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उन रामसे ब्रदर्स की पूरी कहानी जिन्होंने दिमाग का कद्दूकस कर देने वाली एडल्ट-हॉरर फिल्में बनाईं

इन्होंने 'वीराना' में जैस्मिन को मौका देकर इंडियन दर्शकों की नींदें उड़ा दी थीं.

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फिल्म डायरेक्टर श्याम रामसे. दूसरी तस्वीर में 'वीराना' फेम जैस्मिन. और आखिरी फोटो में भूतों का रोल करने वाले अजय अग्रवाल.
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श्वेतांक
18 सितंबर 2019 (Updated: 28 अप्रैल 2020, 02:22 PM IST)
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इंडिया में हॉरर फिल्म लाने वाले रामसे ब्रदर्स का अहम हिस्सा रहे श्याम रामसे का 18 सितंबर की सुबह 5 बजे निधन हो गया. उन्हें लंबे समय से निमोनिया की शिकायत थी. तबीयत बिगड़ने की वजह से उन्हें दो-तीन पहले ही मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती करवाया गया था, जहां उन्होंने 18 सितंबर की सुबह अपनी आखिरी सांसें लीं. श्याम 67 साल के थे. उनका अंतिम संस्कार मुंबई के विले पार्ले क्रिमेटोरियम में किया जाएगा. उनकी दो बेटियां हैं शाशा और नम्रता. शाशा श्याम की फिल्मों पर बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर काम करती थीं. अब वो भी हॉरर फिल्में और सीरीज़ डायरेक्ट करती हैं. 2017 में उनकी यूट्यूब वेब सीरीज़ 'फिर से रामसे' रिलीज़ हुई थी.
अगर हम श्याम रामसे की बात करेंगे, तो हमें सातों रामसे भाइयों की बात करनी पड़ेगी. ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी भाई अकेला किसी प्रोजेक्ट पर काम नहीं करता था. फिल्ममेकिंग का हर डिपार्टमेंट एक भाई के हवाले था. कुमार स्क्रप्ट लिखते थे. गंगू कैमरा-सिनेमटोग्रफी करते थे. केशू प्रोडक्शन देखते थे. किरण साउंड डिपार्टमेंट संभालते थे. तुलसी और श्याम फिल्में डायरेक्ट करते थे. और अर्जुन इनकी शूट की हुई फिल्में एडिट करते थे. दिलचस्प बात ये कि ये सब कुछ शुरू हुआ एक छोटे से किस्से के साथ. उस बारे में हम बाद में बात करेंगे. सबसे पहले ये जानेंगे कि ये परिवार फिल्मों में आया कैसे?
अपनी बेटी शाशा के साथ दिवंगत फिल्ममेकर श्याम रामसे.
अपनी बेटी शाशा के साथ दिवंगत फिल्ममेकर श्याम रामसे.


अंग्रेजों की वजह से रामसिंघानी से रामसे बन गए
आज़ादी से पहले रामसे ब्रदर्स के पिता यानी फतेहचंद रामसिंघानी की पाकिस्तान के कराची में एक बिजली-बत्ती का सामान बेचने वाली दुकान थी. बिज़नेस ठीक-ठाक चल रहा था. तब देश में अंग्रेजों का राज था. इनकी दुकान के अधिकतर कस्टमर ब्रिटिश ही हुआ करते थे. दिक्कत ये आ रही थी कि फतेहचंद की दुकान के बाहर लगे बोर्ड पर अंग्रेज़ इनका नाम सही से पढ़ नहीं पाते थे. दुकान में आने के बाद वो लोग उन्हें रामसे जैसा कुछ कहकर बुलाते थे. फतेहचंद को लगा कि लोग जो बोल पा रहे हैं, वही नाम रख लेते हैं. इसके बाद उन्होंने दुकान के बोर्ड से रामसिंघानी हटाकर रामसे लिखवा दिया. दुकान तो अच्छी चलने लगी लेकिन ज़्यादा दिन चल नहीं पाई. 1947 में भारत का बंटवारा हो गया और रामसे सीनियर को विद फैमिली मुंबई शिफ्ट होना पड़ा.
पापा फतेहचंद रामसिंघानी के साथ रामसे ब्रदर्स.
पापा फतेहचंद रामसिंघानी के साथ रामसे ब्रदर्स.


