उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने पद लेने वाले रिटायर्ड जजों पर सवाल उठाए, लेकिन दिए तो सरकार ने ही
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस बार पूर्व CJI की कार्यशैली पर ही सवाल उठा दिए.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के निशाने पर एक बार फिर न्यायपालिका आ गई. अब तक उपराष्ट्रपति न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप, जस्टिस वर्मा कैश कांड या राष्ट्रपति को दिशा-निर्देश देने पर घेरते आ रहे थे. लेकिन 7 जुलाई को जब उन्होंने कोच्चि के नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एडवांस्ड लीगल स्टडीज़ (NUALS) में छात्रों के सामने माइक संभाला तो जजों की कार्यशैली तक पर सवाल उठा दिए.
उपराष्ट्रपति ने सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशोें के अन्य संस्थाओं में पदलाभ लेने पर सवाल उठा दिए. उन्होंने कहा,
“कुछ संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को सेवानिवृत्ति के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार करने की अनुमति नहीं होती. जैसे लोक सेवा आयोग के सदस्य, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), मुख्य चुनाव आयुक्त आदि. ऐसा इसलिए है ताकि वे प्रलोभनों और दबावों से मुक्त रहें. यही अपेक्षा न्यायाधीशों से भी की जाती थी. लेकिन अब सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों को चुनिंदा पद दिए जा रहे हैं. जब सभी को नहीं, कुछ को ही पद मिलते हैं तो यह चयन और संरक्षण का मामला बनता है, जो न्यायपालिका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है.”
धनखड़ के निशाने पर यहां न्यायपालिका थी, लेकिन जाने-अनजाने उन्होंने अपनी सरकार पर भी सवाल उठा दिए. 11 जून, 2023 को बार एंड बेंच ने एक रिपोर्ट छापी थी. इसके मुताबिक पिछले पांच साल में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर्ट 21 प्रतिशत जजों को केंद्र सरकार ने ही अलग-अलग कमीशन्स या ट्रिब्यूनल्स में जगह दी.
इतना ही नहीं, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद केस की सुनवाई करने वाली बेंच का हिस्सा रहे जस्टिस अब्दुल नज़ीर को रिटायरमेंट के एक महीने बाद आंध्र प्रदेश का गवर्नर बनाया गया. इसके बाद CJI के पद से रिटायर हुए रंजन गोगोई को सरकार ने राज्यसभा भेजा. इससे पहले पूर्व CJI पी. सदाशिवम को भी केरल का गवर्नर बनाया जा चुका था.
बात उपराष्ट्रपति के भाषण की करें तो उन्होंने भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीशों पर भी सवाल उठाए. कहा,
“हाल के वर्षों में हमारी न्यायपालिका ने एक अशांत दौर देखा है. लेकिन सुखद बात यह है कि अब एक बड़ा परिवर्तन आया है. वर्तमान मुख्य न्यायाधीश और उनके पूर्ववर्ती ने जवाबदेही और पारदर्शिता का एक नया युग शुरू किया है. अब चीजें पटरी पर लौट रही हैं. लेकिन उससे पहले के दो वर्ष अत्यंत चुनौतीपूर्ण और असामान्य रहे. कई निर्णय बिना सोच-विचार के लिए गए. जिन्हें सुधारने में समय लगेगा. क्योंकि यह अत्यंत आवश्यक है कि संस्थान अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य करें."
देश के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई हैं. उनसे पहले जस्टिस संजीव खन्ना थे. धनखड़ की बात को समझें तो वे इन दो न्यायाधीशों से खुश नज़र आए. उनसे पहले दो साल जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ CJI के पद पर थे.
इसके अलावा धनखड़ ने एक और अहम मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि CBI के डायरेक्टर की नियुक्ति वाली कमेटी में में मुख्य न्यायाधीश की क्या जरूरत है. उन्होंने कहा,
"मैं हैरान हूं कि कार्यपालिका का एक पदाधिकारी, जैसे कि CBI निदेशक की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश की भागीदारी से होती है. क्यों? यह तो कार्यपालिका का कार्य है. वह न्यायिक नियुक्ति नहीं है. और यह हमारे संविधान के ढांचे में कहां उपयुक्त बैठता है? क्या ऐसा दुनिया के किसी और लोकतंत्र में होता है? कार्यपालिका की नियुक्ति केवल कार्यपालिका द्वारा ही होनी चाहिए.”
इससे पहले मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सरकार 2023 में बिल लाकर कानून बना चुकी है. इनकी नियुक्तियों में भी पहले CJI शामिल होते थे. लेकिन सरकार ने कानून लाकर तीन मेंबर्स की कमेटी में प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और CJI की जगह कानून मंत्री को शामिल कर दिया.
CEC की नियुक्ति से जुड़े संशोधन पर तो खूब विवाद हुआ ही, अब उपराष्ट्रपति धनखड़ CBI के डायरेक्टर की नियुक्ति में भी CJI की भूमिका नहीं चाह रहे हैं.
गौरतलब है कि CBI निदेशक की नियुक्ति की प्रक्रिया DSPE अधिनियम 1946, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 और CVC अधिनियम 2003 में किए गए संशोधनों के अनुसार होती है. यानी CBI डायरेक्टर की नियुक्ति संसद में बने कानून के आधार पर होती है, इसमें सुप्रीम कोर्ट का कोई दखल नहीं होता.
इसके अलावा उपराष्ट्रपति ने संविधान की प्रस्तावना पर छिड़ी बहस को भी आगे बढ़ाया. उन्होंने कहा,
“संविधान की प्रस्तावना वैसे ही है जैसे बच्चों के लिए माता-पिता. आप उन्हें बदल नहीं सकते. दुनिया में किसी भी देश की प्रस्तावना नहीं बदली गई है. लेकिन हमारे देश में यह बदली गई. ऐसा उस समय हुआ जब आपातकाल लगा था. जब हजारों लोग जेल में थे, जब न्यायिक व्यवस्था तक आम जनता की पहुंच नहीं थी और मौलिक अधिकार पूरी तरह निलंबित थे. उस समय लोकसभा का कार्यकाल भी 5 वर्षों से अधिक बढ़ाया गया. आप इसे गहराई से समझें, हम अपने माता-पिता को नहीं बदल सकते, वैसे ही प्रस्तावना को नहीं बदल सकते.”
साल 1975 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान में 42वां संशोधन कर प्रस्तावना में 'सोशलिस्ट और सेक्यूलर' शब्द जोड़े थे. इस पर बीते कुछ समय से बहस चल रही है.
वीडियो: चुनाव आयुक्त से सेलेक्शन से पहले धनखड़ ने CJI को लेकर क्या बड़ी बात कह दी?