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ये काम हो जाए तो तुरंत पता चल जाएगा कि गुवाहाटी में विधायकों का कमरा किसने बुक किया?

बस 10 रुपये लगाकर चिट्ठी लिखनी होगी, फिर सब हो जाएगा!

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Shiv Sena rebel MLAs and eknath Shinde in Guwahati hotel
गुवाहाटी होटल में ठहरे शिवसेना के बागी विधायक. (फोटो: पीटीआई)
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धीरज मिश्रा
29 जून 2022 (Updated: 29 जून 2022, 04:16 PM IST) कॉमेंट्स
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आपको लल्लनटॉप के न्यूज़रूम से बताते हैं एक किस्सा. लोग थोड़ा दिमाग को धुन रहे थे. ये जानने की कोशिश कि किसी राज्य में कोई होटल बुक करे तो किसके नाम पर बुक हुआ? और कितना खर्च हुआ? कैसे पता चलेगा? और खासकर तब जब ये सब बुकिंग वगैरह का हिसाब-किताब किसी राजनीतिक पार्टी के जिम्मे हो.

फिर रास्ता सूझा RTI का यानी सूचना के अधिकार का. कि क्या RTI से रास्ता निकलेगा? RTI से पता चल जाएगा कि किसने क्या बुक किया? 

तब जवाब कौंधा. नहीं. RTI से नहीं पता चलेगा. क्यों? क्योंकि भारत के तमाम राजनीतिक दल RTI के दायरे में व्यावहारिक रूप से नहीं आते हैं. और उनके बीच आपस में कितने ही मतभेद क्यों न हों? लेकिन उन पर आरोप हैं कि वो सब RTI के दायरे में नहीं आना चाहतीं, और इसको लेकर उनमें एकजुटता है. 

तो फिर प्रॉब्लम क्या है?

अब सवाल ये उठता है कि यदि राजनीतिक दलों पर आरटीआई एक्ट नहीं लागू होता है तो इससे जनता को क्या समस्या है. इसके कई जवाब हो सकते हैं, लेकिन फौरी तौर पर महाराष्ट्र के मौजूदा राजनीतिक संकट के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है. 

शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे की अगुवाई में पार्टी के कई विधायकों को एक जगह से दूसरी जगह टहलाया जाया जा रहा है. उन्हें महंगे-महंगे होटलों में ठहराया जा रहा है. उन्हें प्राइवेट प्लेन से घुमाया जा रहा है. उनके खाने-पीने, रहने, घूमने इत्यादि में बेतहाशा पैसे खर्च किए जा रहे है. इनकी सभी गतिविधियों की जानकारी सामने आ रही है. लेकिन सिर्फ एक ही रहस्य है- “इनकी फंडिंग कौन कर रहा है, इनके खर्चे कौन उठा रहा है?”

RTI होता तो क्या होता?

यदि राजनीतिक दलों ने अपनी पार्टी में आरटीआई कानून लागू किया होता तो कुछ सवाल उनसे जरूर पूछा जा सकता था. जैसे कि-

1 - क्या पार्टी ने विधायकों प्राइवेट प्लेन से गुवाहाटी भेजा था? यदि हां, तो इसमें कितना खर्चा आया?

2 - क्या पार्टी ने होटल में ठहरने के लिए विधायकों के होटल बुक कराए थे? यदि हां, तो कुल होटल खर्च और फूड बिल्स कितना है?

3 - विधायकों से मुलाकात करने वाले व्यक्तियों के संबंध में जानकारी, एक जगह से दूसरी जगह बस से ले जाने में हुए खर्च की जानकारी. वगैरह-वगैरह.

यदि इन सवालों के जवाब ‘हां’ में आते तो सभी तरह की जानकारियों का खुलासा हो जाता. और यदि इन सवालों के जवाब ‘ना’ में आते, तो फिर एक बड़ा सवाल उठता कि यदि पार्टी ने इनका खर्चा नहीं उठाया, तो इन विधायकों के घूमने-टहलने का खर्चा कौन भर रहा है. तब कॉरपोरेट फंडिंग या किसी अन्य माध्यम से भुगतान की संभावनाओं पर विचार किया जाता.

इस तरह आरटीआई एक्ट लागू होने से किसी एक सवाल का जवाब जरूर मिल जाता. अभी पार्टियों में इस तरह की व्यवस्था लागू नहीं होने के चलते जनता को इस बात का भी स्पष्ट जवाब नहीं मिलता है ‘क्या राजनीतिक दल इनका खर्चा उठा रहे हैं.’?

क्या राजनीतिक दल आरटीआई के बाहर हैं?