फिल्में बनाने के लिए प्रोड्यूसर पिता से मिन्नतें करनी पड़ीं
परिवार का पेट चलाने के लिए पैसे चाहिए थे. और पैसा आता है काम करने से. फतेहचंद ने मुंबई के लैमिंगटन रोड पर अप्सरा सिनेमा के ठीक सामने इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्ट्स की दुकान डाल दी. इस बार उनका बिज़नेस मर्फी रेडिया का था. मगर मामला जम नहीं पा रहा था. ऐसे में फतेहचंद का ध्यान, हाल ही में फलना-फूलना शुरू हुई हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की ओर गया. फतेहचंद ने फिल्म प्रोडक्शन में हाथ लगा दिया. 1954 में आई 'शहीद-ए-आज़म भगत सिंह' बतौर प्रोड्यूसर उनकी पहली फिल्म थी. कुछ खास चली नहीं. लेकिन पृथ्वीराज कपूर और सुरैया को लीड में लेकर बनी अगली फिल्म 'रुस्तम सोहराब' (1963) सफल रही. दो फिल्मों के बाद सक्सेस रेट 50-50 था. लेकिन उनकी तीसरी फिल्म 'एक नन्ही मुन्नी सी लड़की' (1970) पिट गई. इसके बाद फतेहचंद ने फिल्म बिज़नेस छोड़ने का मन बना लिया.
फतेहचंद के प्रोडक्शन में बनी फिल्में 'शहीद-ए-आज़म भगत सिंह' और 'रुस्तम सोहराब' के पोस्टर्स.
फतेहचंद के प्रोडक्शन में बनी फिल्में 'शहीद-ए-आज़म भगत सिंह' और 'रुस्तम सोहराब' के पोस्टर्स.


जब पिटी हुई फिल्म का एक सीन इंडिया में भुतियापा लेकर आया
श्याम और तुलसी रामसे फिल्म की रिलीज़ के बाद दर्शकों का रिएक्शन भांपने के लिए सिनेमाघरों में जाकर उनके साथ फिल्म देखते थे. पृथ्वीराज कपूर और शत्रुघ्न सिन्हा स्टारर 'एक नन्ही मुन्नी सी लड़की' को भी दोनों भाई थिएटर में देखने गए. वहां उन्होंने नोटिस किया कि फिल्म का एक खास सीक्वेंस देखकर दर्शक काफी एक्साइटेड हो गए थे. ये एक चोरी का सीन था. इसमें पृथ्वीराज कपूर भारी-भरकम कॉस्ट्यूम, मास्क और ऊंचे बूट्स पहनकर एक म्यूज़ियम में चोरी करने जाते हैं. अगर तुलसी रामसे की भाषा में कहें, तो इस दौरान ''पृथ्वीराज कपूर किसी मॉनस्टर जैसे दिख रहे थे. पुलिस उन पर गोलियां चलाती लेकिन बुलेट्स उनके शरीर से टकराकर नीचे गिर जातीं. इस सीन को देखकर लोग डरे भी और खूब सीटियां-तालियां भी बजाईं.'' रामसे भाइयों को समझ आ गया था कि मार्केट में क्या बिकेगा. वो वापस आए और पापा रामसे से हॉरर फिल्म बनाने के लिए कहा. फतेहचंद काफी नुकसान झेल चुके थे और इस फील्ड में कंटिन्यू करने का उनका कोई ईरादा नहीं था. हालांकि बच्चो के कहने पर वो मान गए.
फिल्म 'एक नन्ही मुन्नी सी लड़की' का पोस्टर.
फिल्म 'एक नन्ही मुन्नी सी लड़की' का पोस्टर. इस फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा, मुमताज़ और पृथ्वीराज कपूर ने लीड रोल्स किए थे.


