म्यांमार की सेना ने बच्चों पर बम क्यों गिराए?
म्यांमार में तख्तापलट कैसे हुआ?

तख्तापलट, जिसे अंग्रेजी में कू कहते हैं. क्या मायने हैं इसके? पोलिटिकल साइंटिस्ट इसकी अलग-अलग परिभाषा देते हैं. मोटा-माटी ये समझिए कि जब किसी देश की सरकार, सेना, बाग़ी ग्रुप या किसी आंदोलन के तहत बलपूर्वक गिरा दी जाती है उसे तख्तापलट कहता हैं. हर तख्तापलट के पीछे एक तानाशाह होता है. और हर तानाशाह कहता है, तख्तापलट तो डेमोक्रेसी को बचाने के लिए किया गया है. आप टेंशन मत लीजिए. जल्द ही देश में फेयर इलेक्शन करवाए जाएंगे. म्यांमार में भी एक ऐसा ही तानाशाह हुआ था. साल 2021 में उसने भी यही बात दोहराई और म्यांमार को सेना के शासन में झोंक दिया. तबसे लेकर आज तक म्यांमार में सेना का ही सिक्का चल रहा है. अपहरण, रेप, हत्याओं का सिलसिला जारी है. दिन-दहाड़े लूट-पाट की जा रही हैं. लेकिन कोई सुद लेने वाला नहीं. हज़ारों लोगों का सेना ने कत्ल कर दिया है. UN और इंटरनेशनल ऐजेंसियां मज़म्मत कर-कर के थक गई हैं लेकिन सेना अपनी क्रूरता कम नहीं करता. इसी क्रूरता की एक झलकी 11 अप्रैल को देखने को मिली. इस दिन म्यांमार की मिलिट्री ने अपने ही नागरिकों पर हवाई हमला कर दिया. हमले में 100 लोगों के मारे जाने की ख़बर है. ख़बर ये भी है कि ये बोम्ब नाचते हुए बच्चों पर गिरा इसमें बच्चों की मौत भी हुई है.
तो आज हम बात करेंगे,
म्यांमार में तख्तापलट कैसे हुआ?
अब तक यहां शांति क्यों नहीं आ पाई है?
और जानेंगे हालिया घटना के बारे में. कि मारे गए 100 लोग कौन हैं? और सेना ने उनपर हमला क्यों किया?
शुरुआत इतिहास से, लेकिन उसके पहले देश के बारे में मोटा-माटी जानकारी ले लेते हैं. म्यांमार की आबादी लगभग 5 करोड़ है. ये भारत, चीन और थाईलैंड से सीमा साझा करता है. यहां बर्मा भाषा बोली जाती है. देश की ज़्यादातर आबादी बौद्ध धर्म को मानने वाली है. म्यांमार का एक परिचय हम टीवी और अखबार में उस देश के रूप में भी पाते हैं, जहां रोहिंग्या मुस्लिम का नरसंहार किया गया था. म्यांमार को बर्मा नाम से भी जाना जाता है.
अब चलते हैं देश के इतिहास में,
साल 1531 में यहां टौंगू वंश का राज आया. उसने देश का एकीकरण किया और इलाके का नाम पड़ा बर्मा. इसके पहले साल 1057 में यहां राजा अनावरता राज हुआ करता था. साल 1880 के बाद से ब्रिटिश साम्राज्य ने पूरी दुनिया में अपने पैर तेज़ी से पसारने शुरू किए. बर्मा भी इसकी जद में आया साल 1885 से 1886 के बीच. अंग्रेजों ने लगभग 70 साल यहां अपनी हुकूमत चलाई. सन 47 में हमें आज़ादी मिली. और ठीक एक साल बाद बर्मा भी अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद हो गया. यू नू देश के पहले प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए. कट टू साल 1962, इस साल म्यांमार की सत्ता सेना ने अपने हाथ ले ली. वन-पार्टी सिस्टम लागू हुआ. सेना के जनरल ‘ने विन’ ने लोकतांत्रिक सरकार को किनारे कर देश की कमान अपने हाथों में ले ली. सेना की ख़राब नीतियों के चलते इकॉनमी बिल्कुल चौपट हो चुकी थी. हालत वैसे ही ख़राब थे कि साल 1987 में देश में नोटबंदी कर दी. एक झटके में 80 फीसदी बैंक नोट अवैध ठहरा दिए गए.
