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महाराष्ट्र संकट के चलते चर्चा में आया किहोतो होल्लोहॉन केस क्या है, जिस पर SC में भी बहस हुई?

दलबदल विरोधी कानून से जुड़े इस फैसले में स्पीकर की शक्तियों पर बड़ा निर्णय लिया गया था.

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Supreme Court and Shiv Sena rebel leader Eknath Shinde
सुप्रीम कोर्ट और बागी नेता एकनाथ शिंदे के साथ शिवसेना विधायक. (फोटो: पीटीआई/इंडिया टुडे)
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धीरज मिश्रा
28 जून 2022 (Updated: 29 जून 2022, 02:08 PM IST) कॉमेंट्स
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महाराष्ट्र के मौजूदा राजनीतिक संकट की गेंद अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में चली गई है. कोर्ट ने अपने अंतिम आदेश में शिवसेना के बागी विधायकों को राहत दी है. उसने विधानसभा के उपाध्यक्ष द्वारा 16 बागी विधायकों को जारी किए गए बर्खास्तगी नोटिस पर जवाब देने का समय बढ़ा कर 12 जुलाई कर दिया है. इसके साथ ही महाराष्ट्र सरकार को ये जिम्मेदारी दी गई है कि वो 39 बागी विधायकों और उनके परिवारों के जान-माल की रक्षा करे. न्यायालय अब 11 जुलाई को इस मामले की सुनवाई करेगा.

बीते सोमवार, 27 जून को इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में आनन-फानन में हाई वोल्टेज सुनवाई हुई. दोनों तरफ के वकीलों ने जोरदार बहस की. इस बीच बार-बार 'किहोतो होल्लोहॉन (1992)' फैसले का जिक्र आया. दल-बदल विरोधी कानून के संबंध में ये एक बेहद महत्वपूर्ण फैसला है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले के तहत विधायकों की बर्खास्तगी को लेकर स्पीकर के अधिकार (विवेकाधिकार) को बरकरार रखा था. फैसले में कोर्ट ने कहा था इस कानून के तहत विधानसभा स्पीकर या अध्यक्ष को जो शक्तियां दी गई हैं, वो उचित हैं.

इस रिपोर्ट में हम 'किहोतो होल्लोहॉन' केस के बारे में बताएंगे, लेकिन उससे पहले ये जानकारी कि संविधान की दसवीं अनुसूची क्या है.

संविधान की दसवीं अनुसूची

साल 1985 में संविधान में 52वां संशोधन कर दसवीं अनुसूची जोड़ी गई थी. इसमें ये प्रावधान किया गया कि यदि संसद और राज्य विधायिका का कोई सदस्य पार्टी बदलता है तो उसे सदन से बर्खास्त किया जाएगा. इसे ‘दल-बदल विरोधी कानून' के रूप में भी जाना जाता है.

इस अनुसूची के दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि सदन का कोई भी सदस्य, चाहे वो किसी भी पार्टी का हो, यदि पार्टी बदलता है या पार्टी के निर्देश के विपरीत वोट करता है या फिर पार्टी की इजाजत के बिना सदन की कार्यवाही से गैरहाजिर रहता है और वोट नहीं करता है, तो ऐसे व्यक्ति की सदन से सदस्यता खत्म कर दी जाएगी.

सदस्यता खत्म करने का मतलब है कि वो व्यक्ति सांसद या विधायक नहीं रह जाएगा. ये कानून इसलिए ही लाया गया था ताकि मौका पाते ही एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने से विधायकों या सांसदों को रोका जा सके.

संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत सदन के स्पीकर को काफी शक्तियां दी गई हैं, जिसके तहत वे निर्णय लेंगे. इसके पैराग्राफ 6(1) में कहा गया है, 

'सदन के सदस्य की बर्खास्तगी से जुड़ा यदि कोई सवाल उठता है तो उसे अध्यक्ष के सामने पेश किया जाना चाहिए और इसे लेकर उनका (अध्यक्ष या स्पीकर) निर्णय अंतिम यानी कि फाइनल होगा.'

क्या है किहोतो होल्लोहॉन केस?

हालांकि इस कानून के तहत स्पीकर के इन विवेकाधिकारों और शक्तियों को चुनौती दी गई थी. नागालैंड के किहोतो होल्लोहॉन नामक एक नेता ने इस कानून को चुनौती दी थी. वह तीन बार विधायक बने थे. इसलिए इस केस को 'किहोतो होल्लोहॉन केस' के नाम से जाना जाता है. सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की थी, जिसमें 3-2 से फैसला आया था. न्यायालय के सामने प्रमुख सवाल ये था कि क्या स्पीकर को दी गईं शक्तियां संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) के विपरीत हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में 'संविधान की मूल संरचना' को परिभाषित किया था, जिसमें न्यायालय ने ये सिद्धांत स्थापित किया था कि संविधान के कुछ मूलभूत चीजों को किसी संशोधन के जरिये बदला नहीं जा सकता है. 

जस्टिस एमएन वेंकटचलैया और के. जयचंद्र रेड्डी ने बहुमत पक्ष वाला फैसला लिखा था. इसमें जजों ने दल-बदल विरोधी कानून में स्पीकर की शक्तियों को जायज ठहराया था. पीठ ने कहा था, 

'संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष/सभापति का महत्वपूर्ण स्थान होता है और वे सदन के अधिकारों और विशेषाधिकारों के संरक्षक होते हैं. उनसे ये अपेक्षा की जाती है कि वे संसदीय लोकतंत्र में दूरगामी निर्णय लेंगे और वे करते भी हैं. इसलिए दसवीं अनुसूची के तहत उन्हें सवालों पर अंतिम निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करना अपवाद नहीं माना जाना चाहिए.'

तीनों जजों ने ये भी कहा था कि दसवीं अनुसूची में जो ये प्रावधान किया गया है 'वह सैद्धान्तिक है और अनैतिक राजनीतिक दलबदल पर अंकुश लगाकर भारतीय संसदीय लोकतंत्र के ताने-बाने को मजबूत करने के इरादे से लाया गया है.'

हालांकि पांचों जज इस दलील के समर्थन में नहीं थे. जस्टिस ललित मोहन शर्मा और जेएस वर्मा ने इसके विरोध में फैसला लिखा था. उन्होंने कहा था कि चूंकि स्पीकर तभी तक अपने पद पर बना रह सकता है, जब तक उसको समर्थन करने वाले सदन में बहुमत में हों. इसलिए ऐसे व्यक्ति/पद को अंतिम निर्णय लेने वाली अथॉरिटी नहीं घोषित किया जा सकता है.

उन्होंने ये भी कहा था कि स्पीकर स्वतंत्र निर्याणक अथॉरिटी की जरूरतों को पूरा नहीं करता है, इसलिए उन्हें ये जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती है.

जजों ने आगे कहा, 

'सदन के सदस्यों की बर्खास्तगी से जुड़े विवाद पर स्वतंत्र फैसला लेना लोकतांत्रिक व्यवस्था में बेहद महत्वपूर्ण है और ये संविधान की एक बुनियादी विशेषता है. ऐसे में निर्णय लेने की जिम्मेदारी स्पीकर को देना इसका उल्लंघन है.'

हालांकि, चूंकि ये अल्पमत का फैसला था, इसलिए इसे नहीं माना गया.

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