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एक लड़की के पेशाब करने की दिक्कत से शुरू हुआ ये कैंपेन पूरी दुनिया में छा जाना चाहिए

सार्वजनिक जगहों पर पुरुष शौचालयों के मुकाबले महिला शौचालयों की संख्या बहुत कम है.

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लंबे समय तक अगर लगातार पेशाब रोकने की आदत है, तो इससे सेहत संबंधी परेशानियां हो सकती हैं. यूरिनल संक्रमण जैसी दिक्कतें हो सकती हैं.
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स्वाति
22 सितंबर 2017 (Updated: 22 सितंबर 2017, 12:31 PM IST) कॉमेंट्स
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देहरादून का एक सिनेमा हॉल है. पायल. वहां दोस्तों के साथ कोई फिल्म देखने गई थी मैं. शाम का शो. 5 से 8. बाहर निकली. एक्जिट पिछले दरवाजे से होती है. हॉल के टॉयलेट में जा नहीं पाई. बहुत तेज पेशाब आ रहा था. आस-पास छान मारा. एक भी लेडीज टॉयलेट नहीं मिला. मर्दों वाले थे. न भी हों तो क्या? वो तो कहीं भी खड़े होकर कर लेते हैं (अदा है अपनी-अपनी). बहरहाल, पेशाब बहुत तेज आ रहा था. रोकते-रोकते जान जा रही थी मेरी. लग रहा था अब निकला, तब निकला. फिर जाने क्या सूझा, पास के एक घर की घंटी बजाई. अजनबी घर. किसी ने दरवाजा खोला. मैंने अपनी परेशानी बताई. वो मान गए. अपने घर का टॉयलेट इस्तेमाल करने दिया. लेकिन न मानते तो?


सार्वजनिक जगहों की कमी नहीं. कमी शौचालयों की होती है. खासतौर पर महिलाओं के लिए. हमारे यहां ही नहीं. दुनिया के बड़े विकसित देशों का भी ये हाल है. नीदरलैंड्स. बहुत अच्छा देश है. विकसित. सब कुछ चाक-चौबंद. सड़कें. बिजली. जीने का स्टैंटर्ड. नौकरी. परिवार कल्याण योजनाएं. सब टनाटन. नीदरलैंड्स के किस्से हम मुंह फाड़कर घोंटते थे. सोचते थे वहां कोई खोट नहीं होगा लेकिन खोट निकल आया. लेडीज टॉयलेट. नीदरलैंड्स की राजधानी है एम्सटर्डम. वहां महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही हैं. सार्वजनिक जगहों पर अपने लिए ज्यादा शौचालय बनवाए जाने की मांग कर रही हैं. ये सब शुरू हुआ एक लड़की पर लगे जुर्माने से.
लेडीज टॉइलेट की कमी अकेली परेशानी नहीं. सार्वजनिक शौचालयों का गंदा होना भी एक बड़ी दिक्कत है.
लेडीज टॉयलेट की कमी अकेली परेशानी नहीं. सार्वजनिक शौचालयों का गंदा होना भी एक बड़ी दिक्कत है.

लेडीज टॉयलेट नहीं था तो सड़क पर ही कर लिया पेशाब

गीरटे पीनिंग. 23 साल की लड़की. एक रात की बात है. गीरटे अपने दोस्तों के साथ बाहर घूम रही थीं. उन्हें जोर से पेशाब आया. आस-पास लेडीज टॉयलेट नहीं था. गीरटे ने वहीं एक गली में पेशाब कर दिया. खुले में. उसने अपनी दोस्तों से कहा. मुझे घेर लो. ताकि कोई और उन्हें पेशाब करते हुए न देखे. वैसे ही जैसे भारत की लड़कियां और महिलाएं करती हैं.
लंबी बस यात्राओं में हमारे यहां बड़ा सहयोग होता है. 'तेरे काम मैं आऊं, मेरे काम तू आए' टाइप. बस किसी पड़ाव पर रुकती है. बाथरूम तो होते नहीं. होते हैं तो किसी काम के नहीं होते. लड़के कहीं भी धार बहाकर फारिग हो जाते हैं. महिलाओं की संकोच नजरें पहले रेकी करती हैं. कोई महिला या लड़की दिखी. भले ही अजनबी. दोनों साथ हो लेंगी. दूर किनारे कहीं. अंधेरे में या किसी बड़े पत्थर के पीछे. झाड़ियों में. एक करेगी. दूसरी पहरेदारी पर तैनात. बारी-बारी से दोनों निपट लेंगी. 
ये जो उपकरण सा दिख रहा है, उसका नाम पी बडी है. इसकी मदद से महिलाएं खड़े होकर पेशाब कर सकती हैं. शहरी महिलाओं के बीच इसका इस्तेमाल जोर पकड़ रहा है.
ये जो उपकरण सा दिख रहा है, उसका नाम पी बडी है. इसकी मदद से महिलाएं खड़े होकर पेशाब कर सकती हैं. शहरी महिलाओं के बीच इसका इस्तेमाल जोर पकड़ रहा है.