म्यांमार में हुई नोटबंदी से हालात इतने ख़राब हुए कि लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए. इस घटना से लोगों में गुस्सा भरता गया. ये गुस्सा फूटा 13 मार्च, 1988 को. उस वक्त म्यांमार की राजधानी रंगून हुआ करती थी. रंगून में छात्र देश के हालात की चर्चा कर रहे थे. बेरोज़गारी और ख़राब सरकारी नीतियों की आलोचना की जा रही थी. उनकी ये बातचीत कुछ सरकारी अधिकारियों ने सुनी ली. उन्होंने छात्रों को टोका. टोकाटाकी ने झगड़े का रूप ले लिया. और दोनों पक्षों के बीच खूब मार पिटाई हुई. इस झगड़े में मॉन्ग फोन माउ नाम के एक छात्र की मौत हो गई. छात्रों ने इसके विरोध में कैंपस में विरोध करना शुरू किया. सेना ने कैम्पस में ताला लगवा दिया तो छात्र कैम्पस से निकलकर सड़क पर आ गए. सेना ने छात्रों के ऐसे ही एक प्रोटेस्ट के दौरान गोली चलवा दी. जिसमें 200 छात्रों की मौत हो गई. इससे देश की जनता नाराज़ हुई. स्टूडेंट मूवमेंट अब नेशनल लेवल का आन्दोलन बन गया था. लोग पुलिस से चिढ़ने लगे, जहां भी पुलिस देखते, पीटना शुरू कर देते. देश में जैसे दंगा सा मच गया था, इसी सब के बीच साल 1988 में देश के तानाशाह जनरल ने विन को इस्तीफ़ा देना पड़ा. अब सत्ता जनरल सिन ल्विन के पास आई. वो पुराने जनरल विन के ख़ास माने जाते थे.
जनरल सिन ने भी सत्ता में आने के समय वही झूठ बोला था जो अक्सर तानाशाह बोलते हैं. वही झूठ जिसका ज़िक्र हमने शुरू में किया था, कि देश में जल्द ही फेयर इलेक्शन कराए जाएंगे. आप टेंशन मत लीजिए. लेकिन देश की जनता ने इस बार तानाशाही खत्म करने की ठान ही ली थी. 1988 के बाद सत्ता बदली पर जनता चुप नहीं बैठी. उसने सड़कों पर अपनी मौजूदगी बनाई रखी. इसका फल साल 1991 में देखने को मिला. सेना ने चुनाव करवाने का ऐलान किया.
उस समय नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी (NLD) पार्टी जन आन्दोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही थी, उसने जनता के बीच अपनी पैठ भी बना ली थी. चुनाव में उसका जीतना लगभग तय था. 1991 के चुनाव में NLD की जीत हुई. आंग सान सू ची पार्टी की लीडर थीं. लेकिन सेना ने चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. और सू ची को नज़रबंद कर दिया.
इसी साल एक बड़ी घटना हुई. सेना ने ऑपरेशन पी थाया लॉन्च किया. अंग्रेज़ी में इसे ‘Clean and Beautiful Nation’ कहा गया. इस ऑपरेशन में रोहिंग्या के ख़िलाफ़ हिंसा की गई. ढाई लाख से भी अधिक रोहिंग्या लोग पलायन को मजबूर हुए. इनमें से ज़्यादातर अब भी बांग्लादेश में हैं.
साल 2008 में सेना नया संविधान लाई. इससे सेना को खूब ताकत मिल गई, जैसे लोकतांत्रिक सरकार के गठन के बाद भी रक्षामंत्री की नियुक्ति सेना ही करेगी. उसके पास इंटीरियर मिनिस्ट्री (माने गृहमंत्रालय) और स्टेट सिक्यॉरिटी की बागडोर भी होगी. इसके अलावा, संसद की एक चौथाई सीटों पर भी उसे आरक्षण मिलेगा. ताकि उसकी मर्ज़ी के बिना सरकार कोई फ़ैसला न ले सके. इन्हीं शर्तों के चलते सू ची ने 2010 के चुनाव का बहिष्कार किया. सेना ने उन्हें मनाने की कोशिश की. सू ची मान गईं. लेकिन आगे जाकर फिर बात बिगड़ गई. इन्हीं सब नेगेशिएशन के चलते 5 साल और बीत गए.
