिल रहे हैं, फिर बाहर काम पर क्यों जाना. विरोध करने वालों में बड़ा नाम एक्ट्रेस कंगना रनौत का था.
दरअसल, कमल हासन के प्रपोज़ल को कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने अपना समर्थन दिया था. उन्होंने कहा था कि अगर घर के कामों के लिए होम मेकर्स को सरकार सैलेरी देगी, तो उनके काम को सोसायटी में पहचान मिलेगी, उनकी ताकत बढ़ेगी. वहीं कंगना ने शशि थरूर के इसी ट्वीट को रिट्वीट करते हुए विरोध जताया था. उन्होंने कहा था कि हर चीज़ को बिज़नेस की तरह देखना बंद किया जाना चाहिए, हमें हमारे किंगडम, हमारे घर की रानी होने के लिए सैलेरी की ज़रूरत नहीं है. हमारे ऊपर प्राइस टैग नहीं लगाया जाए, हमारी ममता के लिए हमें पैसे नहीं दिए जाएं. इसे लेकर बाद में शशि थरूर का जवाब भी आया था, उन्होंने कहा था कि जिस काम को कोई तवज्जो नहीं मिलती उसे समाज में पहचान मिलना ज़रूरी है और ये प्रपोज़ल उसी दिशा में काम करेगा.
Don’t put a price tag on sex we have with our love, don’t pay us for mothering our own, we don’t need salary for being the Queens of our own little kingdom our home,stop seeing everything as business. Surrender to your woman she needs all of you not just your love/respect/salary. https://t.co/57PE8UBALM
— Kangana Ranaut (@KanganaTeam) January 5, 2021
होममेकर्स को सैलरी दी जाए या नहीं, ये तो भविष्य का मसला है. दिक्कत कंगना रनौत और उनके खयालों से इत्तेफाक रखते लोगों की है. क्या घर कि रानी का टैग देकर किसी भी महिला से कितना भी काम कराया जा सकता है? क्या ममता का हवाला देकर, उसे देवी बताकर, उसका अनकहा शोषण किया जा सकता है? घर में बिना पत्नी से पूछे अचानक गेस्ट बुला लेना. किचन में जीतोड़ मेहनत करती मां के आगे, उम्र में बड़े बड़े हो चुकी संतानों का बर्तन में खाना छोड़ देना, उसकी अवहेलना करना, ये कहना कि रोज़ यही क्यों बना देती हो, क्या उसका अपमान नहीं है? आप सोचिएगा इसपर. और ये सोचिएगा कि क्या ये अनकहे तौर पर शोषण नहीं है.