फिल्ममेकिंग सिखने के लिए तीन महीने बोट में घूमते रहे
पापा से परमिशन मिलने के बाद अब फिल्में बनानी थीं. लेकिन फिल्म बनता कैसे है, इस बारे में इन लड़कों को ज़्यादा जानकारी नहीं थी. ये लोग जॉसफ वी. मैस्सेली की किताब 'फाइव सीज़ ऑफ सिनेमटोग्रफी' (Five Cs of Cinematography) खरीद लाए. श्रीनगर पहुंचे और एक बोट हाउस में खुद को कैद कर लिया. अगले तीन महीने तक सभी भाइयों ने ये किताब पढ़ी. प्रैक्टिकल किया. और खुद को फिल्ममेकिंग में ट्रेन किया. अपनी ट्रेनिंग कंप्लीट कर लड़के वापस मुंबई पहुंचे फिल्में और इतिहास बनाने.
रामसे ब्रदर्स.
रामसे ब्रदर्स.


पहली ही फिल्म की शूटिंग में लिटरली गड़े मुर्दे उखाड़ दिए
रामसे ब्रदर्स अपनी पहली फिल्म बना रहे थे. फिल्म का नाम था 'ज़मीन के दो गज नीचे'. 1972 में आई इस फिल्म की शूटिंग के दौरान एक बड़ा कांड हो गया था. कम खर्चे में फिल्म बनाने के लिए मेकर्स ने तय किया कि सेट बनवाने की बजाय फिल्म को रियल लोकेशन पर ही शूट करना चाहिए. 15 लोगों की टीम महाबलेश्वर पहुंची. यहां रुकने का इंतज़ाम हुआ एक सरकारी गेस्ट हाउस में. इस गेस्ट हाउस का किराया 500 रुपए प्रति दिन था. फिल्म का नाम था 'ज़मीन के दो गज नीचे', इसलिए एक खास सीक्वेंस के लिए जमीन में गड्ढा करना था. चर्च के पादरी से परमिशन लेने के बाद एक कब्रिस्तान चुना गया. गड्ढा खोदने में कुछ गड़बड़ न हो इसलिए आसपास के लोगों से मदद ली गई. इतनी सावधानियां बरतने के बावजूद जिस जगह खुदाई हो रही थी, वहां एक बॉडी निकल आई. कंकाल नहीं प्रॉपर इंसानी शरीर. डर के मारे हाहाकार मच गया. दूसरी समस्या ये हुई कि ये चीज़ लोकल लोगों को नाराज़ कर गई. लोगों ने फिल्म की क्रू को घेरना शुरू कर दिया. जैसे-तैसे वहां से जान बचाकर फिल्म की टीम निकल पाई.
फिल्म 'दो गज ज़मीन के नीचे' के पोस्टर्स.
फिल्म 'दो गज ज़मीन के नीचे' के पोस्टर्स. ये इंडिया की पहली हॉरर फिल्म थी.