पब्लिक लेडीज टॉयलेट की कमी भी तो भेदभाव है


गीरटे पकड़ी गई. उस पर जुर्माना लगा. खुले में पेशाब करने के लिए. गीरटे को गुस्सा आया. उसने सोचा ये तो गलत है. शौचालय होता, तो सड़क पर क्यों करती? और उस समय सड़क पर न करती तो कहां करती? वो कोर्ट गई. जज ने भी गीरटे की बात नहीं समझी. कहा, लेडीज टॉयलेट नहीं था, तो जेंट्स वाले में चली जाती. इसके बाद एम्सटर्डम में बहस शुरू हो गई. लोगों में चर्चा होने लगी. एक विरोध प्रदर्शन प्लान हुआ. वहीं जहां गीरटे को पेशाब करते पकड़ा गया था लेकिन पुलिस ने होने नहीं दिया. अब फेसबुक पर कैंपेन शुरू हो गया है. लड़कियां कह रही हैं कि ये तरीका गलत है. लड़कों के लिए इतने शौचालय और लड़कियों के लिए इतने कम. ये तो भेदभाव है. जज की टिप्पणी पर भी महिलाएं नाराज हैं. ये क्या बात हुई कि लेडीज टॉयलेट नहीं है, तो पुरुषों में चले जाओ. लेकिन कैसे? पुरुषों के यूरिनल का इस्तेमाल लड़कियां कैसे कर पाएंगी? पुरुषों के पेशाब करने का मैकेनिज्म औरतों से एकदम अलग है.
अधिकांश पुरुष टॉइलेट्स में मूत्रालय बना होता है. इसका इस्तेमाल लड़कियां नहीं कर पातीं. जेंडर न्यूट्रल टॉइलेट्स हों, तो फिर भी थोड़ी गनीमत होगी.
अधिकांश पुरुष टॉयलेट्स में मूत्रालय बना होता है. इसका इस्तेमाल लड़कियां नहीं कर पातीं. जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट्स हों, तो फिर भी थोड़ी गनीमत होगी.



खूब बड़ा हो गया है ये लेडीज टॉयलेट आंदोलन


फेसबुक पर #wildplassen हैशटैग से कैंपेन चल रहा है. डच भाषा में इसका मतलब होता है, पेशाब करके किया गया अपराध. फिलहाल तय हुआ कि हज़ारों महिलाएं पब्लिक शौचालयों पर पहुंचकर विरोध प्रदर्शन करेंगी. गीरटे ने कभी नहीं सोचा था कि ये सब इतना बड़ा हो जाएगा. एम्सटर्डम में पुरुषों के लिए 35 सार्वजनिक शौचालय हैं. महिलाओं के लिए तीन. अनुपात देखिए. अंतर समझ आ जाएगा. वैसे, अपनी दिल्ली में एक अच्छा फैसला हुआ था. नगरपालिका ने कहा, किसी भी रेस्तरां के शौचालय में जा सकते हैं. बहुत बार देखा है. साड़ी बड़े काम की चीज है. शरीर बाद में ढकती हैं. अभाव पहले ढक लेती हैं. बैठ जाओ. पेशाब कर लो. कोई देखे भी तो फर्क नहीं. साड़ी की ओट है. साड़ी पहनने का सबसे बड़ा फायदा शायद यही है. 

दिल्ली में क्या हाल है, थर्मामीटर देखिए


एक्शनऐड इंडिया ने एक सर्वे किया था. दिल्ली का हाल मालूम चला. राजधानी है. सैंपल का काम करेगी. यहां हर तीन में से एक सार्वजनिक शौचालय में महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था नहीं होती. सफाई का भी बुरा हाल है. सर्वे वाले कुल 229 शौचालय पहुंचे. इनमें 71 फीसदी से ज्यादा की नियमित सफाई नहीं होती. महिलाओं को मन मारकर इन गंदे शौचालयों में जाना पड़ता है. इसके लिए सबके पास अपनी स्ट्रैटजी होती है. मसलन- कमोड पर पैर रखकर बैठना. थोड़ा झुककर करना, ताकि बैठना न पड़े. वगैरह वगैरह.  


लोगों को लगता है कि केवल भारत, पाकिस्तान जैसे तीसरी दुनिया के देशों में ही पुरुष खुले में पेशाब करते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. पश्चिमी देशों में भी ये खूब होता है.
लोगों को लगता है कि केवल भारत, पाकिस्तान जैसे तीसरी दुनिया के देशों में ही पुरुष खुले में पेशाब करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है. पश्चिमी देशों में भी ये खूब होता है.

लंबे समय तक पेशाब रोकने से हो सकती है बीमारी

महिलाओं को इस मामले में बहुत जूझना पड़ता है. कई बार घंटों पेशाब रोकना पड़ता है. लगता है मूत्राशय फट जाएगा. बहुत दहशत होती है लेडीज टॉयलेट न मिलने की. इतनी कि महिलाएं सफर के दौरान पानी नहीं पीतीं. घर से निकलते वक्त बार-बार पेशाब की शंका मिटाती हैं. करके आईं, फिर दो मिनट बाद निकलना है, तब भी कर आएंगी. भले ही दो बूंद निकले. कई बार तो रोकते-रोकते भी पैंटी में थोड़ा निकल ही जाता है. उससे संक्रमण का खतरा होता है. योनि के आसपास खुजली, अंदर से बदबूदार पानी निकलना.
बहुत समय तक और लगातार पेशाब रोकने से कई परेशानियों का खतरा रहता है. ब्लाडर और किडनी इंफेक्शन का जोखिम बढ़ जाता है. जो महिलाएं पेशाब न आने देने के लिए पानी नहीं पीतीं या कम पीती हैं, उनका भी नुकसान है. शरीर में पानी की कमी हो जाती है. एम्सटर्डम की महिलाओं के लिए ये फेमिनिज्म से जुड़ा मुद्दा बन गया है. बहुत गंभीर मुद्दा. वो तो अपने हक के लिए अड़ गई हैं. न जाने बाकी महिलाएं इस पर कब स्टैंड लेंगी. महिलाएं तो फिर भी शायद स्टैंड ले लें. असल बात तो ये है कि सिस्टम को कब अक्ल आएगी.


क्या होता है जब महिला को पब्लिक टॉयलेट इस्तेमाल करना पड़े?



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