बेरोजगारी के मारे, परदेस के सहारे, गए और कभी नहीं लौटे
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श्यामला अपने तीनों बच्चों के साथ
परदेसियों पर इतने गाने, गजलें, फिल्में बनी हैं. दरअसल परदेस का दर्द ही इतना बड़ा होता है. चाहे बॉर्डर पर तैनात फौजी हों, चाहे दूर देस कमाने गए बेबस लोग. वो हर लेवल पर लड़ते हैं. उधर वो परेशान होते हैं. इधर उनके चाहने वाले. उनका परिवार.
तमिलनाडु में एक छोटा शहर है. कल्पाक्कम. कोरोमंडल कोस्ट पर बसा है. शहर के ज्यादातर मर्द पैसे कमाने के लिए शहर से दूर रहते हैं. 24 साल की पांदेसवरी का घर भी कल्पाक्कम में है. उसका पति बालामुर्गन कुवैत में रहता है. शादी के 7 महीने बाद ही पैसों के जुगाड़ में चला गया था. एक साल तक घर नहीं आया. अपनी बच्ची के पैदा होने पर भी नहीं.
चेन्नई से 100 किलोमीटर दूर कांचीपुरम जिले के वेम्बक्कम इलाके के हर पांच घर में से एक घर का मर्द परदेस में है. भी पैसे कमाने के लिए. क्योंकि इलाके में नौकरी का अकाल पड़ा है. 70 लाख से भी ज्यादा लोग बालामुर्गन के जैसे हैं.पादेंसवरी रो-रो कर अपना दर्द बयां करती है. वो कहती है, 'न तो मेरे पास पैसे थे और न ही बाला की कोई खबर. ज्वाइंट फैमिली में रहने के चलते प्राइवेसी जैसी कोई चीज नहीं थी. कभी-कभार बाला से बात भी होती तो घरवाले सिर पर सवार रहते. ये सब मेरे लिए किसी डरावने सपने से कम नहीं था. दोनों के साथ दिक्कत थी. जितना वक्त भी हमें बात करने को मिलता हम एक-दूसरे को समझाते. बाद में मैं अकेले ऱोती. क्योंकि इसके अवाला औऱ कर भी क्या सकती थी मैं.' आज पांदेसवरी खुश भी है दुखी भी. मियां जी दूर हैं, काम काज छोड़कर ऐसे ही घर वापस नहीं आ सकते. लेकिन कम से कम नौकरी है तो. और वीडियो कॉल से बात हो जाती है कभी कभी.