उन 6 एक्टर्स की कहानियां, जो तब फ़िल्मों में आए जब लोग ये करियर छोड़ते हैं
इनमें अजय देवगन की फ़िल्म 'रेड' की ये एक्ट्रेस तो शायद सबसे उम्रदराज़ डेब्यूटेंट हैं.
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पेशावर में अपनी टेलरिंग की शॉप में काम करते यंग ए. के. हंगल; फेवीक्विक के एड में पुष्पा जोशी; और जवानी के दिनों में एक फोटो शूट के दौरान अमरीश पुरी. (फोटो: FB/एन. के. सरीन)
(1.) बमन इरानीः फाइव स्टार होटल में वेटर का काम करते थे
ये बंदा जन्मा 2 दिसंबर 1959 को. उससे छह महीने पहले ही पिता गुजर गए थे. परिवार में मां और तीन बड़ी बहनें थीं. मां बेकरी चलाती थीं. बमन जब छोटे थे तो स्कूल से लौटने के बाद बेकरी में मां का हाथ बंटाते थे. बचपन में बमन डिस्लेक्सिक थे. उन्हें बात करने में ज़रा दिक्कत होती थी. लेकिन उम्र के साथ इसमें सुधार आ गया. पढ़ाई के दौरान ही बमन ने वेटर बनने का कोर्स भी कर लिया. कुछ साल फाइव स्टार होटल में वेटर रहे. हाउसकीपिंग का काम किया. बचपन से फोटोग्राफी का बहुत शौक था तो प्रफेशनली करने लगे.
मां जरबानू ईरानी के साथ; और विदेश में एक फोटोसेशन के दौरान बमन. (फोटोः बमन ईरानी/FB)
फ़िल्में देखने का सिलसिला भी जारी था. उनकी शॉप के सामने एक सिनेमाहॉल हुआ करता था. जहां हॉलीवुड की और हिंदी फ़िल्में लगती थी. और वो ख़ूब देखते थे. फिर एक दिन फोटोग्राफी ने ही उनको एक्टिंग से जोड़ दिया. एक दिन वो श्यामक डावर के यहां शूट कर रहे थे. वहां श्यामक ने बमन को मस्ती करते हुए देखा. वे बोले कि तुमको एक्टिंग में ट्राय करना चाहिए. फिर एक दिन श्यामक उन्हें थिएटर और विज्ञापन फिल्मों के बड़े आदमी एलेक पदमसी के पास लेकर गए थे. एलेक ने बमन को अपने अगले प्ले में लीड रोल दिया. इस प्ले का नाम था 'आई एम नॉट बाजीराव'. ये प्ले खूब चला. बतौर एक्टर भी उनकी पहचान बनने लगी. इसके बाद बमन ने 'महात्मा वर्सेज़ गांधी' जैसे कई प्ले किए.
फिर 42 की उम्र में बमन ने फ़िल्मों में डेब्यू किया. फ़िल्म का नाम था 'लेट्स टॉक'. डायरेक्टर थे राम माधवानी. इसी फिल्म की एडिटिंग के दौरान विधु विनोद चोपड़ा ने बमन का काम देखा. उन्हें बमन इतने पसंद आए कि विधु ने तुरंत दो करोड़ का चेक काट कर दे दिया. विधु ने कहा कि वो उन्हें अगले साल दिसंबर के लिए बुक कर रहे हैं. ये फिल्म थी 'मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.' जिसमें बमन ने डॉक्टर अस्थाना की भूमिका निभाई. यहां से बमन का करियर ऐसा चला कि आज तक उसी रफ़्तार में चल रहा है.

प्रोफेसर वीरू सहस्त्रबुद्धे का बमन का यूनीक रोल जिसमें ये बंदा दोनों हाथ से एक ही टाइम में लिखता है.