फिल्म रिलीज़ हुई और गदर काट दिया
रामसे ब्रदर्स को मालूम था कि वो क्या और किसके लिए बना रहे हैं. उनकी टार्गेट ऑडियंस गांव के लोग और स्टूडेंट्स थे. थोड़ा डर, थोड़ा नाच-गाना, थोड़ा रोमैंस उनका फॉर्मेट था. जिन फिल्मों को आज कल्ट और पता नहीं क्या-क्या कहा जाता है, तब लोग इनकी चर्चा करने से भी बचते थे. रामसे ब्रदर्स की फिल्मों को 'ए' सर्टिफिकेट मिलता है और उन्हें बी-ग्रेड फिल्मों में गिना जाता था. बहरहाल, रामसे ब्रदर्स की पहली हॉरर फिल्म 'दो गज ज़मीन के नीचे' मुंबई के 20-30 थिएटर्स में रिलीज़ हुई. अधिकतर सिनेमाघरों में इस फिल्म के कॉन्टेंट को देखते हुए लेट नाइट शोज़ में ही जगह मिल पाई. जब एक नॉर्मल फिल्म को बनाने में कम से कम 50 लाख रुपए का खर्च आता था, तब ये फिल्म सिर्फ 3.5 लाख रुपए के बजट में बन गई थी. रिलीज़ के बाद ये खूब देखी गई. इसका लाइफटाइम कलेक्शन रहा 45 लाख रुपए. माने बढ़िया फायदा. यहां से शुरू हुआ रामसे ब्रदर्स ब्रांड ऑफ हॉरर सिनेमा, जिसने अगले 15-20 सालों तक इस जॉनर पर राज किया. इस दौरान उन्होंने 'दरवाज़ा' (1978), 'और कौन?' (1979), 'गेस्ट हाउस' (1980), 'दहशत' (1981), 'पुराना मंदिर' (1984), 'सामरी' (1985), 'वीराना' ( 1988) और 'पुरानी हवेली' (1989) जैसी कई फिल्में बनाईं.
फिल्म 'पुरानी हवेली' के पोस्टर पर दीपक पराशर और तेज सप्रू.
फिल्म 'पुरानी हवेली' के पोस्टर पर दीपक पराशर और तेज सप्रू.


इनकी फिल्मों के एक्टर्स सेट पर चाय बनाते थे
रामसे ब्रदर्स आम तौर पर मुंबई के आस पास के लोकेशंस पर ही अपनी फिल्में शूट करते थे. इस दौरान उनका पूरा परिवार इस फिल्ममेकिंग प्रोसेस में इंवॉल्व होता था. सारे भाई फिल्में बनाते. महिलाएं सेट पर कास्ट और क्रू के लिए खाना बनाती. सेक्सिज़्म तो था लेकिन इसी ट्रिक से  इनकी फिल्में कम से कम बजट में बन जाती थीं. रामसे ब्रदर्स अपनी फिल्मों के लिए नए एक्टर्स चुनते थे, ताकि उन्हें कम पैसे देने पड़ें. सेट पर पूरे परिवार के होने की वजह शूटिंग में एक्टर्स को किसी तरह की असहजता भी नहीं होती थी. काम करते-करते वो भी उसी परिवार का हिस्सा बन जाते थे. तुलसी अपने एक इंटरव्यू में बताते हैं कि उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए कभी बड़े स्टार्स को अप्रोच नहीं किया. वजह- 1) वो महंगे होते हैं. 2) उनके साथ ईगो की बड़ी समस्या होती है. 3) रामसे ब्रदर्स की फिल्में मुंबई से बाहर 40-50 दिन के शेड्यूल में आराम से शूट होती थीं. इतने लंबे टाइम के लिए कोई भी एक्टर उन्हें अपनी डेट्स नहीं देता. लेकिन उन्होंने अपनी फिल्मों में जो एक्टर्स लिए वो उनके लिए फिल्म के सेट पर चाय भी बना देता था. क्योंकि वहां कोई किसी के लिए काम नहीं कर रहा था, सब लोग मिलकर एक फिल्म पर काम कर रहे थे.
अपनी फिल्म के सेट पर भूत बने एक्टर से सीन डिस्कस करते श्याम और तुलसी रामसे.
अपनी फिल्म के सेट पर भूत बने एक्टर से सीन डिस्कस करते श्याम और तुलसी रामसे.


