जब आवारा कुत्तों की वजह से महाराष्ट्र में दंगा हो गया
कुत्तों के चलते हिंदुस्तान बनाम अंग्रेज हो गया था

देश में कुत्तों के काटने के मामले अचानक बढ़े हैं. हाल ही में दिल्ली के वसंत कुंज से खबर आई थी कि दो भाइयों पर आवारा कुत्तों ने हमला कर दिया जिससे उनकी मौत हो गई. इससे पहले भी कुत्तों के काटने के कारण लागों ने जान गंवाई है. लेकिन क्या आपको पता है कि भारत में एक समय ऐसा भी था जब कुत्तों के नाम पर दंगे हो गए थे?
मामला क्या था?किस्से की शुरुआत साल 1813 के एक सरकारी अधिनियम से हुई थी. जिसमें कहा गया कि शहर में आवारा कुत्तों के काटने की घटनाएं बढ़ रही हैं. इसलिए अब कुछ लोगों की भर्ती की जाएगी जिनका काम हर साल के अप्रैल से मई और सितंबर से अक्टूबर महीने में कुत्तों को पकड़ना होगा. साथ ही ब्रितानी सरकार ने कुत्तों को पकड़ने वाले लोगों को 4 आने देने का भी ऐलान किया. पैसों के लालच में कुत्तों को बड़े तादाद में उठाया जाने लगा. लोगों ने उन कुत्तों को भी पकड़ना शुरु कर दिया जो ना तो खतरनाक थे और ना ही लोगों को काटा करते थे. इन घटनाओं के बाद से ही बॉम्बे का माहौल बिगड़ने लगा था. शहर से लगातार कुत्ते गायब होने लगे. फिर आया साल 1832, इस साल ब्रितानी सरकार ने एक फरमान भेजा जिसमें कहा गया कि 1813 के सरकारी अधिनियम की तारीख बढ़ा दी जाए.
पारसियों के लिए क्यों मायने रखते हैं कु्त्ते?6 जुलाई 1832, पारसी लोगों के लिए यह काफी महत्वपूर्ण दिन होता है. दरअसल पारसी धर्म में कुत्तों को काफी शुभ माना जाता था. इसकी पुष्टि पारसियों का धार्मिक ग्रंथ अवेस्ता भी करती है. अवेस्ता में कुत्तों को लेकर काफी विस्तार से चर्चा की गई है. उसमें लिखा गया 'ग्रेट रिस्पेक्ट फॉर डॉग' यानी पारसी लोग कुत्तों को काफी सम्मान के साथ देखते थे. यह भी कहा गया कि वह बहुत शुभ होते हैं साथ ही उनके होने से बुरे साये भी दूर रहते हैं. उसमें कुत्तों के ख्याल रखे जाने की बात भी शामिल थी.
दूसरे समुदाय भी पारसी के साथ आए!पारसियों ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि वो अब कुत्तों को ना मारें, लेकिन चेतावनी के बाद भी बॉम्बे के फोर्ट एरिया से कुत्तों के गायब होने का सिलसिला जारी रहा. माहौल तब ज्यादा खराब हुआ जब पारसियों ने फोर्ट एरिया से कुत्तों को ले जाते लोगों को देख लिया. अचानक खबर आई कि शहर के दूसरी ओर कुछ पारसी लोग गुस्से में हैं और सड़क पर उतर आए हैं. कुछ ही समय में तकरीबन 200 लोगों की भीड़ बॉम्बे के सड़क पर आ गई.
प्रदर्शकारियों में जोश बढ़ने लगा था. उसी हड़बड़ाहट में दो पुलिस कांस्टेबल पर भी भीड़ ने हमला कर दिया. इसके बाद पुलिस भी पूरी फोर्स के साथ सड़क पर आ गई. मार्किट बंद कर दी गई. साथ ही फोर्ट एरियाज में भी चल रहे काम को रोक दिया गया. अगले दिन शहर में बंदी की पूरी तैयारी हो गई, अंग्रेजों की पालकियों को रोककर उनपर पत्थर फेंके जाने लगे. मामला बढ़ने लगा, लोगों ने इस प्रकरण को बिल्कुल हिंदुस्तान बनाम अंग्रेज की तरह ले लिया था. दूसरे समुदायों के लोग भी पारसियों के साथ खड़े हो गए. देखते ही देखते प्रदर्शनकारियों की संख्या 500 के पार हो गई. उसमें हिंदू, मुस्लिम, जैन धर्म के लोग भी शामिल थे.
उसी बीच पारसियों के एक डेलिगेशन ने अंग्रेजों से बात की, कहा कि किसी भी कुत्ते को मारने के बजाय पकड़ा जाना चाहिए. अंग्रेजों ने बात मान ली. कुछ समय बाद मामला शांत हुआ. दंगे और प्रदर्शन के बावजूद किसी भारतीय के जानमाल का नुकसान नहीं हुआ था. बाद में अंग्रेजों को काफी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था. उस अधिनियम पर रोक लगा दी गई जिसके कारण इतना बवाल हुआ था.
इस घटना का असर ये हुआ कि बॉम्बे में अंग्रेजों ने दूसरे समुदाय के लोगों को भी बुलाना शुरु कर दिया. उससे पहले बॉम्बे में पारसियों की संख्या काफी ज्यादा हुआ करती थी. इस पूरे प्रकरण का परिणाम यह रहा कि भारत के दूसरे हिस्सों से भी लोग बॉम्बे की ओर पलायन करने लगे. अंग्रेजों ने पारसियों के दंगे को एक षडंयंत्र करार दिया.
(ये खबर हमारे साथ इंटर्नशिप कर रहे शशांक ने लिखी है)
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