(2.) अमरीश पुरीः बीमा कंपनी का अधिकारी बना एक्टर
बहुत लेट फ़िल्मों में एंट्री लेकर जबरदस्त फ़िल्मोग्रफी बनाने वाले जितने भी लोग दुनिया में हैं, उनमें अमरीश पुरी निश्चित तौर पर बहुत ऊपर रहेंगे. वे करीब 40 के थे तब डेब्यू किया. कैसे?पंजाब के नवांशहर में जन्मे अमरीश पुरी के बड़े भाई थे मदन पुरी. जिनको आपने पूरब और पश्चिम जैसी कितनी ही फ़िल्मों में देखा. जाने माने एक्टर. बड़े विलेन. उनसे प्रेरित अमरीश, हमेशा से ही एक्टर बनना चाहते थे. लेकिन रस्ता आसान नहीं था. 22 साल के थे, तो हीरो के रोल के लिए एक ऑडिशन दिया. साल था 1954. प्रोड्यूसर ने उनको खारिज कर दिया. बोला - इसका चेहरा तो बड़ा पथरीला सा है. इसके बाद पुरी रंगमंच करने लगे. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के डायरेक्टर रहे इब्राहीम अल्क़ाज़ी 1961 में उनको थिएटर में लाए. तब अमरीश बंबई में कर्मचारी राज्य बीमा निगम में नौकरी कर रहे थे. फिर वे थिएटर में सक्रिय हो गए. जल्द ही लैजेंडरी रंगकर्मी सत्यदेव दुबे के सहायक बन गए. शुरू में नाटकों में दुबे से आदेश लेते हुए उन्हें अजीब लगता था कि कम कद का ये छोकरा उन्हें सिखा रहा है. लेकिन जब दुबे ने निर्देशक के तौर पर सख्ती अपनाई तो पुरी उनके ज्ञान को मान गए. बाद में पुरी हमेशा दुबे को अपना गुरु कहते रहे. फिर नाटकों में पुरी के अभिनय की जोरदार पहचान बन गई.

अमरीश पुरी पत्नी और बच्चों के साथ, दूसरी तस्वीर में दिख रहे हैं उनके बड़े भाई मदन पुरी.
फिल्मों के ऑफर आने लगे तो पुरी ने कर्मचारी राज्य बीमा निगम की अपनी करीब 21 साल की सरकारी नौकरी छोड़ दी. इस्तीफा दिया तब वे ए ग्रेड के अफसर हो चुके थे. अमरीश पुरी नौकरी तभी छोड़ देना चाहते थे जब में थिएटर में एक्टिव हो गए. लेकिन सत्यदेव दुबे ने उनको कहा कि जब तक फिल्मों में अच्छे रोल नहीं मिलते वे ऐसा न करें. आखिरकार डायरेक्टर सुखदेव ने उन्हें एक नाटक के दौरान देखा और अपनी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में एक भले दिल वाले ग्रामीण मुस्लिम किरदार के लिए कास्ट कर लिया. तब वे करीब 39 साल के थे.
उसके बाद वे चल निकले. 70 के दशक में उन्होंने कई अच्छी फिल्में कीं. सार्थक सिनेमा में उनका मुकाम जबरदस्त हो चुका था लेकिन मुंबई के कमर्शियल सिनेमा में उनकी पहचान 80 के दशक में बननी शुरू हुई. इसकी शुरुआत 1980 में आई डायरेक्टर बापू की फिल्म ‘हम पांच’ से हुई जिसमें संजीव कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, राज बब्बर और कई सारे अच्छे एक्टर थे. इसमें पुरी ने क्रूर जमींदार ठाकुर वीर प्रताप सिंह का रोल किया था. बतौर विलेन उन्हें सबने नोटिस किया. लेकिन डायरेक्टर सुभाष घई की ‘विधाता’ (1982) से वो बॉलीवुड की कमर्शियल फिल्मो में बतौर विलेन छा गए. फिर वे मोगैंबो और अशरफ अली जैसे कैरेक्टर्स में भी दिखे.

अमरीश पुरी जवानी के दिनों में, दूसरी फोटो स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म 'इंडियाना जोन्स एंड द टेंपल ऑफ डूम' से उनके किरदार की.