एक्टर्स ऐसे चुनते, जिन्हें रियल लाइफ में भी देखकर डर जाएं
रामसे ब्रदर्स का एक्टर्स को चुनने का एक ही क्राइटिरिया था- The boy should be smart and the girl should be sexy. यानी लड़के अच्छे दिखने चाहिए और लड़कियां सेक्सी लगनी चाहिए. उनकी कई फिल्मों में भूत बन चुके एक्टर अनिरुद्ध अग्रवाल (फिल्मी नाम अजय अग्रवाल) अपने इंटरव्यूज़ में बताते हैं कि रामसे भाइयों ने उनकी पर्सनैलिटी देखकर फिल्मों में काम दिया था. ऐसी अफवाह उड़ी थी कि अनिरुद्ध की हाइट 7 फुट है. लेकिन अनिरुद्ध ने बताया कि वो मात्र 6 फुट 5 इंच के हैं. उन्हें इस तरह से शूट किया जाता था कि वो और लंबे लगने लगते थे. साथ ही उनका चेहरा भी ऐसा था, जिसे आप एक बार देखने के बाद दोबारा मुड़कर ज़रूर देखेंगे. हालांकि उनका ये भी मानना है कि रामसे ब्रांड की फिल्मों से उनके करियर को कोई फायदा नहीं हुआ. वो जीवनभर बी-ग्रेड एक्टर ही माने गए. वहीं फिल्म 'वीराना' में काम करने वाली एक्ट्रेस जैस्मिन के बारे में कहा जाता है कि रामसे की फिल्म में देखकर उन्हें अंडरवर्ल्ड से फोन आने लगे. डॉन उनके साथ सोना चाहते थे, इसी डर से जैस्मिन फिल्म लाइन छोड़कर देश से बाहर चलीं गईं. हालांकि इस बात को साबित करने के लिए साक्ष्य नहीं है.
रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में भूत का रोल करने वाले अजय अग्रवाल. और दूसरी तस्वीर में फिल्म 'वीराना' के मशहूर बाथटब सीन में जैस्मिन.
रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में भूत का रोल करने वाले अजय अग्रवाल. और दूसरी तस्वीर में फिल्म 'वीराना' के मशहूर बाथटब सीन में जैस्मिन.


लेगेसी ऑफ रामसे ब्रदर्स
इंडिया की भुतिया फिल्मों का ट्रेंड शुरू करने के बाद देश का पहला हॉरर टीवी शो लाने का क्रेडिट भी इन्हीं भाइयों को जाता है. 90 के दशक में जब इनके फॉर्मूले पर कई और फिल्ममेकर्स ने हॉरर फिल्में बनानी शुरू कर दीं, तब रामसे ब्रदर्स ने अपना रुख टीवी की ओर कर लिया. उस दौर में ज़ी और स्टार जैसे कई टीवी चैनल लॉन्च हो रहे थे. 1993 में डॉ. सुभाष चंद्रा से इनकी 24 एपिसोड्स की एक हॉरर टीवी सीरीज़ की डील हुई. शो का नाम था 'द ज़ी हॉरर शो'. ये शो आते ही हिट हो गया और लगातार 9 सालों तक चलता रहा. इसकी स्क्रिप्ट श्याम रामसे लिखते थे और तुलसी के साथ मिलकर डायरेक्ट करते थे. इस शो में पंकज धीर, अर्चना पूरण सिंह, आसिफ शेख और गोगा कपूर जैसे एक्टर्स ने काम किया था. इसके बाद इन्होंने कुछ और टीवी शोज़ और फिल्में बनाईं लेकिन वो जादू और पॉपुलैरिटी नहीं दोहरा सके. उनकी आखिरी फिल्म 'नेबर्स' 2014 में रिलीज़ हुई थी लेकिन फिल्म के बारे में किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई. फिर 13 दिसंबर, 2018 को डायरेक्टर जोड़ी से तुलसी रामसे का निधन हो गया. और उनकी मौत के साल भर से भी कम समय के भीतर श्याम रामसे की भी डेथ हो गई. श्याम की बेटी शाशा हालांकि हॉरर फिल्म-सीरीज़ मेकिंग में एक्टिव हैं लेकिन उनकी पहचान रामसे ब्रदर्स की बेटी होने से है, उनके काम से नहीं. शाशा रामसे की वेब सीरीज़ का एक वीडियो आप यहां देख सकते हैं:

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