फिर जाकर 2015 में देश में फ्री इलेक्शन हुए. NLD की जीत हुई. पार्टी ने पांच सालों शासन भी चलाया. आंग सान सू ची देश की मुखिया बनी. नवंबर 2020 में फिर एक बार इलेक्शन हुए. NLD का दोबारा जीतना सेना को रास नहीं आया. उसने सरकार के प्रतिनिधियों को जेल में बंद कर दिया. उनके ऊपर गंभीर मुकदमे लाद दिए गए.
फिर साल आया 2021, 1 फरवरी को म्यांमार में फिर वही अनहोनी हुई जिसकी आशंका 2015 में लोकतंत्र आने के बाद से ही जताई जा रही थी. सेना प्रमुख जनरल मिन ऑन्ग लाइंग ने तख्तापलट कर दिया. और वही तारीखी जुमला दोहराया जो लगभग हर तानाशाह दोहराता है. देश के खस्ता हालात की वजह से ये फैसला लिया गया है, पर जल्द ही देश में फेयर इलेक्शन करवाए जाएंगे. लेकिन तब से लेकर अब तक म्यांमार में ये तारीखी जुमले नहीं दोहराए गए. क्योंकि यहां न चुनाव हुए. न लोकतंत्र की वापसी. तबसे अब तक देश में सेना का ही सिक्का चल रहा है. और अब तक न जाने कितने हजारों लोग सेना की भेंट चढ़ चुके हैं.
सेना विरोध के नामपर किसी को भी जान से मार देती है. हालिया मामला 11 अप्रैल को सामने आया. इसमें अब तक कुल 100 लोगों के मारे जाने की ख़बर है. पूरी घटना विस्तार से बताते हैं,
सागैंग प्रांत के कनबालु टाउनशिप में एक गांव पड़ता है पजीगी नाम का. म्यांमार की सेना के मुताबिक यहां सैन्य सरकार के विरोध में एक समारोह रखा गया था. इस समारोह में विद्रोही ग्रुप के ऑफिस के उद्घाटन होना था. इसके लिए यहां कई लोग जमा थे. सुबह के 7 बजकर 45 मिनट पर सेना के लड़ाकू विमान आसमान में मंडराने लगे. विमान से उस समारोह में हमला किया गया. ठीक 5 मिनट बाद वहां 2 राकेट और दागे गए साथ में मशीन गन से भी हमला किया गया. हमले में बचे लोगों ने BBC को बताया कि उन्होंने अभी तक कम से कम 80 शव निकाले हैं, ये आंकड़ा बढ़ने की आशंका है. इसके इतर कई मीडिया हाउसेज़ मृतकों की संख्या 100 के पार होने का दावा कर चुके हैं.
सैन्य सरकार के प्रवक्ता जनरल ज़ॉ मिन टुन ने हवाई हमले की पुष्टि की है. उन्होंने कहा कि पा ज़ी गई नाम के गांव में इसलिए हमले किए जा रहे हैं क्योंकि यहां रह रहे लोगों ने सैन्य शासन के ख़िलाफ़ अपने विरोध की शुरुआत के लिए एक समारोह का आयोजन किया था. हमले पर UN की भी प्रतिक्रिया आई है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख वोल्कर तुर्क ने बताया कि वो इस हवाई हमले की सूचना से 'भयभीत' हैं. वो कहते हैं,
‘ऐसा लग रहा है कि वहां डांस कर रहे स्कूली बच्चे और कई अन्य नागरिक हमले का शिकार हुए हैं.’