(3.) पुष्पा जोशी: शायद दुनिया की सबसे उम्रदराज़ डेब्यूटेंट एक्टर
इस लिस्ट में पुष्पा जोशी की कहानी सबसे यूनीक है. दुनिया में इतनी ज्यादा उम्र वाले एक्टर्स बहुत रेयर होंगे. वे 85 साल की थीं तब उन्होंने अपना मूवी डेब्यू किया था. 2018 में डायरेक्टर राजकुमार गुप्ता की बहुत प्रशंसित फिल्म आई थी 'रेड.' अजय देवगन जिसमें इनकम टैक्स ऑफिसर बने थे. जो एक बाहुबली नेता (सौरभ शुक्ला) के घर छापा मारने जाता है. इसी फिल्म से पुष्पा जी ने डेब्यू किया था. उन्होंने इसमें उस बाहुबली की मां का रोल किया था. फ़िल्म में उनके काम की बड़ी तारीफ हुई थी. मूवी रिव्यूज़ में सब एक्टर्स के बीच उनका जिक्र खासतौर पर किया गया था. अजय देवगन भी उनके काम से इतने इम्प्रेस हुए कि उन्होंने और काजोल ने पुष्पा जी को अपने घर दावत में बुलाया.
'रेड' फ़िल्म वाले अपने बेटे (सौरभ शुक्ला) के साथ पुष्पा जोशी, दूसरी झलक फेवीक्विक एड से.
पुष्पा जी को राजकुमार गुप्ता ने 'फेवीक्विक' का एड देखकर और एक शार्ट फिल्म 'ज़ायका' देखकर अपनी फ़िल्म में कास्ट किया था. वे लम्बे वक़्त से थिएटर से जुड़ी हुईं थीं. पुष्पा के पोते आभास एक एस्पायरिंग सिंगर हैं. वो 'वॉइस ऑफ इंडिया' और 'म्यूजिक का महामुकाबला' जैसे शोज़ में नज़र आ चुके हैं. पुष्पा जबलपुर, मध्य प्रदेश की रहने वाली थीं. 26 नवंबर 2019 को उनका निधन हुआ.
(4.) लिलेट दुबे: अक्षय खन्ना के साथ फ़िल्म से डेब्यू किया था
लिलेट का जन्म अपने नाना के घर पुणे में हुआ. उनके नाना फिजिशियन थे. मां लीला डॉक्टर थीं. और पिता रेलवे में इंजिनियर थे. लिलेट की आम लड़कियों के मुकाबले थोड़ी भारी आवाज़ थी तो उनके पिता ने उन्हें गाना सीखने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने कॉलेज में इंग्लिश लिट्रेचर में ग्रेजुएशन किया. यहीं से उनके थिएटर की शुरुआत हुई. और यहीं लिलेट की अपने पति रवि दुबे के साथ पहली मुलाक़ात हुई . यहां से थिएटर और रवि लिलेट के जीवन का हिस्सा बन गए. सन 1978 में दोनों ने शादी कर ली. फ़िल्मों में लिलेट की एंट्री इत्तेफाक से हुई. उनका फ़िल्मों में ज्यादा इंटरेस्ट नहीं था. वे कई सालों से थिएटर करती आ रही थीं और उसी में खुश थीं. लेकिन 1995 में उनके पति का नौकरी के कारण मुंबई ट्रांसफर हो गया. लिहाज़ा लिलेट को भी मुंबई शिफ्ट होना पड़ा. साल 1999 में लिलेट ने अक्षय खन्ना और सोनाली बेंद्रे की फिल्म 'लव यू हमेशा' से डेब्यू किया.
शाहरुख स्टारर फ़िल्म 'कल हो ना हो' में जैज़ कपूर का फनी रोल करने वाली लिलेट उनकी पुरानी दोस्त रही हैं. जब शाहरुख 18 साल के रहे होंगे तब दोनों ने शायद एक टीवी पायलट शूट किया था.
इस फिल्म को कैलाश सुरेंद्रनाथ ने डायरेक्ट किया था. अपने इस डेब्यू के वक्त लिलेट की उम्र 40 प्लस थी. बाद में उन्हें 'मानसून वेडिंग' और 'कल हो ना हो' जैसे किरदारों से चर्चा मिली.