तकनीकि तौर पर 'नहीं'. सूचना का अधिकार कानून, 2005 के तहत केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) सबसे बड़ी संस्था है, जो इस बात पर अंतिम निर्णय लेती है कि संबंधित विषय पर सूचना दी जानी चाहिए या नहीं.

इसी सीआईसी ने 3 जून 2013 को एक ऐतिहासिक फैसला दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि छह राष्ट्रीय पार्टियां - कांग्रेस, बीजेपी, सीपीआई (एम), सीपीआई, एनसीपी और बीएसपी- आरटीआई एक्ट के दायरे में आती हैं. संस्था ने आदेश दिया था कि ये सभी पार्टियां छह हफ्ते के भीतर अपने मुख्यालय में जनसूचना अधिकारियों और अपीलीय अधिकारियों की नियुक्ति करें, ताकि लोग इनके पास आवेदन भेजकर पार्टियों से संबंधित जानकारियां प्राप्त कर सकें.

इस फैसले को आज तक किसी भी पार्टी ने किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी है और किसी भी कोर्ट का इस पर स्टे ऑर्डर नहीं आया है. इसका मतलब ये है कि इस आदेश पर किसी भी तरह का रोक नहीं है और इसका पालन नहीं करके राजनीतिक दल लगातार अवमानना कर रहे हैं.

चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रिटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने ये याचिका दायर की थी. उन्होंने साल 2010 में एक आरटीआई आवेदन दायर कर इन छह पार्टियों से उनके चंदे के बारे में जानकारी मांगी थी. हालांकि इसमें से किसी ने भी ये सूचना मुहैया नहीं कराई, जिसके बाद आवेदनकर्ताओं ने सीआईसी का रुख किया.

केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश में कहा था कि चूंकि राजनीतिक दलों को दिल्ली में ऑफिस के लिए सस्ते दर पर सरकारी जमीन मिलती है, उन्हें राज्य की राजधानियों में जगह दी जाती है, सस्ते दर पर सरकारी बंगला मिलता है और साथ ही साथ आयकर कानून की धारा 13ए के तहत टैक्स में छूट मिलती है. इससे यह स्पष्ट होता है कि सरकारी धन या यूं कहें कि जनता का काफी पैसा राजनीतिक दलों की हित में खर्च होता है, इसलिए राजनीतिक दल कानून की धारा 2एच के तहत आरटीआई एक्ट के दायरे में हैं.

आदेश मानने से इनकार

हालांकि किसी भी राजनीतिक दल ने इस आदेश को नहीं माना और वे लगातार अवमानना करते थे. इसे लेकर आयोग ने 21 नवंबर 2014 को सभी पार्टियों को नोटिस जारी किया और उनसे सुनवाई में उपस्थित होकर इसका कारण बताने को कहा था. लेकिन कोई भी पार्टी सुनवाई के लिए नहीं आई.

बाद में 7 जनवरी 2015 को एक बार फिर से सीआईसी ने छह राजनीतिक दलों को नोटिस जारी किया और उनसे पूछा कि वे आयोग के आदेश का अनुपालन क्यों नहीं कर रहे हैं. इस बार भी वही हुआ. कोई भी पार्टी सुनवाई के लिए नहीं आई.

अंत में 16 मार्च 2015 को सीआईसी ने आखिरी आदेश पारित किया है और राजनीतिक दलों की हठधर्मिता पर गंभीर चिंता जताई. आयोग ने कहा कि वह अपने आप को बिल्कुल 'बेसहारा' महसूस कर रहा है कि वह अपने आदेश को किस तरह लागू करवाए.

सीआईसी ने कहा था, 

'इस स्थिति को हैंडल करने के लिए आयोग के पास व्यवस्था नहीं है, जहां जिन्हें जवाब देना है (राजनीतिक दल), उन्होंने पूरी प्रक्रिया से मुंह मोड़ लिया है.' 

उन्होंने कहा कि 'अपने आदेश का अनुपालन कराने के लिए आयोग के पास उपकरण नहीं हैं'.

सीआईसी के इस आदेश के बाद एडीआर और सुभाष अग्रवाल ने 19 मई 2015 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और आदेश को लागू कराने की मांग की. करीब सात साल से अधिक का समय हो गया है, लेकिन ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

इस तरह तकनीकी तौर पर देखें तो कोई भी व्यक्ति इन राजनीतिक दलों के यहां आरटीआई आवेदन दायर कर उनकी फंडिंग, चुनावी खर्च, विभिन्न पदों पर नियुक्ति इत्यादि जानकारी मांग सकता है. लेकिन, चूंकि पार्टियों ने आरटीआई एक्ट लागू नहीं किया है, इसलिए वे या तो कोई जवाब नहीं देंगे या फिर ये कह सकते हैं कि वे आरटीआई एक्ट के दायरे में नहीं हैं.

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