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फिल्म रिव्यू: वन डे जस्टिस डिलिवर्ड

रेगुलर थ्रिलर मूवी की तरह शूट किए जाने के बावजूद ये फिल्म रेगुलर वाली बार को टच करने से चूक जाती है.

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अनुपम खेर, ईशा गुप्ता, कुमुद मिश्रा, मुरली शर्मा और ज़ाकिर हुसैन स्टारर इस फिल्म को अशोक नंदा ने डायरेक्ट किया है.
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5 जुलाई 2019 (Updated: 5 जुलाई 2019, 01:02 PM IST) कॉमेंट्स
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हर हफ्ते नई फिल्में आती है. इस हफ्ते जो आई है, उसका नाम है 'वन डे जस्टिस डिलिवर्ड'. मतलब एक दिन में न्याय हो गया. कई असल घटनाओं को मिलाकर बनाई गई इस फिल्म को अशोक नंदा ने डायरेक्ट किया है. फिल्म में काम कर रहे हैं अनुपम खेर, ईशा गुप्ता, कुमुद मिश्रा और ज़रीना वहाब, ज़ाकिर हुसैन, मुरली शर्मा और दीपशिखा नागपाल जैसे कलाकार. फिल्म किस बारे में है? कैसी है? एक्टर्स का काम कैसा है? देखें कि नहीं देखें? जैसी बातें आप नीचे पढ़ेंगे.
फिल्म की कहानी
रांची हाई कोर्ट से एक जज रिटायर हो रहे हैं. रिटायरमेंट के बाद करते हैं वो लोगों को शहर के कुछ नामी लोगों को किडनैप करते हैं. लोकल पुलिस लगातार इस मामले पर लगी हुई है लेकिन उनके हाथ कुछ सुराह नहीं लग रहा है. कोई क्लू नहीं मिल रहा है. इसलिए इस केस की जांच के लिए क्राइम ब्रांच से एक ऑफिसर को बुलाया जाता है. फाइनली होता ये है कि वो ऑफिसर भी जज साहब की वजह को वाजिब समझती है. जो काम जज साहब नहीं कर पाए (कानून को हाथ में लेना) वो सारी गलतियां ये ऑफिसर खुद करके फिल्म का टाइटल 'वन डे जस्टिस डिलिवर्ड' को जस्टिफाई कर देती है. इतनी सी कहानी है, जिसे भारी ड्रामा और क्लीशे लाइन्स और सीन्स की मदद से दिखाया गया है.
फिल्म में जस्टिस त्यागी का रोल किया है, जो रिटायर हो चुके हैं.
फिल्म में अनुपम खेर ने जस्टिस त्यागी का रोल किया है, जो रिटायर हो चुके हैं.


एक्टिंग
अनुपम खेर, कुमुद मिश्रा, ज़रीना वहाब जैसे एक्टर्स इस फिल्म में काम कर रहे हैं. जिनकी एक्टिंग बिलकुल सधी हुई है. लेकिन इस ज़रीना वहाब को छोड़ दें, तो बाकी सभी एक्टर्स इस रोल को बड़े बेमन से निभाते हुए से लगे हैं. कुमुद मिश्रा तकरीबन हर सीन में कंफ्यूज़ रहते हैं. ऐसा लगता है उनका वहां मन ही नहीं लग रहा है. तो अनुपम खेर भी अपना काम बड़ी सुस्ती और अनमने ढंग से करते हैं. अभी यही सब चल रहा होता है कि क्राइम ब्रांच से आई ऑफिसर के रोल में ईशा गुप्ता की एंट्री होती है. अब तक जो भी चुप-चाप चल रहा था, वो अचानक से लाउड लगने लगा. ऊपर से उनका हरयाणवी एक्सेंट, जो वो अपनी सुविधानुसार मुंबइया हिंदी से बदल लेती हैं. ये सबकुछ फिल्म के बैकड्रॉप से अलग ही लगता है. सपोर्टिंग कास्ट (डॉ. सहाय का बेटा और कॉन्स्टेबल के रोल में एक्टर्स) लगातार सिर्फ गायब हुए लोगों का फोन ट्रेस करती रहती है. और इस पूरे टाइम में वो लोग काफी अनॉइंग लगते रहते हैं.
क्राइम ब्रांच ऑफिसर लक्ष्मी राठी के किरदार में ईशा गुप्ता. ये रोल उन पर बिलकु सूट नहीं किया.
क्राइम ब्रांच ऑफिसर लक्ष्मी राठी के किरदार में ईशा गुप्ता. ये रोल उन पर बिलकुल सूट नहीं किया.


फिल्म का म्यूज़िक और बैकग्राउंड स्कोर
म्यूज़िक इस फिल्म का सबसे बुरा हिस्सा है. क्योंकि वो संजय गुप्ता की फिल्मों की तरह बेवजह आ जाता है. कभी क्लब नंबर, कभी टाइटल ट्रैक. और ये बहुत ज़ोर से कान को लगते हैं क्योंकि ठीक नहीं लगते. बैकग्राउंड स्कोर भी बहुत लाउड है. और इसका पता ओपनिंग क्रेडिट रोल से ही चल जाता है. 2-3 गाने को होने के बावजूद फिलहाल मुझे एक भी गाना याद नहीं आ रहा है, जिसका नाम मैं लिख सकूं या बता सकूं कि ये नहीं सुनना है. इससे आप फिल्म के म्यूज़िक डिपार्टमेंट की हालत समझ लीजिए. अब भी समझ नहीं आया तो ये गाना सुनिए, जो मैंने यूट्यूब से ढूंढ़ा है:

कैमरा वगैरह
फिल्म को बिलकुल रेगुलर थ्रिलर मूवी की तरह शूट किया गया है, बावजूद इसके वो रेगुलर वाली बार को टच करने से चूक जाती है. कैमरावर्क फिल्म की कहानी को कोई दिशा या रफ्तार नहीं देता. बस चल रही चीज़ों को ठीक से दिखा देता है. फिल्म की रफ्तार और लेंग्थ दोनों बेहतर की जा सकती थीं. लेकिन वो होना इसलिए संभव नहीं था क्योंकि ये फिल्म कई टुकड़ों को मिलाकर बनी हुई लगती है. एकरसता और वेरिएशन दोनों की ही कमी है. फिल्म अपने इमोशनल से इमोशनल सीन्स में भी टच नहीं कर पाती क्योंकि कैमरा उसे उस प्रभाव के साथ दिखा नहीं पाता. इन्हें ट्विस्टेड 'वेन्सडे' बनानी थी, जो ये फिल्म बन नहीं पाई.
फिल्म के पोस्टर में कुमुद मिश्रा, ईशा गुप्ता और अनुपम खेर.
फिल्म के पोस्टर में कुमुद मिश्रा, ईशा गुप्ता और अनुपम खेर.


ओवरऑल एक्सपीरियंस
फिल्म एक समय में इतनी झिलाऊ और ढीली हो जाती है कि आप इंटरवल का इंतज़ार करने लगते हैं. इस डर से बेखबर कि दूसरी तरफ ये पूरा फैला रायता समेटना भी है. अपनी बिखरी हुई कहानी को ठीक-ठाक तरीके से समेट लेना इस फिल्म की सबसे खास बात है. कहानी के सार तक पहुंचने में फिल्म समय लेती है लेकिन इस दौरान पूरी क्लैरिटी बरतती है. बावजूद इसके इसका नीयत साफ लेकिन तरीका गलत है. 'सिंबा' जैसी गैर-ज़िम्मेदार फिल्मों सी लगती है, जिसे आप सिनेमा मानकर पचा लें.


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