(5.) कमलेश गिल: रेलवे में नौकरी पूरी की, फिर एक्टर बनीं
40 साल रेलवे में नौकरी करने के बाद कमलेश गिल ने अपने पैशन एक्टिंग को फॉलो किया. वैसे तो कई बार उन्होंने रेलवे के कल्चरल प्रोग्रैम्स में हिस्सा लिया था लेकिन सिर्फ़ शौकिया तौर पर. नौकरी से रिटायरमेंट के बाद वो एक्टिंग में पूरी तरह एक्टिव हो गईं. उन्होंने 'तनिष्क ' और 'फार्च्यून आयल' जैसे कई विज्ञापनों से शुरुआत की.
यंग कमलेश गिल; दूसरी ओर 'फॉर्च्यून ऑयल' के अपने बेहद लोकप्रिय एड में.
कमलेश जी ने पहली फिल्म 2005 में की थी 'सोचा न था'. इस फ़िल्म में अभय देओल और आयशा टाकिया मेन लीड में थे. फ़िल्म में कमलेश जी ने आयशा की दादी का रोल प्ले किया था. कमलेश गिल को असली फेम मिला डायरेक्टर शुजीत सरकार की फ़िल्म 'विकी डोनर' से. इसने उन्होंने विकी (आयुष्मान खुराना) की दादी बिजली का रोल किया था. उस रोल की बड़ी तारीफ हुई थी. इसने इंडियन दादीज़ को एक अलग ही छवि में पेश किया. एक ऐसी सास जो अपनी बहू (डॉली अहलुवालिया का किरदार) से लड़ती भी है तो रात को उसके साथ ड्रिंक भी करती है. उनका डायलॉग 'बहू पैग बना' बहुत पसंद किया गया. भारतीय सिनेमा के लिहाज से इसे ख़ासा प्रोग्रेसिव किरदार माना गया.
(6.) ए. के. हंगलः आज़ादी के लिए लड़े, जेल गए
अवतार किशन हंगल 1917 में जन्मे थे. पंजाब के सियालकोट में. फैमिली में ज्यादातर लोग ब्रिटिश सरकार में नौकरी कर रहे थे. लेकिन हंगल साब को अंग्रेजों की नौकरी रास नहीं आई. वो आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय हो गए. कई बार जेल जाना पड़ा. एक बार तो कराची में तीन साल के लिए जेल हो गई थी. ख़ैर, करीब 35 के रहे होंगे तब बंबई (तब का नाम) पहुंचे. साल था 1949. जेब में 20 रुपये थे और पेशा आता था कपड़े सिलने का. साउथ बॉम्बे में आनंद जेंट्स नाम की दुकान पर टेलर का काम करने लगे. फिर मुंबई के क्रॉफर्ड मार्केट में अपना खुद का काम शुरू किया.
ए. के. हंगल जब युवा दिखा करते थे, दूसरी तरफ अपनी हिट फ़िल्म शोले की टीम के साथ.
एक्टिंग से उनका कनेक्शन ये था कि वे 20 बरस के थे तब से नाटक करते आ रहे थे. इसी वजह से 1950 में मुंबई में नाट्य संस्था इप्टा से जुड़ गए. वहां उनका अभिनय और निखरता चला गया. सन् 66 में हंगल ने सुबोध मुखर्जी की फिल्म ‘शागिर्द’ से अपना डेब्यू किया. उसके बाद वो 'अभिमान', 'आनंद, 'परिचय', 'गरम हवा', 'अवतार', 'मेरे अपने', 'गुड्डी', 'शोले', 'बावर्ची' जैसी करीब 225 फिल्मों में काम किया. इनमें उनका सबसे पॉपुलर कैरेक्टर था रहीम चाचा का. रमेश सिप्पी की 1975 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘शोले' में हंगल ने ये रोल किया था. फ़िल्म में उनका एक डायलॉग कल्ट बना - "इतना सन्नाटा क्यों है भाई." आखिरी बार वे 2012 में टीवी सीरियल ‘मधुबाला – एक इश्क एक जुनून’ में गेस्ट रोल में दिखे. उसी साल 26 अगस्त को उनका निधन हो गया. वे 95 साल के थे.