सेना के इसी तरह के हमलों में अब तक हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं. लोग देश में लोकतंत्र की वापसी के लिए अड़े हुए हैं. प्रोटेस्ट करते हैं. सेना इन्हें अपने ख़िलाफ़ साजिश बताती है और उन्हें मार देती है. ऐसा ही एक हमला मार्च 2021 में हुआ था. सेना को सत्ता छीने 2 महीने भी नहीं हुए थे. म्यांमार में ‘आर्म्ड फ़ोर्सेज़ डे’ मनाया जा रहा था. उस दिन म्यांमार ने साल 1945 में जापान की सेना को शिकस्त दी थी. उसी की याद में ये आयोजन हुआ. सरकार को अंदेशा था कि लोग इसकी आड़ में सेना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करेंगे. वैसा ही हुआ. लोग सड़कों पर आए. हाथों पर तख्ती लेकर. मुट्ठी भींचे नारे लगाते हुए. नारों की आवाज़ ने सेना की कां तक पहुंची. बस फिर क्या था. ख़ूनी सिलसिला शुरू हुआ. कई जगह गोलाबारी की घटनाएं सामने आईं. कुल 114 लोगों की इन हमलों में जाने गईं.
सेना को म्यांमार की सत्ता में काबिज़ हुए 2 साल से ज़्यादा समय हो गया है. रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस दौरान 17 हज़ार से ज़्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है. इनमें से 13 हज़ार के करीब अभी भी जेलों में सड़ रहे हैं. 5 जनवरी 2023 को सेना ने करीब 7 हज़ार लोगों की रिहाई की थी. इनमें कई पोलिटिकल प्रिजनर्स भी शामिल थे. सेना के हमलों में अब तक 3 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं. वहीं UN दावा करता है कि 15 लाख लोग सेना की वजह से घरों से भागने के लिए मजबूर हुए हैं.
ये तो हुई म्यांमार, उसके तख्तापलट, सेना की हिंसा और वहां मारे जाने वाले लोगों की कहानी. पर म्यांमार में हो रही इस बर्बरता का भारत से क्या संबंध है. अब पहले वो जान लेते हैं. म्यांमार के साथ भारत की तकरीबन 1600 किलमोटीर लंबी सीमा मिलती है. इसमें से 510 किलोमीटर की लंबाई मिजोरम में है. सीमावर्ती इलाकों में चिन समुदाय की बड़ी आबादी रहती है. ये लोग म्यांमार में हिंसा के बाद शरण के लिए सीमा पार कर मिजोरम आ गए थे. मिजोरम की राजधानी आइजोल में ही चिन समुदाय के तीन हजार से ज्यादा लोग रहते हैं. मिजोरम के कई संगठन म्यांमार में तख्तापलट का विरोध करते हुए लोकतंत्र बहाल करने की मांग कर चुके हैं. चिन समुदाय के लोगों की कानूनी स्थिति साफ नहीं है. इनको फिलहाल शरणार्थी का दर्जा नहीं मिला है.
सीमा पर भारत और म्यांमार की सेक्योरिटी फोर्सेज़ के बीच तालमेल के कई उदाहरण मिलते हैं. पूर्वोत्तर के कई उग्रवादी गुटों के नेता एक वक्त म्यांमार के जंगलों में छिप जाया करते थे, क्योंकि पूरी सीमा पर बाड़बंदी नहीं हो पाई है. लेकिन बीते कुछ सालों में ये कम हुआ है क्योंकि म्यांमार की सेना के साथ साथा भारत की सेना ने भी म्यांमार के भीतर उग्रवादियों के खिलाफ ऑपरेशन किये हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण थी 2015 की सर्जिकल स्ट्राइक. इसी तरह म्यांमार की सेना जिन गुटों को लेकर चिंतित है, उनके खिलाफ कार्रवाई में भारत से औपचारिक-अनौपचारिक सहयोग मिलता रहता है. वैसे जनवरी 2023 में कई विदेशी मीडिया में ख़बर छपी थी कि म्यांमार सेना के हमलों के दौरान एक बम तिआऊ नदी पर गिरा जो भारत से सटी सीमा के भीतर है. इस हमले में एक ट्रक को नुकसान पहुंचने की भी ख़बर आई थी. हालांकि भारत ने इस ख़बर का खंडन किया था.
वीडियो: दुनियादारी: मिलिट्री की क्रूरता की वो कहानियां जो आपने कभी नहीं सुनी होगी